सुगाली माता जिन्हें देखकर अंग्रेज भय से काँपते थे

राजस्थान प्रदेश के राजपूत-राजवंशों में शक्ति-आराधना की परम्परा अति प्राचीन काल से ही प्रचलित रही है। राजपूतों ने अपनी इस आराधना हेतु शाक्त मत की कई तांत्रिक प्रतिमाओं का निर्माण भी करवाया जिसकी आराधना करके वे यौद्धिक प्रदर्शनों में विजयश्री अथवा उत्सर्ग का वरण कर गर्व का अनुभव करते थे। उन्होंने वैदिक-पौराणिक देवी-प्रतिमाओं के अतिरिक्त अनेक लोकदेवियों की प्रतिमाओं का भी निर्माण करवाया तथा उन्हें शक्ति, सामर्थ्य अर्जन हेतु लोक में प्रसिद्ध किया।


लोकदेवी-प्रतिमाओं की श्रृंखला में राजस्थान में एक ऐसी मूर्ति भी है जो देशभर की समस्त लोकदेवी-प्रतिमाओं में अपनी विशिष्ट निर्माण-शैली और प्रतीकों के कारण चर्चित है। सुगाली माता की यह प्रतिमा किसी समय पाली मारवाड़ के आऊवा-राजपूत (गौड़-वंश) ठिकाने के किले में प्रतिष्ठित थी। आऊवा के गौड़-राजपूत वंश की कुलदेवी और आराध्या इस देवी की समूचे क्षेत्र में बहुत मान्यता थी। काले पाषाण से निर्मित यह प्रतिमा मूलतः महाकाली शक्ति) का कोई उग्र तांत्रिक स्वरूप है। 3 फीट, 8 इंच ऊँची तथा 2 फीट 5 इंच चौड़ी यह प्रतिमा तब चर्चा में आई जब 1857 के स्वाधीनता संग्राम में आऊवा क्षेत्र के स्वाधीनता सेनानियों ने इसे किले से बाहर लाकर जन-जन में प्रकट किया था। कहा जाता है कि तब वहाँ के स्वाधीनता सेनानी इसी देवी के दर्शन कर अपनी क्रान्तिकारी गतिविधियाँ आरम्भ करते थे और यह देवी उनका मार्गदर्शन करती थी। इस लोकआस्था की बात जब ब्रिटिश सरकार के गोरे सैनिकों के कानों में पड़ी तो उनमें यह भय व्याप्त हो गया कि ‘सुगाली माता की इस विचित्र प्रतिमा में विश्वास करके आन्दोलनकारियों में विद्रोह की भावना जाग्रत् होती है।



बाद में किसी प्रकार ब्रिटिश सैनिकों ने आऊवा के किले पर अधिकार किया और भयवश उन्होंने तत्काल इस प्रतिमा को उस किले से हटाकर आबू (सिरोही) भिजवा दिया। बाद में 12 दिसम्बर, सन् 1909 को अजमेर के राजपूताना संग्रहालय स्थापित होने पर वहाँ इस मूर्ति को भेज दिया गया। लगभग 82 वर्षों बाद सन् 1991 में सुगाली माता की इस प्रतिमा को पाली के पुरातत्त्व संग्रहालय में स्थापित किया गया था, जहाँ आज भी यह प्रदर्शित है।


लेखिका के सामुख्य अध्ययनानुसार 17वीं-18वीं शती की शिल्पकला से अभिप्रेरित सुगाली माता की यह प्रतिमा पद्मपुष्प पर औंधे पड़े एक दानव की देह पर रौद्र मुद्रा में वीरत्व भाव से खड़ी है। उनका एक चरण दानव की गर्दन पर और एक चरण उसकी जंघा पर स्थित है। देवी का यह भाव घोर नृत्य करता प्रतीत होता है। सुगाली माता की इस विचित्र मूर्ति के 10 शीश हैं। इनमें मुख्य शीश मुख मानवीय स्वरूपा है परन्तु शेष 9 शीश (मुख) विभिन्न पशुओं के हैं। इनमें गज, अश्व, शूकर, वराह, गरुड़


आदि के स्वरूप हैं। देवी के दोनों ओर कुल 54 कर (हाथ) है और उन सभी में वे विभिन्न प्रकार के यौद्धिक अथवा अरिमर्दन के प्रयुक्त होनेवाले आयुधों को धारण किए हुए है। देवी का मुख्य मानवीय देवमुख एक विचित्र वीरभाव की गाम्भीर्यता लिए हुए है। उनके सभी मुखों के शीश पर लम्बे टोपनुमा मुकुट हैं जो उस शती के सैनिकों के शीश पर लगे होते थे। देवी की ग्रीवा से लेकर घुटनों के नीचे तक मुण्डमाला सुशोभित है। उनकी कटि में करधनी है जिसमें भग्न आसुरी भुजाओं का आवरण है। उनकी ग्रीवा में मुण्डमाला तथा प्रत्येक मुण्ड के नीचे लड़ी माला का हार सुशोभित है। इस माला के नीचे देवी की ग्रीवा के दोनों ओर लिपटे नाग को भी वेष्टित रूप में उकेरा गया है। देवीप्रतिमा को यज्ञोपवीत तथा बाजूबन्द एवं हाथ में सैनिक कड़ों को उकेरकर सजाया गया है। देश के किसी पुरातत्त्व-संग्रहालय में काली देवी के ऐसे लोकदेवी स्वरूप की मूर्ति अब तक प्रकाश में नहीं आई है।


जयपुर के इतिहासकार डॉ. राघवेन्द्र सिंह मनोहर के अनुसार सुगाली माता की इस प्रतिमा को अपनी कुलदेवी मानकर पूजा करनेवाले राजस्थान के गौड़वंशीय राजपूत रहे हैं। इस वंश का प्रभाव मध्यकाल में इस प्रदेश के मारवाड़ क्षेत्र में रहा है। यह वंश स्वयं को सूर्यवंश से सम्बद्ध बताता है। इस वंश का गोत्र भारद्वाज, प्रवर भारद्वाज एवं बार्हस्पत्य आंगीरस, वेद-यजुर्वेद, शाखा-वाजसनेयी, सूत्र-पारस्कर, कुलदेवी-महाकाली (सम्भवतः इसी कारण सुगाली माता (लोकदेवी) को इसी महाकाली का लोकस्वरूप इस वंश ने माना), इष्टदेव-रुद्र (शिव का अघोर रूप) एवं कुलवृक्ष-कदली है। इस वंश की विस्तारित शाखा के गोत्र अमेठिया, अजमेरा, मारोठिया, अर्जुनदासौत, बलभद्रोत, ब्रह्मगौड़, चमरगौड़, भट्टगौड़, वैद्यगौड़, सुकेलगौड़, तथा पीपरियागौड़ हैं।