रुद्राक्ष : दिव्यबीज

रतीय प्राचीनतम संस्कृति पाश्चात्य संस्कृति के सदृश आविष्कारों एवं जीवन की कपोल-कल्पित परिकल्पनाओं पर आधारित न होकर सर्वविध सम्पन्न वैदिक दैविक ऋषि-परम्पराओं द्वारा संस्थापित प्रज्ञान पर आधारित है। विशाल वैदिक साहित्य, तन्त्रशास्त्र, भाषाविज्ञान, रसायनविज्ञान, भौतिकविज्ञान, आयुर्विज्ञान, शिल्पविज्ञान, वैमानिकशास्त्र, ज्योतिष, संगीत आदि अनेकानेक प्रकरण हमारी संस्कृति के समृद्धतम ज्ञान के उदाहरण हैं। ब्रह्माण्ड और ऊर्जा को जैसा हमारे ऋषिओं ने समझा और गुरु परम्परानुगत इस विशद ज्ञान को जैसे प्रसारित किया, वैसा अन्य सभ्यताओं में दृष्टिगोचर नहीं होता। उन्हीं ऋषिगणों की उत्कृष्टतम शिक्षाओं में अनेक दिव्य ऊर्जावान् पदार्थों का रहस्यमय ज्ञान भी हमें प्राप्त होता है जिनका उपयोग आदि काल से ही जीवन को अधिक-से-अधिक सुखमय बनाने हेतु किया जा रहा है। हमारी संस्कृति में अनेकानेक रहस्यमय वस्तुओं का उल्लेख है। जिनकी ऊर्जा एवं प्रभावों पर अभी तक समस्त विश्व के वैज्ञानिक सतत अनुसन्धान करके भी थोड़ा ही जान पाए हैं।



पारद, रुद्राक्ष, नवपाषाण, शालिग्राम, नर्मदेश्वर शिवलिङ्ग, दक्षिणावर्ती शङ्ख, गजमुक्ता, स्फटिक, नवरत्न, उपरत्न, तुलसी, चन्दन, श्वेतार्क, दिव्य ओषधियाँ, त्रिधातु, पंचधातु, अष्टधातु आदि प्राकृतिक रूप से प्राप्त एवं वैदिक और तंत्रोक्त विधियों से निर्मित पदार्थों की सूची बहुत विशाल है जिसमें से आज हम रुद्राक्ष पर अर्जित अल्पमात्र जानकारी प्रस्तुत कर रहे हैं।


रुद्राक्ष मूलतः ‘रुद्राक्ष वृक्ष' के फलों की गुठली है। पुराणों के अनुसार रुद्राक्ष की उत्पत्ति भगवान् शिव के नेत्रों से गिरे अश्रुओं से हुई है। पुराणों में रुद्राक्षों का वर्णन उनके वर्ण, आकृति एवं मुखों के आधार पर किया गया है। वर्षों के आधार पर रुद्राक्ष को शुक्ल, रक्त एवं कृष्ण वर्ण का बताया गया है। आकार के आधार पर आँवले जितने बड़े रुद्राक्ष सर्वश्रेष्ठ, बेर जितने आकार के रुद्राक्ष मध्यम तथा चने जितने छोटे रुद्राक्ष निम्न श्रेणी के कहे गए हैं। मुखों के आधार पर रुद्राक्ष पर उपस्थित प्राकृतिक रेखाओं की संख्या के आधार पर उन्हें वर्गीकृत किया गया है। पुराणों में एक से लेकर चौदहमुखी तक के रुद्राक्षों का ही वर्णन किया गया है। यद्यपि बिना मुखवाले से बत्तीस मुखी तक के रुद्राक्ष अभी तक प्राप्त हो गए हैं। पुराणों के अतिरिक्त उपनिषदों एवं कुछ तन्त्रशास्त्रों में भी रुद्राक्षों का वर्णन प्राप्त होता है जिनमें चौदह से अधिक मुखवाले तथा गणेश, गौरीशङ्कर, गर्भगौरी, त्रियुती, निराकार आदि रुद्राक्षों का भी वर्णन है।


शिवपुराण, श्रीमद्देवीभागवतपुराण, स्कन्दपुराण, लिङ्गपुराण, पद्मपुराण, रुद्राक्षजाबालोपनिषद्, मन्त्रमहार्णव, महाकालसंहिता, निर्णयसिंधु, बृहज्जाबालोपनिषद्, कात्यायनीतन्त्र आदि में रुद्राक्ष की असीम महिमा, दिव्य प्रभावों, भेदों तथा धारण-विधिओं का सुरम्य वर्णन प्राप्त है।


रुद्राक्षों के मुखानुसार वर्गीकरण में अङ्कविद्या का सुन्दर समायोजन दृष्टिगोचर होता है। निराकार रुद्राक्ष को परमात्मतत्त्व का प्रतिपादक कहा गया है जिसे अद्वैत साधकों एवं संन्यासियों को धारण करना चाहिए और सभी पुरुषार्थों का प्रदाता एकमुखी रुद्राक्ष स्वयं भगवान् सदाशिव का स्वरूप माना गया है जिसे प्राप्त करना ही अपने आपमें बहुत बड़ी उपलब्धि है। सुख-समृद्धि एवं मोक्षप्रदायक दोमुखी रुद्राक्ष को अर्धनारीश्वर का स्वरूप माना गया है तथा रोगनाशक, अभय देनेवाले तीनमुखी को अग्निस्वरूप कहा गया है। सभी विद्याओं में दक्षता प्रदान करनेवाले चारमुखी रुद्राक्ष को स्वयं चतुर्मुख ब्रह्मा का स्वरूप कहा गया है एवं सर्वविध सिद्धियों के प्रदाता पंचमुखी रुद्राक्ष को भगवान् शिव के पंचाम्नाय का स्वरूप कहा गया है। तेजस्विता एवं ओज में वृद्धि करनेवाले षण्मुखी रुद्राक्ष षण्मुख भगवान् कार्तिकेय का स्वरूप बताया गया है और विद्या एवं कला में पारङ्गत करनेवाले सातमुखी रुद्राक्ष को भगवती सरस्वती, सप्तनाग देवताओं तथा सप्तमातृकाओं का स्वरूप भी माना गया है। सभी विघ्नों का नाश कर शुभ, लाभप्रदायक आठमुखी रुद्राक्ष अष्टविनायक का स्वरूप माना गया है और चिन्तामुक्त करनेवाले नवमुखी रुद्राक्ष को नवदुर्गा का स्वरूप कहा गया है। सर्वसुखप्रदाता एवं सभी प्रकार से रक्षा करनेवाले दसमुखी रुद्राक्ष को भगवान् विष्णु तथा यमाचार्य का स्वरूप कहा गया है। अकाल मृत्यु से रक्षा करनेवाले तथा देहस्थ एकादश रुद्रों को समशान्त रखनेवाले एकादशमुखी रुद्राक्ष को मृत्युंजय एकादश रुद्रों का स्वरूप बताया गया है। सभी नेत्ररोगों के नाशक तथा यशप्रदायक द्वादशमुखी रुद्राक्ष को द्वादशादित्यों का स्वरूप कहा गया है। सर्वकाम सिद्धि एवं सौन्दर्यप्रदायक त्रयोदशमुखी रुद्राक्ष को कामदेव और देवेन्द्र का स्वरूप माना गया है और सर्वसिद्धिप्रदायक चौदहमुखी रुद्राक्ष को भगवान् शिव एवं हनुमान जी का स्वरूप बताया गया है। गजशुण्ड के समान शुण्डवाले रुद्राक्ष को गणपति, जुड़े हुए दो रुद्राक्षों को गौरीशङ्कर, एक छोटे व एक बड़े जुड़े हुए रुद्राक्षों को गर्भगौरी, तीन जुड़े हुए रुद्राक्षों को त्रियुती दत्तात्रेय एवं त्रिमूर्ति ब्रह्मा विष्णु शिव का स्वरूप माना गया है। पंद्रहमुखी रुद्राक्ष तिथि-नित्यताओं का स्वरूप माना गया है और सोलहमुखी षोडशमूर्ति शिवस्वरूप कहा गया है। सत्रहमुखी रुद्राक्ष विश्वकर्मास्वरूप एवं अष्टादशमुखी सर्वोषधीय वनस्पतिस्वरूप कहा गया है। उन्नीसमुखी रुद्राक्ष शिवशक्ति गणपतिस्वरूप एवं बीसमुखी त्रिदेवों, दशदिशाओं का स्वरूप कहा गया है। इक्कीसमुखी रुद्राक्ष धनाधिपति कुबेर का स्वरूप माना गया है।


श्रीविद्या की गुरु-परम्पराओं में तीनमुखी रुद्राक्ष को बाला, पंद्रह मुखी रुद्राक्ष को पंचदशी एवं सोलहमुखी रुद्राक्ष को षोडशीस्वरूप मानकर धारण करने का विधान है। रुद्राक्ष माला से किया जप अनन्त गुणा फलदायक कहा गया है।


अलग अलग शास्त्र-सन्दर्भो में रुद्राक्ष के अलग-अलग स्वरूपों का वर्णन किया गया है। यद्यपि किसी भी रुद्राक्ष को धारण करने से कोई हानि नहीं है, तथापि हमें करने से केवल गुरु-परम्परा द्वारा निर्दिष्ट कुलदेवता, इष्टदेवता, राशि, गृह, नक्षत्रादि से का सम्बन्धित रुद्राक्ष अवश्य ही पहनने चाहिए।


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