आज भी सुरक्षित है काबुल में भगवान् बुद्ध का भिक्षापात्र

तारानाथ के अनुसार प्रथम शताब्दी ईसवी में कुषाण-शासक कनिष्क संस्कृत बौद्ध । महाकवि अश्वघोष और इस भिक्षापात्र को 6 करोड़ रुपये में खरीदकर पुरुषपुर । (पेशावर) ले गया था।


काबुल-स्थित अफगानिस्तान के राष्ट्रीय संग्रहालय के प्रवेश-द्वार पर रखे भगवान् बुद्ध के भिक्षापात्र के अध्ययन के लिए भारत ने भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण के नागपुर-स्थित फारसी और अरबी पुरालेख विभाग के निदेशक (डायरेक्टर इंचार्ज ऑफ इपीग्राफी ब्रांच) जी.एस. ख्वाजा और कलकत्ता हेरिटेज़ बायलॉज के निदेशक डॉ. फणिकांत मिश्र को अफगानिस्तान भेजा। दल ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि हरे ग्रे ग्रेनाइट पत्थर के 350-400 किलोग्राम वजनी, 18 सेमी मोटाई, 1. 75 मीटर गोलाई और 8 से 9 लीटर क्षमतावाला यह भिक्षापात्र भगवान् बुद्ध का नहीं है। । उल्लेखनीय है कि भगवान् बुद्ध ने अपना भिक्षापात्र कुशीनारा जाते समय वैशाली के लोगों को भेंटस्वरूप दिया था। तब से यह भिक्षापात्र वैशाली में था और वैशाली इस भिक्षापात्र के लिए प्रसिद्ध थी। तारानाथ के अनुसार प्रथम शताब्दी ईसवी में कुषाण-शासक कनिष्क संस्कृत बौद्ध महाकवि अश्वघोष और इस भिक्षापात्र को 6 करोड़ रुपये में खरीदकर पुरुषपुर (पेशावर) ले गया था। फाह्यान-जैसे कई प्रसिद्ध चीनी यात्रियों ने अपने यात्राविवरणों में इस भिक्षापात्र को तीसरी से नवीं शताब्दी के बीच पेशावर और बाद में कंधार में देखने का दावा किया है। डॉ. बेले ने 19वीं शती में कंधार में यह भिक्षापात्र देखा था। इस विषय पर भारतीयपुरातत्त्व सर्वेक्षण के तत्कालीन महानिदेशक सर एलेक्जेंडर कनिंघम ने 1883 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘रिपोर्ट ऑफ टूर्स इन नॉर्थ एण्ड साउथ बिहार : 1880-1881' के खण्ड 16 में इस भिक्षापात्र का चित्र देते हुए बताया है कि बुद्ध का यह भिक्षापात्र पुराने कंधार में है।



वर्षों तक यह भिक्षापात्र कंधार की एक मस्जिद में संरक्षित था। अफगानिस्तान सिविल वार के दौरान तत्कालीन राष्ट्रपति मो. नजीबुल्लाह (1987-1992) ने इसे काबुल संग्रहालय में संरक्षित करवा दिया। तभी से यह भिक्षापात्र काबुल के राष्ट्रीय संग्रहालय में है। आज इस भिक्षापात्र पर छः पंक्तियों में अरबी तथा फारसी भाषाओं में कुरआन की आयतें लिखी हुई हैं। तालिबान के शासनकाल में उसके संस्कृति मंत्री ने बौद्ध-धर्म से जुड़े सभी प्रतीकचिह्नों को तोड़ने का आदेश दिया था। लेकिन बुद्ध के इस भिक्षापात्र पर अरबी और फारसी में पंक्तियाँ लिखी होने के कारण सौभाग्य से यह बच गया। कुरआन की आयतों के आधार पर भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण ने कहा कि यह भिक्षापात्र भगवान् बुद्ध का नहीं है। गोरखपुर विश्वविद्यालय में प्राचीन इतिहास विभाग के पूर्व प्रो. शैलनाथ चतुर्वेदी के अनुसार इस भिक्षापात्र के कई स्थानों से होकर गुजरने का उल्लेख मिलता है, इसलिए इस पर स्थानीय भाषाओं में कुछ उल्लेख मिलना कोई आश्चर्य की बात नहीं है।


पात्र के आकार और वजन के आधार पर भी यह धारणा बनाई गई है। कि यह भिक्षापात्र बुद्ध का नहीं हो सकता है। जबकि प्रचलित बौद्ध अवधारणा है कि बुद्ध 18 फीट लम्बे थे। 18 फीट लम्बे व्यक्ति के लिए 350-400 किग्रा. भिक्षापात्र उठाना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है। इसके अतिरिक्तटोक्यो के राष्ट्रीय संग्रहालय में संरक्षित द्वितीय शताब्दी की एक गांधार-प्रतिमा में दो योद्धाओं को बुद्ध का भिक्षापात्र उठाते हुए दर्शाया गया है। यदि यह भिक्षापात्र हलका-फुलका होता तो उसे उठाने के लिए दो योद्धाओं की आवश्यकता क्यों पड़ती?


इसके अतिरिक्त इस भिक्षापात्र पर स्वस्तिक और कमल पुष्प के भी चिह्न उत्कीर्ण हैं जिससे यह निश्चित रूप से बौद्ध-धर्म से संबंधित है। जहाँ तक पात्र के आकार का प्रश्न है, पूर्व में भी बड़े आकार के कई ऐतिहासिक चिह्नों को विभिन्न काल में शासक एक स्थान से दूसरे स्थान ले गये। बौद्ध मठों में इस तरह के पात्र मठ के बाहर दरवाजे पर रखे रहते थे, जिसमें लोग मठ के लिए दान डालते थे।


यह भी उल्लेखनीय है कि मुस्लिम आक्रांता प्रत्येक हिंदू-वास्तु, जैसेमन्दिरों, स्तम्भों आदि के मूल हिंदूस्वरूप को विकृतकर उसे इस्लामी स्वरूप देने में कुशल रहे हैं। बुद्ध के भिक्षापात्र पर भी उन्होंने कुरआन की आयतें उत्कीर्ण कर दी गई हों, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होनी चाहिए।