अयोध्या

आयोध्या का वैदिक, पौराणिक साहित्य, रामायण एवं महाभारत में तो विपुल भाव से उल्लेख मिलता ही है, पुरातात्त्विक अवशेषों से भी इसके ऐतिहासिक अस्तित्व की पुष्टि होती है। अयोध्या का सर्वप्रथम उल्लेख अथर्ववेद (10.2.31) के एक मंत्र में आया है। इसमें आठ चक्रों एवं नौ इन्द्रियोंवाले इस शरीर की संज्ञा देवों की पुरी बताई गई है :



अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या


तस्यां हिरण्ययः कोशः स्वर्गो ज्योतिषावृतः॥'


अर्थात् देवपुरी अयोध्या सदृश इस पावन शरीर में एक हिरण्य का कोश है, जो ज्योति से ढका स्वर्ग है। यह मस्तिष्क ही स्वर्ग है, जो ज्योति का लोक है और देवों का स्थान है। हिरण्य का पर्याय प्राण, वीर्य या सोम है। इन सब तत्त्वों का वास्तविक कोश मस्तिष्क है। मस्तिष्क संकल्पों का स्थान है। संकल्प की सर्वप्रथम चेतना मन में ही स्फूर्त होती है। अतएव मन को निर्विकार रखना आवश्यक है। इसलिए मन को योग की विधि से वश में करना बताया गया है। मदन-दहन करनेवाले योगी की संज्ञा शिव है। आर्ष-परिभाषा में मस्तिष्क ज्योतिलोक या दिव्यलोक है। शेष शरीर को असुरलोक या तमोलोक कहा गया है। योगी अपने विवेक से ज्योति को तम से अलग पहचान लेते हैं। यही ज्योति या देवों की विजय है। अयोध्या में अन्ततः देवों की ही विजय होती है।


इतिहास के साक्ष्य से भौगोलिक अयोध्या का पारम्परिक इतिहास मनु से महाभारत-युद्ध तक प्राप्त होता है। राजनीतिक दृष्टि से अयोध्या को वेदकालीन महाकोशल जनपद की राजधनी का संसार का प्रथम राज्य केन्द्र होने का गौरव प्राप्त है। वाल्मीकीयरामायण (बालकाण्ड, 5.5-7) के साक्ष्य से इस महान् नगरी के संस्थापक स्वयं आदि पुरुष मनु थे :


'कोसलो नाम मुदितः स्फीतो जनपदो महान्।


निविष्टः सरयूतीरे प्रभूतधनधान्यवान् ॥5॥


अयोध्या नाम नगरी तत्रासील्लोकविश्रुता।


मनुना मानवेन्द्रेण या पुरी निर्मिता स्वयम् ॥6॥


आयता दश च द्वे च योजनानि महापुरी।


श्रीमती त्रीणि विस्तीर्णा सुविभक्तमहापथा ॥7॥


वस्तुतः मनुपुत्रों से ही प्राचीन भारत का इतिहास विस्तीर्ण माना गया है। एफ.ई. पार्जीटर (1852-1927) ने वैवस्वत मनु के नौ पुत्रों में इक्ष्वाकु को ज्येष्ठ माना है (एंशियंट इण्डियन हिस्टॉरिकल ट्रेडिशन)। डॉ. रमेशचन्द्र मजूमदार (1888-1980) के मत से इसी इक्ष्वाकु विकुक्षि ने इक्ष्वाकु-वंश (सूर्यवंश) की स्थापना की (दि वैदिक राज, पृ. 276)। मनु ने अपने साम्राज्य को दस भागों में विभक्त कर दिया और इस विभाजन में इक्ष्वाकु को मध्य देश मिला, जिसकी राजधानी अयोध्या थी और जो कालान्तर में कोसल के नाम से विख्यात हुआ। ऋग्वेद में इसके दो महान् विजयी राजाओं- इक्ष्वाकु और मान्धाता के नाम उल्लिखित हैं। शतपथब्राह्मण (1.4.1-1) सदानीरा नदी (बड़ी गण्डक) को कोसल और विदेह (मिथिला) की सीमारेखा बताता है।


सूर्यवंशी शासन-परम्परा का प्रवर्तन करनेवाले इक्ष्वाकुशासकों की वंशावली लगभग सभी पुराणों में कुछ नामान्तर के साथ मिलती है। तदनुसार इक्ष्वाकु की 143 पीढ़ियाँ 400 ई.पू. तक भारत के विस्तृत भू-भाग पर राज्य करती रहीं। इससे सिद्ध होता है कि हजारों वर्षों तक भारत की सांस्कृतिक एवं राजनीतिक चेतना का मुख्य केन्द्र अयोध्या रही। मानवाचार संहिता के प्रथम प्रणेता मनु भूमण्डल के एकच्छत्र सम्राट्, प्रजापालक एवं 'पृथिवी' संज्ञा के प्रेरक पृथु, विपुल तपस्या एवं अतुल्य श्रम से समुद्र का सागर' नाम सार्थक करनेवाले राजा सगर, परम सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र, महान् दानी एवं आदर्श राजा रघु एवं दधीचि, अपनी कठिन तपस्या से भूतल पर गंगा को लानेवाले राजा भगीरथ, गोपालन एवं गोरक्षण के लिए सर्वस्व समर्पण करनेवाले राजा दिलीप, अपने पराक्रम से देवताओं को भी प्रभावित करनेवाले राजा दशरथ और देवों को भी आतंकित करनेवाले लंकाधिपति रावण पर विजय प्राप्त करनेवाले मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम को जन्म देने का श्रेय इसी पावन भूमि को प्राप्त है। अयोध्या के राजवंश ने आसुरी शक्तियों के विनाश के लिए तथा मानव समाज की रक्षा के लिए वेदकाल से रामायण काल तक जो महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, उससे स्पष्टतः आज के साम्यवादी आलोचकों का कुप्रचार निरस्त हो जाता है कि ‘राम आदि पौराणिक एवं काल्पनिक पात्र थे।' 


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