ज्योतिष से जानें स्वास्थ्य का हाल

भारतीयों का विश्वास है कि जातक के ललाट पर विधाता जन्मदिन से छठी रात्रि में शनि-लाभ, जीवन-मरण, यश-अपयश, धन-सम्पत्ति आदि का लेखन कर देता है और इन्हीं के अनुसार जातक का जीवन संचालित होता रहता है। ज्यातिषशास्त्र जन्मकालिक ग्रहों की स्थिति के अनुसार जातक के ललाट पर लिखी इस लिखावट का प्रकटीकरण करता है।


मनुष्य कब-कब असावधानीजन्य रोगों से ग्रसित होगा, इसकी भविष्यवाणी तो ज्योतिषशास्त्र नहीं करता, किन्तु प्रारब्धजन्य किन-किन व्याधियों से जातक आक्रांत होगा और कौन-सी बीमारी जातक के लिए मारक सिद्ध होगी, इसका संकेत अवश्य करता है।



कब, किस ग्रह की महादशा, अन्तर्दशा, प्रत्यन्तर्दशा में किस ग्रह से दृष्ट होने पर, किस ग्रह की युति आने पर कौनसा ग्रह क्या फल देगा, का संकेत एक अच्छा फलितवेत्ता बता देता है। जैसे राशिफल बताते समय मानसागरीकार कहता है कि


। यदि कोई जातक कर्क राशि में जन्मा । है तो संभावना बनती है कि उसको शिरोरोग हो। (पृष्ठ 55)


जिसकी जन्मकुण्डली में गुरु की स्थिति 12वें व्यय भाव में हो तो हृदयशूल होने की संभावना बनती है। (पृष्ठ 114) वैसे हृदय का स्थान चतुर्थ माना जाता है और इसके आधार पर ही हृदयाघात आदि का अनुमान लगाया जाता है।


जिस जातक की जन्मकालीन कुंडली में शुक्र तीसरे भाव में हो तो आँखों में रोग होने की संभावना बनती है। (पृष्ठ 115) यदि यही शुक्र दसवें भाव में बैठा हो तो जातक के भाई का बधिर होना संसूचित होता है। (पृष्ठ 117) यदि किसी जातक की कुंडली में चन्द्रमा और मंगल एक ही भाव में विद्यमान हो तो रक्तविकार होने की संभावना रहती है। (पृष्ठ 125)


संभावना रहती है। (पृष्ठ 125) जिस जातक के जन्मकालिक बुध, गुरु और सूर्य एकराशि गत हों तो ऐसा जातक नेत्र रोग से पीड़ित होता है। (पृष्ठ 131)


गुरु, शनि व मंगल के एक राशिगत होने पर कुष्ठरोग होने की संभावना बनती है। (पृष्ठ 134) ।


रवि, शनि, मंगल व गुरु- इन चार ग्रहों के एक राशिगत होने से उन्माद रोग होने का डर रहता है। (पृष्ठ 138)


यदि किसी जातक के लग्न में गुरु व सप्तम में मंगल की स्थिति होती है तो उसको उन्माद हो जाता है, ऐसा पाराशर का कथन है।


इसी प्रकार मंगल, शनि, चन्द्रमा और गुरु की स्थिति एक ही भाव में होने पर बधिरपन व पागलपन की स्थिति बन सकती है। (पृष्ठ 141)


मंगल, बुध, गुरु, शनि व शुक्र के एक भाव में स्थिति उन्माद रोगकारक मानी जाती है। (पृष्ठ 147)


ये कुछ निदर्शन है, ज्योतिष के ग्रंथ मानसागरी व बृहत्पाराशरी के अनुसार जो बताते हैं कि कब-कब कौन-कौन सा रोग हो सकता है।


वैसे उक्त बातें स्थूल और संकेतमात्र हैं। फलादेश करते समय ग्रह की प्रकृति, किस राशि में बैठा है, उससे उसके शत्रु, मित्र व तटस्थ से कैसे सम्बन्ध हैं, साथ की वह किस-किस गृह से दृष्ट है; उसका भावविशेष में कितने अंशों से स्थिति है। आदि गोचर में विद्यमान ग्रहों से जन्म के समय के ग्रहों से सामञ्जस्य आदि आदि अनेक घटक व मानदण्ड हैं जिनके आधार पर रोग की स्थिति, होने का समय, साध्यता अथवा असाध्यता आदि अनेक बातों का निर्धारण होता है।


वर्तमान काल में रोगों का निर्धारण जाँचों पर निर्भर करता है जिनमें प्रभूत धन व्यय होता है जबकि प्राचीन भारत में ज्योतिष एक ऐसा साधन था जिसमें रोग होने की संभावना, समय तथा समाधान मालूम होते थे।


आयुर्वेद, मंत्र, यंत्रों से चिकित्सा प्राचीन काल में होती थी और काफ़ी हद तक इस प्रकार की चिकित्सा लाभ भी प्रदान करती थी। हाँ, फलितज्योतिष का हृदयस्पर्शी ज्ञान होना जरूरी है।