विहंगम योग : एक चेतन साधन

विहंगम योग एक सनातन वैदिक योग है। जिसे ब्रह्मविद्या, पराविद्या, अध्यात्मविद्या, मीनमार्ग तथा विहंगम-मार्ग से जगह- जगह पर सम्बोधित किया गया है। फिर भी आज का जनमानस सामान्य रू प से विहंगम योग की प्राचीनता से परिचित नहीं होने के कारण इसे नये योग के रूप में ही जानने-पहचानने की कोशिश करता है। ब्रह्मविद्या वह विद्या है जिसके द्वारा ब्रह्म का यथार्थ ज्ञान प्राप्त होता है। इसे ही उपनिषदों में पराविद्या के नाम से अभिहित किया गया है। इसे ही मुण्डकोपनिषद् (1.1.4) में शौनक ऋषि के प्रश्न के उत्तर में महर्षि अंगिरा के द्वारा बतलाया गया है-


तस्मै स होवाच। द्वे विद्ये वेदितव्ये इति -


ह स्म यद्बह्मविदो वदन्ति परा चैवापरा च॥


यानी ब्रह्मवेत्ताओं ने ऐसा कहा है कि दो विद्याएँ जानने योग्य हैं- एक परा और दूसरी अपरा। अपराविद्या वह है जिसके द्वारा सांसारिक वस्तुओं का ज्ञान होता है। मगर पराविद्या वह है जिसके द्वारा अक्षर-ब्रह्म का ज्ञान और उसकी उपलब्धि होती है-


‘अथ परा यया तदक्षरमधिगम्यते।।



यानी वह पराविद्या और ब्रह्मविद्या- दोनों एक ही अर्थ के वाचक हैं। इसी ब्रह्मविद्या को सन्तों ने विहंगम-मार्ग कहा है-


‘चाल विहंगम योग हमारी। कहे मुनीन्द्र सद्गुरु दे तारी॥'


वेदों में इसे 'सुपर्णोऽसि' से इंगित किया गया है। इस ‘विहंगम' शब्द की भी अपनी अर्थवत्ता है। शास्त्रों में 'योग' से अर्थ उस आन्तरिक साधना से है जिससे आत्मा का जोड़ परमात्मा से होता है। इस ‘योग’ शब्द के साथ पात्राता के अनुसार साधना के संयोग को ध्यान में रखते हुए इसकी उत्तरोतर गति की । स्थिति को देखते हुए शास्त्रों में मुख्यतः तीन । प्रकार के योगों की चर्चा आई है जिन्हें पिपिल योग, कपिल योग और विहंगम योग कहते हैं।


इसमें पिपिलिका की गति से आध्यात्मिक प्रगति को ‘पिपिल योग के नाम से जाना गया है, जिसमें साधन का आधार मुख्य रूप से यह शरीर ही रहता है। इससे शारीरिक स्वस्थता के साथ शरीर में आगे के साधन के लिए अनुकूलता भी मिलती है। शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्' यानी यह शरीर ही धर्म का साधन है, इसलिए प्रारम्भ में शरीर को स्वस्थ रखना तथा उसके आधार से आसन-प्राणायाम करना, मंत्रजाप करना आदि शरीर के आधार पर चलनेवाले ये साधन पिपिल योग के अन्तर्गत आते हैं। इसमें आध्यात्मिक प्रगति धीमी होती है, मगर आगे बढ़ने का आधार बनता है। इसके बाद कपिलयोग की चर्चा आती है। हमारे शरीर के अन्दर भी बन्दर की तरह चंचल हमारा मन है। ‘कपिल' शब्द का अर्थ बन्दर होता है। इस प्रकार इस मनरूपी बन्दर को स्थिर करने के जितने भी साधन होते हैं, उन्हें 'कपिलमार्ग' कहते हैं। यानी कपिलयोग उस साधन की ओर इंगित करता है, जिसमें अब मन को विभिन्न केन्द्रों पर रोकने का अभ्यास किया जाता है। इसमें मन को किसी बाहरी बिन्दु पर, फिर आन्तरिक भूमि पर या शरीरस्थ किसी केन्द्र विशेष पर रोकने के जितने भी अभ्यास हम करते हैं, वे सभी कपिल योग के अन्तर्गत ही मगर इसके भी आगे की आध्यात्मिक यात्रा में ‘विहंगम योग' आता है। यहाँ ‘विहंग' से अर्थ पक्षी है, जैसे पेड़ पर बैठा हुआ पक्षी उस पेड़ के आधार को छोड़कार निराधार में गमन करता है और पुनः पेड़ पर वापस आता है, उसी तरह इस शरीररूपी पेड़ पर स्थित आत्मारूपी पक्षी अपने ज्ञान से शरीर से ऊपर होकर भी चेतन-मण्डल में गमन करता है और पुनः इस शरीररूपी पेड़ से भी अपने को जोड़ लेता है। इस तरह विहंगम योग उस आत्मा के आधार पर चलनेवाले योगसाधन का पर्याय है, जिसमें शरीर और मन से ऊपर उठकर आत्मिक भूमि से साधन आगे बढ़ता है।


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