नौ खंडीय काला-गोरा भैरव मंदिर

राजस्थान के सवाईमाधोपुर शहर के प्रवेश द्वार के पास एक छोटी सी पहाड़ी पर स्थित भैरूजी का मंदिर वास्तुकला का अनूठा नमूना है। भैरव देव की उत्पत्ति के बारे में कहा जाता है कि ये शिव के अंश से उत्पन्न हए हैं और उन्होंने गर्वोन्मत ब्रह्माजी के पांचवें सिर को अपने नख से काट डाला था तथा उस कपाल को लेकर काशी चले गए। तब से भैरव को कपालिक, कपर्दी या लाट भैरव भी कहा जाने लगा। काशी की सीमा में घुसते ही उनका ब्रह्म-हत्या से भी पीछा छूट गया। कहा जाता है कि वह हत्या काशी में प्रवेश नहीं कर सकी और बाहर ही धरती में समा गयी। तब से उन्हें काल भैरव के नाम से भी जाना जाने लगाकाल भैरों को तामसिक तथा गोरे भैरव को सात्विक प्रवृति का माना जाता है। करौली के पास स्थित कैला मां का छैल-छबीला, रसिया लांगुरिया गोरे भैरव का ही प्रतीक है। इसकी चिरौरी से देवी मइया प्रसन्न होती हैं। राजस्थान में इन दोनों भैरूओं के अलावा बटुक और कंकाल भैरों की भी मान्यता है।



बहरहाल, सवाईमाधोपुर का यह स्थल जाग्रत तंत्र पीठ है। अरावली पर्वत की श्रेणी की अंतिम उपत्यकाओं की एक गुहा में मंदिर का गर्भग्रह स्थित है। यहां धूणा और 12 मन का विशालकाय त्रिशूल है। मंदिर का भवन नौ खंडों में बताया जाता है। भवन का स्थापत्य इतना अद्भुत है कि मंदिर के प्रवेश द्वार पर बने हुए मोखे (एक छोटी खिड़की) से भैरोंजी के दर्शन किए जा सकते हैं। ऐसे अशक्त भक्तजन जो सीढियां चढकर भैरों बाबा के दर्शन नहीं कर सकते वे धरातल पर निर्मित इस खिड़की से ही नवें खंड की गुहा में स्थापित प्रतिमा के साक्षात दर्शन कर कृत कृत हो जाते हैं। सवाईमाधोपुर के वयोवृद्ध चित्रकार श्री कांतिचंद्र भारद्वाज के पुत्र श्री महेश शर्मा ने एक दफा मुझे मंदिर को दिखाते हुए अत्यंत बारीकी से, मंदिर की बारीकियों से अवगत कराया था तथा भैरव चक्र के बारे में जानकारी दी। मंदिर के प्रवेश द्वार पर दो विशालकाय गज सुंड उठाए हुए तोरणद्वार की शोभा बढ़ा रहे हैं। एक द्वार के पास बलदाऊजी का मंदिर है। कुछ ऊपर चढ़ने पर गणेशजी की विशालकाय प्रतिमा मिलती है। इसके सामने ही एक छतरी है, जो तीन स्तंभों पर टिकी है। शिव के एकादश रूद्र पिंड यहां स्थापित हैं। जलहरी पर लक्ष्मी यंत्र बने हैं। सप्त मातृकाएं तथा नव दुर्गा स्थापित हैं। नाथ संप्रदाय के प्रवर्तक बाबा गोरखनाथ तथा महातांत्रिक रावण की प्रतिमाएं इस मंदिर में स्थित हैं।



अंततः अंतिम मंजिल पर स्थित गर्भगृह में दोनों प्रकार के भैरव अपने अपने स्थान पर विराजमान हैं। यहीं अखंड जोत जल रही है। प्रतिमा के पास रखे पालने को झुलाकर नव दंपत्ती यहां संतति सुख की कामना करते हैं। यहां वर्ष में एक बार मेला भी लगता है।



सवाईमाधोपुर से नौ किलोमीटर दूर रणथंभोर के दुर्ग में स्थित आस्था का प्रतीक त्रिनेत्र गणेश मंदिर भारत भर में विख्यात है। उस मंदिर और दुर्ग के बारे में इसी स्तंभ में फिर कभी विस्तार से लिखूगा। अभी सवाईमाधोपुर के ही अन्य मंदिरों और नगर के सांस्कृतिक तथा ऐतिहासिक महत्व की चर्चा करते हैं।



अब, थोड़ी सी चर्चा प्राचीन गलता जी के मंदिर की कर लें। यहां परिसर में लगे प्रस्तर लेख के अनुरूप रामानुज संप्रदाय के इस मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा संवत् 1822 में गलता गद्धी जयपुर के आचार्य श्रियाचार्यजी महाराज के कर कमलों से हुई थी। मंदिर के पुजारी श्री रमाकांत शर्मा और श्री प्रवीणकुमार शर्मा मुझे उस विशाल परिसर के चप्पे चप्पे की जानकारी दे रहे थे। रमाकांतजी का कहना था कि जैसा भवन दिख रहा है, ठीक वैसा ही धरती के नीचे भी निर्मित है किन्तु उसका मार्ग किसी कमी को ज्ञात नहीं। अलबत्ता, उन्होंने मुझे एक ऐसी जगह बतायी, जिससे एक तहखाने में जाया जा सकता है। एक कमरे के फर्श के । नीचे एक छोटा सा मोखा बना हुआ था। रमाकांतजी कहना था कि जब, मंदिर में दर्शनार्थियों की अधिक भीड़ हो जाती थी तो तप-साधना करने वाले साधु, बाहरी संपर्क से बचने के लिए, उसमें प्रवेश कर जाते थे। रमाकांतजी बताते हैं कि इस मंदिर में कभी सवा मन आटे से बनी सामग्री का भोग लगा करता था और उसके लिए अलग से पाकशाला थी। हमने वह पाकशाला भी देखीपंडितजी ने यह भी बताया कि मंदिर की व्यवस्था हेतु लगभग 220 बीघा जमीन लगाई हुई थी जिस पर अब, अनेक लोगों ने कब्जा कर लिया है।



सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि मंदिर की परिक्रमा की दीवारों पर उकेरी हुईं, की परिक्रमा की दीवारों पर उकेरी हईं, कुछ चित्राकृतियां और प्राचीन लिपि हमें नजर आयीं। उनके बारे में बताया गया कि वे वहां रहने वाले साधु-संतों ने लिखी हैं वे वहां रहने वाले साधु-संतों ने लिखी हैं और संभवतः वे बाल्मिकी रामायण के श्लोक हैं। चित्राकृतियों को देखकर, उनके किसी यंत्र होने का आभास होता है। उकेरे गए वर्णन को पढ़ने के बाद यह प्रतीत होता है कि वे श्लोक न होकर, चौपाईयां हैं। खुशी की बात है कि मंदिर के व्यवस्थापकों ने अभी तक उसे सुरक्षित रखा है और उनका पर्याप्त अध्ययन जरूरी है।



गलता मंदिर के अलावा गोपालजीगोविन्ददेवजी, रघुनाथजी, श्रीजीनरसिंहजी, जगदीशजी, अनेक हनुमान और अनेक जैन मंदिर तथा एक गुजराती मंदिर इस शहर में अवस्थित है।


अब, सवाईमाधोपुर नगर के इतिहास की बात करें। सवाई माधोसिंह प्रथम ने नगर निर्माण हेतु जिस स्थान का चयन किया वह तीन ओर से पहाड़ियों से घिरा होने से अत्यंत सुरक्षित था। भैरों द्वार पर दोनों ओर चौकसी हेतु चौकियां थीं। इतिहासविज्ञ रमेश राणावत ने लिखा है कि यहां दो सौ नागा बाबाओं का पहरा हुआ करता था। इस नगर के सुरक्षित होने के महत्व का प्रमाण यह है कि यहां टकसाल की स्थापना की गयी थी। जिला गजेटियर में लिखा है कि इस टकसाल का अस्तित्व जयपुर रियासत से अलग था। जयपुर रियासत के सिक्के झाड़शाही कहलाते थे, जिनमें छः पत्तियों वाला झाड़ अंकित था, जबकि सवाईमाधोपुर की टकसाल में तीन पत्तियों वाला फूल अंकित होता थावर्तमान में बजरंग भवन जहां स्टेट बैंक ऑफ बीकानेर एण्ड जयपुर स्थित है। वहां वह टकसाल थी। करेंसी ऑफ द हिन्दू स्टेट ऑफ राजपूताना के अनुसार जयपुर के महाराजा रामसिंह के समय उस टकसाल में स्वर्ण मुद्राएं ढ़ाली जाती थीं। उससे पूर्व महाराजा पृथ्वीसिंह के समय अर्थात् तकरीब सन् 1774 में यह मुद्रणालय अपना काम प्रारंभ कर चुका था। यहां चांदी तथा तांबे के सिक्के ढाले जाते थे। चांदी का सिक्का लगभग 172.84 ग्रेन तथा तांबे के सिक्के का भार तकरीब 282 ग्रेन हुआ करता था। कुछ सिक्के 94 से 96 ग्रेन के भी थे। जयपुर राज्य की दूसरी जागीरों में कार्य कर रही टकसालें उन्नीसवीं सदी में बंद कर दी गयी थीं किन्तु सवाईमाधोपुर की टकसाल से सन् 1949 तक सिक्के जारी होते रहे।