प्लास्टिक सर्जरी भारतीय आयुर्विज्ञान की विश्व को अमूल्य देन

आज से सवा दो सौ वर्ष पूर्व सन् 1792 में टीपू सुल्तान तथा मराठों के बीच हुए युद्ध में चार मराठा सैनिकों तथा एक गाड़ीवान कवासजी के हाथ और नाक कट गए। साल भर बाद कवासजी और सैनिकों को पूना के एक कुम्हार ने शल्य-चिकित्सा के द्वारा नयी नाक लगा दी। वह कुम्हार मिट्टी के बर्तन बनाने के साथ-साथ कटे मानव अंगों को जोड़ने में भी कुशल था और रोगी के शरीर से चमड़ी निकालकर उससे कटे- फटे अंगों की मरम्मत करने में उसे महारत हासिल थी। मानव शरीर की इस प्रकार मरम्मत कर देने को आधुनिकओषधिविज्ञान में प्लास्टिक सर्जरी' कहा जाता है। सन् 1793 में कवासजी की नयी नाक बना देने की शल्य-क्रिया को दो अंग्रेजु चिकित्सकों- डॉ. थॉमस क्रसो तथा डॉ. जेम्स फिण्डले ने भी देखा। दोनों अंग्रेजु चिकित्सकों ने पूरी प्रक्रिया के चित्र भी लिए तथा इसकी रपट मद्रास गुट (1793) में प्रकाशित की। इसी रपट को अक्तूबर, 1794 में लंदन (इंग्लैण्ड) से प्रकाशित होनेवाली ‘जेण्टलमैन' पत्रिका ने भी प्रकाशित किया। रपट इस प्रकार है-



‘महीन मोम की एक कृत्रिम नाक बनाकर कटी नाक के स्थान पर लगाई जाती है। मोम की इस परत को फैलाकर व्यक्ति (जिसकी शल्य क्रिया होनी है) के माथे पर लगा दिया जाता है। मोम की परत के चारों ओर निशान बनाकर परत हटा ली जाती है। चिकित्सक फिर उस आकृति के अनुसार माथे से चमड़ी निकालता है। नीचे आँखों के मध्य छोटे-से स्थान से चमड़ी जुड़ी रह जाती है। इस जोड़ के कारण पुरानी नाक के बचे हिस्से के दो भाग कर उनके पीछे की ओर चीरा लगाया जाता है। अब माथे की चमड़ी को नीचे लाकर इन चीरों में फंसा दिया जाता है।


एक कपड़े के टुकड़े पर टेरोजपोनिका' (पीला कत्था) पानी से लुगदी-जैसा बनाकर फैला लिया जाता है। ऐसे पाँच-छह टुकड़ों को एक के ऊपर एक शल्य-क्रियावाले स्थान पर रख दिया जाता है। चार दिनों तक इस प्रकार की पट्टी के बाद घी में डूबा हुआ कपड़ा रखा जाता है। बीस दिनों के बाद चमड़ी के जोड़ (आँखों के मध्य) हटाकर नयी बनी नाक को ठीक स्वरूप दे दिया जाता है। शल्यक्रिया के पहले पाँच दिन रोगी को बिस्तर पर लेटे रहना पड़ता है तथा दसवें दिन नयी नाक के नासापुटों को पर्याप्त खुला रखने के लिए नरम कपड़े या रूई के (बेलनाकार) टुकड़े उनमें रखे जाते हैं।'