प्राचीन भारतीय शल्यप्रक्रिया में आचार्य सुश्रुत का स्थान

शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम् के अनुसार शरीर किसी भी जीवधारी के लिये अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। भौतिक दृष्टि से अथवा आध्यात्मिक दृष्टि से सभी भोग और योग का गृह शरीर ही है। इसी से हम सम्पूर्ण विषयों का उपभोग भी करते हैं और इसी के माध्यम से मोक्ष तक की प्राप्त होती है। यह एक ऐसा साधन है जो किसी भी साध्य को प्राप्त करने में सर्वाधिक सहायक है। हमारी आत्मा के निवासस्थान से लेकर हमारी मानसिक परिकल्पना तक सबकुछ इस शरीर के द्वारा ही सम्पादित होता है। इसके अङ्गों, उपाङ्गों या प्रत्यङ्गों में बाह्य या आन्तरिक- किसी भी प्रेकर की विकृति हमारी विकलता बढ़ा देती है।इन्हीं शारीरिक और मानसिक विकृतियों से हमारी रक्षा करनेवाला भारतीय शास्त्र आयुर्वेद है । आयुर्वेद ऋग्वेद का उपवेद • है। आयु-सम्बन्धी विज्ञान, शारीरिक संरक्षण और रोगमुक्ति का शास्त्र आयुर्वेद भौतिक दृष्टि से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विद्या है और आयुर्वेद के अष्टांगों (कायचिकित्सा, कौमारभृत्य, भूतविद्या, शालाक्यतंत्र, शल्यतंत्र, अगदतंत्र, रसायनतंत्र एवं वाजीकरण) में शल्यक्रिया का विशेष स्थान रहा है।



भारतवर्ष में शल्यचिकित्सा वेदकाल से ही प्रचलन में थी। ऋग्वेद में इन्द्र, अग्नि, सोम तथा युगलदेवता अश्विनीकुमार वैद्यरूप में परिगणित हैं। ऋग्वेद (8.86.2) के अनुसार जब विमना और विश्वक ऋषि उद्भ्रान्त हुए थे, तब शल्यक्रिया द्वारा उनके रोग का निवारण किया गया था। ऋग्वेद में ही नार्षद ऋषि के पूर्णबधिरत्व को अश्विनीकुमारों ने ठीक करके उनकी श्रवणशक्ति लौटाई थी। ऋग्वेद (1.116.11) में ही वन्दन ऋषि की ज्योति शल्यक्रिया द्वारा वापस लाने का उल्लेख प्राप्त होता है। इसी प्रकार दधीचि के सिर को हटाकर घोड़े के सिर का प्रत्यारोपण, पुनः उसे हटाकर वास्तविक दधीचि के सिर को लगा देना, ऋजाष्व की अंधी आँखों में रोशनी प्रदान करना, यज्ञ के कटे सिर को पुनः सन्धान करना, श्राव का कुष्ठरोग दूर करके उन्हें दीर्घायु प्रदान करना, कक्षीवान् को पुनः युवक बनाना, वृद्ध च्यवन को पुनः यौवन प्रदान करना और वामदेव को माता के गर्भ से निकालना आदि प्रसंग भी शल्यक्रिया से संबंधित हैं। ऋग्वेद में हृदय, उदर तथा वृक्कों के विकारों के वर्णन के साथ ही शरीर के नवद्वार तथा दस छिद्रों का वर्णन प्राप्त होता है। अथर्ववेद में क्षत, व्रण, भग्न अस्थियों को जोड़ने, कटे हुए अंग को ठीक करने के लिये ओषधियों से प्रार्थना की गई है।


शास्त्रीय रूप से आयुर्वेदीय. शल्यक्रिया का प्रारम्भ इन्द्र के शिष्य धन्वन्तरि और उनके शिष्य सुश्रुत ने किया। सुश्रुत ने इस शास्त्र को सम्पूर्ण विकसित करके व्यवहारोपयोगी स्वरूप प्रदान किया। तदनुसार शल्य का क्षेत्र सामान्य कायिक शल्यचिकित्सा था। नेत्र, नासिका, कण्ठ तथा कर्ण आदि के रोगों तथा उससे सम्बन्धित शल्यक्रिया का विचार आयुर्वेद के शालाक्य नामक शाखा में पृथक् रूप से किया जाता था। सुश्रुत प्राचीन भारत के महान् चिकित्साशास्त्री एवं शल्यचिकित्सक थे। फलतः उन्हें शल्यचिकित्सा का जनक कहा जाता है। शल्यचिकित्सा (सर्जरी) और सुश्रुतसंहिता के प्रणेता आचार्य सुश्रुत का जन्म पंद्रहवी शताब्दी ईसा पूर्व में काशी में हुआ था। ये धन्वन्तरि के शिष्य थे। सुश्रुतसंहिता को भारतीय चिकित्साविज्ञान में विशेष स्थान प्राप्त है। इस संहिता के अन्तर्गत सुश्रुत को विश्वामित्र का पुत्र कहा गया है। तदनुसार सुश्रुत ने काशीपति दिवोदास से शल्यतंत्र का उपदेश प्राप्त किया था। सुश्रुत के सहपाठी के रूप में औपधेनव, वैतरणी आदि छात्रों का नाम आता है। आचार्य सुश्रुत राजर्षि शालिहोत्र के पुत्र भी कहे जाते हैं (शालिहोत्रेण गर्गेण सुश्रुतेन च भाषितम् - सिद्धोपदेशसंग्रह)। इनके द्वारा प्रणीत सुश्रुतसंहिता पूर्वतंत्र तथा उत्तरतंत्र नामक दो भागों में विभाजित है तथा इसके अन्तर्गत 184 अध्याय हैं, इनमें 1120 रोगों, 700 औषधीय पौधों, 64 उत्खननस्रोत पर आधारित प्रक्रियाओं, प्राणी-स्रोतों पर आधारित 57 प्रक्रियाओं एवं 8 प्रकार की शल्यक्रियाओं का उल्लेख है। पूर्वतंत्र के 120 अध्यायों में पाँच भाग सूत्रस्थान, निदानस्थान, शरीरस्थान, कल्पस्थान तथा चिकित्सास्थान हैं, इनमें आयुर्वेद के प्राथमिक चार अंगों (शल्यतंत्र, अगदतंत्र, रसायनतंत्र एवं वाजीकरण) का विस्तारपूर्वक वर्णन है। उत्तरतंत्र में 64 अध्याय हैं, जिनमें शेष चार अंग शालाक्य, कौमार्यभृत्य, कायचिकित्सा और भूतविद्या का विस्तृत वर्णन है। इस ग्रन्थ में 24 प्रकार के स्वस्तिकों, 2 प्रकार के संदंसों, 28 प्रकार की शालाकाओं तथा 20 प्रकार की नाड़ियों का उल्लेख हुआ है। इस ग्रन्थ का अरबी भाषा में किताब-ए-सुख़ुद (8वीं शताब्दी) नाम से अनुवाद हुआ है। इस ग्रन्थ में प्राप्त श्लोकों के अनुसार आचार्य सुश्रुत शल्यक्रिया के लिए 125 प्रकार के उपकरणों का प्रयोग करते थे। इन्होंने शल्यक्रिया की जटिलता को देखते हुए इनका विकास किया था। इनके अन्तर्गत विशेष प्रकार के चाकू, सूइयाँ, चिमटियाँ आदि का प्रयोग किया जाता था। सुश्रुत ने 300 प्रकार की शल्य (ऑपरेशन) प्रक्रियाओं का अन्वेषण किया था। सुश्रुत ने त्वम्-शल्यक्रिया, नेत्र शल्यक्रया, प्रसवजन्य शल्यक्रिया, भग्नास्थि शल्यप्रक्रिया आदि में विशेष निपुणता प्राप्त की थी। शल्यप्रक्रिया के समय होनेवाली पीड़ा को कम करने के लिये वे विशेष प्रकार का मद्यपान और विशेष ओषधियाँ भी प्रदान करते थे। मद्यपान में संज्ञाहरण होने के कारण सुश्रुत को संज्ञाहरण का पितामह भी कहा जाता था। उन्होंने अपने शिष्यों को भी शल्यचिकित्सा के सिद्धान्त बताये और साथ ही शल्यक्रिया का अभ्यास भी कराया था। एतदर्थ प्रारम्भिक अवस्था में शल्यक्रिया के अभ्यास के लिए फलों, सब्जियों और मोम के पुतलों का उपयोग किया जाता था। शव के ऊपर भी शल्यक्रिया करके शारीरिक विषमताओं को समझने का प्रयत्न किया जाता था। सुश्रुत ने शल्यक्रिया के साथ शरीर-संरचना, कायचिकित्सा, बालरोग, स्त्रीरोग, मनोरोग आदि में भी विशेषज्ञता प्राप्त की थी। आचार्य सुश्रुत द्वारा वर्णित अष्टप्रकारक शल्यक्रियाओं के नाम इस प्रकार हैं- (1) छेद्य (छेदन हेतु) (2) भेद्य (भेदन हेतु) (3) लेख्य (पृथक् करने हेतु) (4) वेध्य (शरीरान्तर्गत हानिकारक द्रव्य निकालने के लिये) (5) ऐष्य (नाड़ी में घाव हूँढ़ने के लिये) (6) अहार्य (हानिकारक विकृतियों के निष्कासन के लिये), (7) विश्रव्य (द्रव निकालने के लिये) और (8) सीव्य (घाव को सीलने के लिये)। सुश्रुतसंहिता में शरीर के प्रत्येक अंग की शल्यक्रिया के लिए 20 प्रकार के उपकरणों का भी वर्णन किया गया है।


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