कुचामन किला : जागीरी किलों का सिरमौर

जिस पर्वतांचल में कुचामन बसा है, जहाँ पूर्व में कुचबंधियों की ढाणी थी। अनुमान है कि उसी के आधार पर यह कस्बा कुचामन कहलाया। इतिहास में उल्लेख मिलता है कि इस कस्बे पर प्राचीन समय में गौड़ क्षत्रियों का वर्चस्वथा जिसकी प्रमाण कुचामन के आस-पास के क्षेत्रों मिठडी, लिचाणा एवं नावां क्षेत्र में मिलते हैं। उस काल में मारोठ इसकी राजधानी थी जो कि एक प्राचीन नगर है। इतिहास इसका प्रमाण देता है कि मुगल बादशाह शाहजहाँ के काल तक गौड़ों का प्रकर्ष था।


कुचामन सिटी नागौर जिले का एक ऐतिहासिक कस्बा है। यह जयपुर- ७ जोधपुर रेल मार्ग पर नावां और मकराना के मध्य में एक छोटा रेलवे स्टेशन है। मुख्य कस्बा इस स्टेशन से लगभग 10 कि.मी. पर अवस्थित है। कुचामन पूर्व जोधपुर रियासत में मेड़तिया राठौडों का एक प्रमुख ठिकाना था, जो न केवल अपने शासकों की वीरता और स्वामीभक्ति एवं बलिदान की घटनाओं के लिए विख्यात है, अपित अपने भव्य और सुदृढ़ दुर्ग के लिये भी प्रसिद्ध है। कुचामन का किला रियासतों के किलों से टक्कर लेता है, इसलिए यदि कुचामन के किले को जागीरी किलों का सिरमौर कहा जाए तो गलत नहीं होगा। इसके सम्बन्ध में एक लोकोक्ति कही जाती है।


'ऐसा किला राणी जाये के पास भले ही हो, ठकुराणी जाये के पास नही। इतिहास - जनश्रुति के अनुसार जिस पर्वतांचल में कुचामन बसा है, वहाँ पूर्व में कुचबंधियों की ढाणी थी। अनुमान है कि उसी के आधार पर यह कस्बा कुचामन कहलाया। इतिहास में उल्लेख मिलता हैकि इस कस्बे पर प्राचीन समय में गौड़ क्षत्रियों का वर्चस्व था जिसका प्रमाण कुचामन के आस-पास के क्षेत्रों मिठडी, लिचाणा एवं नावां क्षेत्र में मिलते हैं। उस काल में मारोठ इसकी राजधानी थी जो कि एक प्राचीन नगर है। इतिहास इसका प्रमाण देता है कि मुगल बादशाह शाहजहाँ के काल तक गौड़ों का प्रकर्ष था। तत्पश्चात यह भू-भाग जोधपुर रियासत के अधीन हो गया। जोधपुर के महाराज अभयसिंह ने 1727 ई. में जालिमसिंह मेड़तिया को कुचामन की जागीर प्रदान की। रियासत काल में कुचामन जोधपुर राज्य के अधीन था जिसके अधिकार में 193 गाँव आते थे। जालिमसिंह वीर और पराक्रमी थे वह जोधपुर रियासत की ओर से युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। कहा जाता है कि यहाँ के शासक जोधपुर रियासत के प्रति सदैव स्वामीभक्त रहे। कवि राजा बांकीदास ने कुचामन के सामंत शासकों की प्रशंसा में अपनी ख्यात में लिखा है -


कदीही कियो नह रूसणो कुचामण।


कुचामण साम-ध्रम सदा कीधो।।


अलवर के बख्तावरसिंह का 1793 ई. में कुचामन की राजकुमारी से सम्पन्न हुआ। कुचामन के अंतिम शासक ठाकुर हरीसिंह प्रजावत्सल शासक हुए। उन्होंने कुचामन की गौशाला के लिए भी भूमि का दान किया।



कुचामन का किला


वीरता और शौर्य का प्रतीक कुचामन का किला, जो एक विशाल और ऊँची पहाड़ी पर बना है, गिरि दुर्ग का सुन्दर उदाहरण है। उन्नत प्राचीर और सुदृढ़ बुर्जा वाला यह किला प्राचीन शिल्पशास्त्रों में वर्णित ड्रग स्थापत्य के विधान के अनुरूप निर्मित है। इस भव्य दुर्ग के निर्माता के बारे में प्रामाणिक तथ्यों का अभाव है। लोकोश्रुति के अनुसार यहाँ के पराक्रमी मेड़तिया जालिम सिंह ने वनखण्डी नामक महात्मा के आशीर्वाद से कुचामन किले की नींव रखी। इतिहासकर सम्भावना व्यक्त करते हैं की जालिमसिंह ने गौड़ शासकों द्वारा निर्मित इस किले का जीर्णोद्धार एवं विस्तार कर इसे दुर्भेद्य दुर्ग बनाया। इस किले की तलहटी में उसके भव्य गढ़ हैंजहाँ से किले के ऊपर जाने के लिए घुमावदार मार्ग बना है। कुचामन के इस किले में 18 बुर्जे, भव्य महल, रनिवास, सिलहगार, अन्न भंडार, पानी के विशालकाय टाँके, देव मन्दिर बने हुए हैं। किले के भवनों में सुनहरी बुर्ज सोने (स्वर्ण) के बारीक व सुन्दर काम नयनाभिराम है। रानी के महल या रनिवास एवं कांच महल (शीश महल) भी अपने शिल्प एवं सौन्दर्य के कारण दर्शनीय हैं।



जल संग्रहण के लिए विशाल 5 टांके (हौज) है, जिनमें पाताल्या हौज और अन्धेरया हौज (बंद टांका) मुख्य हैं। अतीत में कुचामन के किले के निचे पानी की विशाल नहर बहती थी, जिसका सुरक्षा की दृष्टि से विशेष महत्त्व था। भीतरी चौक में घोड़ों की पायगें एवं हस्तिशाला भी विद्यमान है। इस किले का सिलहखाना बहुत बड़ा है तथा उसमें शीशा एवं बारूद रखने के पृथक-पृथक कक्ष बने हुए हैं। किले के उत्तर की ओर टीला है जो आज भी हाथी टीबा कहलाता है। किले के पूर्व में एक छोटी डूंगरी पर भव्य सूर्यमन्दिर स्थित है, जो सूर्यवंशी राठौड़ों की आस्था का प्रतीक है। गणेश डूंगरी पर भगवान गणेश का भव्य मन्दिर स्थित है। कुचामन के इस किले का कभी शत्रु सेना के समक्ष पतन नहीं हुआ, इसलिए यह अणखला किला कहलाता है। कुचामन में मारवाड़ राज्य की टकसाल थी जिसमें ढले हुए सिक्के कुचामनी सिक्के कहलाते थे।


ऐतिहासिक कस्बा कुचामन अतीत में एक सुदृढ़ परकोटे के भीतर बसा, जिसके प्रमुख प्रवेशद्वार में आथूणा दरवाजा (चाँदपोल), सूरजपोल, कश्मीरी दरवाजा, पलटन दरवाजा, होद का दरवाजा और धारी दरवाजा उल्लेखनीय है, पूर्व में कुचामन में बन्दुकिया मुसलमानों की बस्ती थी जो बन्दूके बनाने एवं मरम्मत का कार्य करते थे। रियासत काल में ही यहाँ लोकनाट्य की अपनी मौलिक शैली और परम्परा विकसित हुई जो कुचामन ख्याल के नाम से प्रसिद्ध हैकुचामन में गणगौर के मेले की प्राचीन परम्परा है। कुचामन के दुर्ग से कुछ ही दूरी पर श्यामगढ़ ग्राम का दुर्ग एवं मिठडी ग्राम का दुर्ग भी दर्शनीय है।