सा विद्या या...

‘दी कोर' का दूसरा अंक ‘शिक्षा विशेषांक' आपके हाथों में है। जब से मानव सभ्यता का सूर्य उदय हुआ है, तभी से भारत अपनी शिक्षा तथा दर्शन के लिए जाना जाता रहा है। यह सब भारतीय शिक्षा के उद्देश्यों का ही चमत्कार है कि भारतीय संस्कृति ने संसार का सदैव पथ-प्रदर्शन किया जो आज भी जीवित है। इसका कारण यह है कि शिक्षा एक प्रकार की चेतना है और उसकी प्रकृति विकासशील है। देश काल की परम्पराएँ और परिस्थितियाँ उसे प्रभावित करती हैं। भगवद्गीता (6.15) के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिये व्यक्ति का सर्वतोमुखी विकास, अर्थात शरीर, मन और आत्मातीनों तत्त्वों का सामंजस्यपूर्ण विकास- ‘युज्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः, शान्तिं, निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति' अर्थात् शरीर मन तथा कर्म में निरन्तर संयम का आभास करते हुए व्यक्ति आत्मानुभूति करने में समर्थ हो जाता है। इस प्रकार शिक्षा का उद्देश्य भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों ही है।



ऐसी शिक्षा की प्राप्ति के लिए आत्मसंयम तथा इन्द्रिय-निग्रह की सलाह दी गई है; क्योंकि नैतिक सिद्धान्तों के आधार पर ही सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक जीवन की प्रगतिशील पुनर्योजना सम्भव है। अतः शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिये कि विद्यार्थी सामाजिक बुराइयों को दूर करने में समर्थ हो। अर्थात् चरित्र-निर्माण, नैतिक विकास व हृदय की संस्कृति का निर्माण। क्योंकि शिक्षा का अन्तिम उद्देश्य तो मुक्ति है- ‘सा विद्या या विमुक्तये' (विष्णुपुराण, 1.19.41)। साथ ही विषयों की उपयोगिता के आधार पर शिक्षा दी जाये जो व्यक्ति की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ-साथ उसके चरित्र-निर्माण में भी सहयोग दे। स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि “जिस शिक्षा से हम अपना जीवन निर्माण कर सकें, मनुष्य बन सकें, चारित्रिक विकास कर सकें और वैचारिक सामंजस्य स्थापित कर सकें, वही वास्तव में शिक्षा कहलाने योग्य है।'' इसलिए केवल साक्षरता ही शिक्षा नहीं कहलाती, एक अनपढ़ किसान भी नैतिक मूल्यों से युक्त हो सकता है और एक केवल पुस्तकीय ज्ञान से भरपूर व्यक्ति भी दुराचारी हो सकता है। शिक्षा ऐसी हो जो मानवीय गुणों का विकास करे ताकि मनुष्य के शरीर, हृदय, मन और आत्मा का सामंजस्यपूर्ण विकास हो सके। इसके साथ ही शिक्षा ऐसी हो जो नवयुवकों को बेरोजगारी से मुक्त कर सके। जब जीवन-यापन की समस्या नहीं रहेगी, तब ही वह आत्मनिर्माण और अध्यात्म की दिशा में प्रयास कर सकेगा।


आज शिक्षा जगत् की यह सबसे बड़ी विडम्बना है कि सेकेंड्री स्कूल में अच्छे अंक लाने के दबाव से छात्र आत्महत्या करने की ओर उन्मुख हो रहे हैं तो दूसरी ओर अनेक छात्र एम.ए., पीएच.डी., नेट की डिग्रियाँ लेकर भी बेरोजगार हैं और नौकरी के लिए दर-दर भटक रहे हैं। पढ़ाई का लक्ष्य आर्थिक पहलू पर केन्द्रित हो गया है। युवा छात्र वर्ग के सामने नेताओं का रातों-रात अमीर होने का आदर्श दिखाई देता है। यह वर्ग भूल जाता है कि भौतिक सुविधाओं से शिक्षा का स्तर नहीं उठता बल्कि मौलिक व नैतिक आदर्शो से बनता है। बल्कि मौलिक व नैतिक आदर्शो से बनता है। प्रस्तुत अंक में शिक्षा से चरित्र-निर्माण पर विशेष सामग्री दी गई है।


प्रस्तुत अंक देश के उन शिक्षाविदों और उद्यमियों को समर्पित है जिन्होंने हजारों अभावग्रस्त, गरीब, बेसहारा बच्चों, महिलाओं को शिक्षित-प्रशिक्षित करने और उन्हें अपने पैरों पर खड़ा करने के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन लगा दिया है। इस अंक के अन्य स्थायी स्तम्भ भी शिक्षा-केन्द्रित हैं।


‘दी कोर' के प्रवेशांक की सफलता से हमारा उत्साहवर्धन हुआ है। आशा है, यह अंक भी आपको पसन्द आयेगा। हमें आपकी प्रतिक्रिया और सुझावों की प्रतीक्षा रहेगी।