संगीत की उत्पत्ति प्रमाणित साक्ष्य से पहले का काल

सगीत का वास्तविक आरम्भ कब और किस रूप में हुआ, इसका कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलता। हालाँकि खोजियों और शोधकर्ताओं ने हर विषय को प्राप्त साक्ष्य के आधार पर किसी विशेष काल से सम्बद्ध करने की परम्परा को सबसे प्रामाणिक माना है। इतिहास सदा ही पुरातात्त्विक स्रोतों, जैसे- अभिलेखों और खनन से प्राप्त अवशेषों, धर्मग्रन्थों, ऐतिहासिक ग्रन्थों एवं विदेशी यात्रियों और तीर्थयात्रियों के विवरणों, लेखों, अनुमानों एवं विश्लेषणों पर निर्भर रहा है। परन्तु, यह आवश्यक नहीं कि जिस वस्तु को हमने उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर सातवीं या आठवीं शताब्दी का माना हो, उसकी विचारों या कल्पना के स्तर पर उत्पत्ति ठीक उसी समय हुई हो। कार्बन डेटिंग विधि से हम किसी वस्तु कि उम्र का अनुमान तो कर सकते हैं, लेकिन यह पता करना कि उसकी कल्पना मनुष्य के मन में कब आई, अत्यन्त दुष्कर है।



आज संगीत, सुरों, तालों, वाद्ययन्त्रों, शैली, प्रकार एवं स्वीकृत परम्परा के द्वारा विश्लेषित किया जाता है; परन्तु उस काल की कल्पना कीजिये जब प्रकृति में संगीत तो व्याप्त था लेकिन मनुष्य ने उसे बस महसूस भर ही किया था। संगीत-इतिहास से जुड़े कई विज्ञों के अनुसार मनुष्य के जीवन में संगीत ने उसी दिन से ही स्थान ग्रहण कर लिया होगा जब उसे पक्षियों के चहचहाने पर आनन्द आया था भले ही वे सुर आज के वैज्ञानिक दृष्टिकोण से तारत्त्व में न रहे हों। वृष्टि की बूंदें जब पत्थर पर अनवरत चोट करती होंगी तो मनुष्य धीरे-धीरे उस ध्वनि में समाहित ताल का आनन्द लेने लगा होगा भले ही उन अनवरत चोटों में सम, खाली, ताली-जैसे संगीत-व्याकरण के तत्त्व उपस्थित न रहे हों। मूल तौर पर संगीत एक अनुभूति है जो कालान्तर में करणों, प्रकरणों, खण्डों और अध्यायों में विभक्त होता गया। संगीत-व्याकरण का निर्माण भी एक लम्बी प्रक्रिया रही जिसमें संगीत के अनेक तत्त्वों में से कुछ तत्त्वों को आनन्ददायक और आवर्ती होने के आधार पर छाँट लिया गया और जिन्हें बाद में वैज्ञानिक आधार भी मिला। भौतिकी के अनुसार 'सा' की आवृत्ति 256 हर्ट्ज़ होती है और ये वही 'सा' है जिसे पाश्चात्य संगीत में 'सी' अथवा 'डो' के नाम से जाना जाता है। यह ‘सा', 'सी', या ‘डो' तो संगीत-व्याकरण से जुड़े शोधकर्मियों के मष्तिष्क से उपजी नामकरण-पद्धति है और इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि इन शब्दों के अस्तित्व में आने से पहले प्रकृति में 'सा' की आवृत्ति का स्वर उपस्थित था ही नहीं। वस्तुतः प्रकृति में ध्वनि के अस्तित्व में आने के साथ ही संगीत के सभी घटक अस्तित्व में आ गए जिनमें से कुछ निश्चित तत्त्वों को सुविधा, रुचि, बारम्बारता एवं सुग्राह्यता के आधार पर धीरेधीरे अपनाया जाने लगा।यह सतत प्रक्रिया विश्व के हर उस कोने में हुई। होगी जहाँ-जहाँ मानव सभ्यता पनप रही थी। फलस्वरूप विश्व के हर कोने में भाँति-भाँति का संगीत बिखरने लगा। संगीत के कुछ विशेष तत्त्व हर सभ्यता में लगभग सामान ही रहे क्योंकि मानव का डी. एन. ए. 99.99% प्रतिशत समान है और हर मानव-मस्तिष्क प्राकृतिक उद्दीपनों पर एक समान प्रतिक्रिया देता है जो सामाजिक या भौगोलिक कारणों से सीखी गई प्रतिक्रियाओं से अलग है। सामाजिक या भौगोलिक कारणों से सीखी गई प्रतिक्रिया अलग-अलग हो सकती है लेकिन जो प्रकृति ने हमें सिखाया है, उसकी प्रतिक्रिया एक स्वस्थ और सामान्य मानव मस्तिष्क के लिए लगभग एक सामान होती है। जैसे- हँसी, रुलाई, ठण्ढ अथवा गर्मी का एहसास।


संगीत में अपनाये गए ‘सा' से 'रे' अथवा 'रे' से 'ग' के बीच की दूरी क्या होगी, इसका गणितीय विश्लेषण तो बाद में हुआ होगा परन्तु मानव के मष्तिष्क को यह दूरी प्रारम्भ से ही सहज लगी होगी क्यूंकि मस्तिष्क के द्वारा इसकी स्वीकृति प्राकृतिक है। इसमें अपवाद की सम्भावना बस लेशमात्र की एक अस्वस्थ मस्तिष्क की ही हो सकती है। जैसे, एक पागल को सर्दी या गर्मी का एहसास नहीं होता। इसलिए कोई पागल ही ऐसा कह सकता है कि उसे सबसे अधिक आनन्द बेसुरे और बेताले संगीत में आता है।


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