योगगुरु जिन्होंने दिलाई योग को वैश्विक पहचान

भारत में योग की परम्परा सनातन काल से चली आ रही है। सनातन धर्म में भगवान शिव को प्रथम योगी माना गया है। ब्रह्मा के मानसपुत्रों ने इसे भारतवर्ष में प्रचारित-प्रसारित किया। सनातन धर्म में इसे केवल शारीरिक व्यायाम नहीं, अपितु परमात्मा से साक्षात्कार की प्रक्रिया माना गया ।इसे षड्दर्शनों में एक माना गया है। भगवद्गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा है कि मैंने इस अविनाशी योग को सूर्य से कहा था, सूर्य ने अपने पुत्र वैवस्वत मनु से कहा और मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु से कहा। इस प्रकार परम्परा से प्राप्त इस योग को राजर्षियों ने जाना; किन्तु उसके बाद वह योग बहुत काल से इसपृथिवीलोक से लुप्तप्राय हो गया। आज से लगभग 3300 वर्ष पूर्व महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र ग्रंथ लिखकर योगविद्या को सुव्यवस्थित रूप दिया। गुरु-शिष्य परम्परा से यह ज्ञान एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तांतरित होता गया। बौद्ध गुरुओं के द्वारा यह भारत से बाहर प्रचारित हुआ। योग पर हजारों ग्रंथ लिखे गए हैं। महर्षि पतंजलि के बाद बहुत-से ऋषियों और योगगुरुओं ने अच्छी तरह से किए गए अभ्यासों और साहित्य के माध्यम से इस विषय को संरक्षित करने और इसका विकास करने में महान् योगदान दिया। महर्षि पतंजलि से लेकर आज तक प्रमुख योगगुरुओं की शिक्षाओं के माध्यम से योग संसारभर में फैला है। यहाँ हम विगत चार शताब्दियों में हुए प्रमुख योगगुरुओं की संक्षिप्त जानकारी दे रहे हैं। 



त्रैलंग स्वामी (1607-1887)



महान् हठयोगी तैलंग स्वामी का जन्म विशाखापट्टनम् के खोलिया नामक गाँव में हुआ था। बचपन से ही इनका झुकाव वैराग्य की ओर था, लेकिन माता के आग्रह पर उन्होंने विवाह कर लिया। 48 वर्ष की अवस्था में माँ के निधन के पश्चात् पुनः इनका झुकाव वैराग्य की ओर हुआ। श्मशान के जिस स्थान पर माँ की क्रिया हुई थी, वहीं ये रहने लगे। परिवारवालों ने इनके लिए वहीं एक कुटिया बनवा दी एवं ये वहीं साधना करने लगे। लगभग 70 वर्ष की उम्र में भागीरथ नाम एक योगीराज इनके पास आए एवं इनको अपने साथ भ्रमण के लिए ले गए। अब इनका नाम दीक्षा के पश्चात् त्रैलंग स्वामी हुआ। साधना के द्वारा इनको ऋद्धियाँ-सिद्धियाँ प्राप्त हुईं। विभिन्न स्थानों का भ्रमण करते हुए स्वामी जी नेपाल चले आए और शताधिक वर्षों तक कठोर साधना की। तत्पश्चात् वह तिब्बत गए और बहुत वर्षों तक मानसरोवर में योगाभ्यास किया। साधना पूर्ण करने के उपरान्त 1737 में ये काशी आये और दशाश्वमेध घाट पर योगाश्रम बनवाकर 1887 ई. तक रहे। काशी में ये घोर जाड़े की ऋतु में भोजन और निद्रा का त्याग करके दोदो, तीन-तीन दिन तक गंगाजी के जल पर पड़े रहते और कठिनसे-कठिन गर्मी में तपे हुए पत्थरों पर बैठे रहते। स्वामी योगानन्द ने अपनी विख्यात पुस्तक 'द ऑटोबायोग्रॉफी ऑफ़ योगी के 31वें परिच्छेद में त्रैलंग स्वामी के चमत्कारों का विस्तार से वर्णन किया है। स्वामी रामकृष्ण परमहंस भी काशी में त्रैलंग स्वामी से मिले थे और उनको ‘काशी के चलते-फिरते शिव' की संज्ञा दी थी।


 देवरहा बाबा (?-1990)



आधुनिक भारत के महान् योगी, सिद्ध महापुरुष देवरहा बाबा पूज्य महर्षि पतंजलि द्वारा प्रतिपादित अष्टांगयोग में पारंगत थे। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, महामना मदनमोहन मालवीय, जवाहरलाल नेहरू, लालबहादुर शास्त्री, राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन, इन्दिरा गाँधी, राजीव गाँधी, अटल विहारी वाजपेयी, अशोक KE सिंहल-जैसी विभूतियों ने पूज्य देवरहा बाबा के समय-समय पर दर्शन कर अपने को कृतार्थ अनुभव किया था। देवरहा बाबा की वास्तविक आयु ज्ञात नहीं है, लेकिन इतिहास की टूी कड़ियों को जोड़ने से उनकी आयु लगभग ढाई सौ वर्ष ज्ञात होती है। बाबा ने हिमालय में अनेक वर्षों तक अज्ञात रूप में रहकर साधना की। वहाँ से वह पूर्वी उत्तरप्रदेश के देवरिया नामक स्थान पर पहुँचे। वहाँ वर्षों निवास करने के कारण उनका नाम 'देवरहा बाबा' पड़ा। देवरिया जनपद के सलेमपुर तहसील में मइल (एक छोटा शहर) से लगभग एक कोस की दूरी पर सरयू नदी के किनारे एक मचान पर रहकर वह भक्तों को राममंत्र की दीक्षा के साथ गोसेवा और भगवद्भक्ति में रत रहने की प्रेरणा देते थे।


देवरहा बाबा ने योगविद्या के जिज्ञासुओं को हठयोग की दसों मुद्राओं का प्रशिक्षण दिया। वह ध्यानयोग, नादयोग, लययोग, प्राणायाम, त्राटक, ध्यान, धारणा, समाधि आदि की साधन- पद्धतियों का गूढ़ विवेचन किया करते थे।


देवराहा बाबा ने जीवनभर अन्न का सेवन नहीं किया। वह सिर्फ दूध, शहद और नारियल का पानी पीकर रहते थे। बाबा अपने पास आनेवाले प्रत्येक व्यक्ति से बड़े प्रेम से मिलते थे और सबको कुछ-न-कुछ प्रसाद अवश्य देते थे। प्रसाद देने के लिए बाबा अपना हाथ ऐसे ही मचान के खाली भाग में रखते थे और उनके हाथ में फल, मेवे या कुछ अन्य खाद्य पदार्थ आ जाते थे जबकि मचान पर ऐसी कोई भी वस्तु नहीं रहती थी। उनके आस- पास उगनेवाले बबूल के पेड़ों में काँटे नहीं होते थे। चारों तरफ सुगंध-ही-सुगंध होती थी। देवराहा बाबा जल पर चल लेते थे और इन्होंने किसी भी गंतव्य स्थान पर जाने के लिए कभी भी सवारी नहीं की और न ही उन्हें कभी किसी सवारी से कहीं जाते हुए देखा गया। यमुना में वह 30 मिनट तक बिना सांस लिए रह सकते थे। उनको जानवरों की भाषा समझ में आती थी। खतरनाक जंगली जानवरों को वह पलभर में काबू कर लेते थे। वह नहीं चाहते तो रिवॉल्वर से गोली नहीं चलती थी। उनका निर्जीव वस्तुओं पर नियंत्रण था।


बाबा ने वृन्दावन में यमुना तट पर स्थित मचान पर चार वर्ष तक साधना की। सन् 1990 की योगिनी एकादशी (19 जून) के पावन दिन वह ब्रह्मलीन हो गये। उन्हें मचान के पास ही यमुना की पवित्र धारा में जलसमाधि दी गई।


 श्यामा चरण लाहिड़ी (1828-1895)



उन्नीसवीं शताब्दी के उच्च कोटि के साधक श्यामाचरण लाहिड़ी का जन्म बंगाल के नदिया जिले की प्राचीन राजधानी कृष्णनगर के निकट धरणी नामक ग्राम के एक संभ्रांत ब्राह्मण कुल में हुआ था। तीन-चार वर्ष की आयु में ही वे प्रायः बालू में केवल सिर बाहर और अन्य सारा B शरीर बालू के अंदर रखते हुए एक विशिष्ट योगासन में बैठे दिखाई देते थे। इनका पठन-पाठन काशी में हुआ। बालक लाहिड़ी ने काशी की पाठशालाओं में हिंदी और उर्दू की पढ़ाई की। उन्होंने जयनारायण घोषाल के विद्यालय में संस्कृत, बंगाली, फ्रेंच तथा अंग्रेजी की शिक्षा प्राप्त की और वेदों का गम्भीर अध्ययन किया। उनका शरीर सुडौल, स्वस्थ तथा बलिष्ठ था। तैराकी तथा शारीरिक पटुता के अनेक कार्यों में वह निष्णात थे। 


सन् 1851 में तेईस वर्ष की आयु में लाहिड़ी महाशय दानापुर में ब्रिटिश सरकार के मिलिटरी इंजिनियरिंग विभाग में लेखापाल के पद पर नियुक्त हुए। अपने सेवाकाल में अनेक बार उनकी पदोन्नति हुई। कुछ समय के लिए सरकारी काम से अल्मोड़ा जिले के रानीखेत नामक स्थान पर भेज दिए गए। हिमालय की इस उपत्यका में गुरुप्राप्ति और दीक्षा हुई। इनके अनेक शिष्यों में युक्तेश्वर गिरि, केशवानन्द और प्रणवानन्द ने उनके संबंध में प्रकाश डाला है। दीक्षा के बाद भी इन्होंने कई वर्षों तक नौकरी की और इसी समय से गुरु की आज्ञानुसार लोगों को दीक्षा देने लगे थे।


सन् 1880 में पेंशन लेकर आप काशी आ गये। इनकी गीता की आध्यात्मिक व्याख्या आज भी शीर्ष स्थान पर है। इन्होंने वेदांत, सांख्य, वैशेषिक, योगदर्शन और अनेक संहिताओं की व्याख्या भी प्रकाशित की। इनकी प्रणाली की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि गृहस्थ मनुष्य भी योगाभ्यास द्वारा चिरशांति प्राप्त कर योग के उच्चतम शिखर पर आरूढ़ हो सकता है। इन्होंने अपने सहज आडंबररहित गार्हस्थ्य जीवन से यह प्रमाणित कर दिया था। धर्म के संबंध में बहुत कट्टरता के पक्षपाती न होने पर भी ये प्राचीन रीति-नीति और मर्यादा का पूर्णतया पालन करते थे। शास्त्रों में इनका अटूट विश्वास था।


जब ये रानीखेत में थे तब अवकाश के समय शून्य विजन में पर्यटन पर प्राकृतिक सौंदर्यनिरीक्षण करते। इसी भ्रमण में दूर से अपना नाम सुनकर द्रोणगिरि नामक पर्वत पर चढ़ते-चढ़ते एक ऐसे स्थान पर पहुँचे जहाँ थोड़ी-सी खुली जगह में अनेक गुफाएँ थीं। इसी एक गुफा के करार पर एक तेजस्वी युवक खड़े दीख पड़े। उन्होंने हिंदी में गुफा में विश्राम करने का संकेत किया। इसके बाद पूर्वजन्मों का वृत्तांत बताते हुए शक्तिपात किया। बाबा जी से दीक्षा का जो प्रकार प्राप्त हुआ, उसे क्रियायोग कहा गया है। क्रियायोग की विधि केवल दीक्षित साधकों को ही बताई जाती है। यह विधि पूर्णतया शास्त्रोक्त है और गीता उसकी कुंजी है। गीता में कर्म, ज्ञान, सांख्य इत्यादि सभी योग हैं और वह भी इतने सहज रूप में जिसमें जाति और धर्म के बंधन बाधक नहीं होते। लाहिड़ी महाशय हिंदू, मुसलमान, ईसाई- सभी को बिना भेदभाव के दीक्षा देते थे। वह अन्य धर्मावलंबियों से यही कहते थे कि आप अपनी धार्मिक मान्यताओं का आदर और अभ्यास करते हुए क्रियायोग द्वारा मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं। पात्रानुसार भक्ति, ज्ञान, कर्म और राजयोग के आधार पर व्यक्तित्व और प्रवृत्तियों के अनुसार साधना करने की प्रेरणा देते। उनके मत से शास्त्रों पर शंका अथवा विवाद न कर उनका तथ्य आत्मसात् करना चाहिए। अपनी समस्याओं के हल करने का आत्मचिन्तन से बढ़कर कोई मार्ग नहीं।


स्वामी विशुद्धानन्द परमहंस (1853-1937)



स्वामी विशुद्धानन्द परमहंस योगशास्त्र में महान् पारंगत, सिद्ध महापुरुष थे। उन्होंने योग को विज्ञान कहा और बताया कि इसके सूर्यविज्ञान, चन्द्रविज्ञान, नक्षत्र विज्ञान, स्वरविज्ञान, वायुविज्ञान, देवविज्ञान आदि कई भेद हैं। सूर्यविज्ञान के क्षेत्र में इनकी उपलब्धि इतनी असाधारण थी कि वह सूर्य की किरणों को एक साधारण लेंस द्वारा रूमाल, रूई आदि पर संकेन्द्रित कर मनोवांछित धातुओं, मणियों तथा अन्य पदार्थों का सृजन करने में समर्थ थे। यह सब उन्होंने तिब्बत-स्थित दिव्य आश्रम ज्ञानगंज में 12 वर्षों के अध्ययन के उपरान्त सीखा। स्वामी जी ने अंग्रेजों से प्रताड़ित निराश भारत के मन में आशा व उत्साह का एक नया दीप जलाया जिससे भारत पुनः अपने ज्ञान, विज्ञान, योग एवं तप साधनाओं के द्वारा पूरे विश्व में जगद्गुरु के रूप में अपनी प्रतिष्ठा प्राप्त कर सके। इसी प्रेरणा से लाखों लोग योग व तप के महान् पथ पर चलने के लिए संकल्पित हुए। योग व तन्त्र के परम विद्वान् महामहोपाध्याय आचार्य गोपीनाथ कविराज इन्हीं के शिष्य थे। परमहंस योगानन्द ने अपनी पुस्तक 'ऑटोबायोग्राफी ऑफ योगी' में इन्हें ‘गंध बाबा' के नाम से सम्बोधित किया है। प्रसिद्ध अंग्रेज़ पत्रकार पॉल ब्रेटन ने अपनी पुस्तक ‘गुप्त भारत की खोज में इनकी शक्तियों का विस्तार से वर्णन किया है। स्वामी विशुद्धानन्द शून्य से अंगूर, मिठाइयाँ उत्पन्न कर लेते थे। यहाँ की सामग्री को तिब्बत भेज देते थे, मुरझाए फूलों को हरा-भरा कर देते थे। बचपन से ही इनको साधुओं के दर्शन व सत्संग व एकान्त-सेवन में विशेष रुचि थी। जब भी अवसर मिलता, ये गाँव के पास श्मशान में एक वटवृक्ष के नीचे बैठकर ध्यान करते थे। इनकी आसाधारण बाल्य प्रवृत्तियों से लोगों ने अनुमान लगा लिया था कि यह बालक अवश्य ही आगे चलकर कोई सिद्ध महापुरुष बनेगा। इन्होंने नवद्वीप के तत्कालीन विख्यात विद्वान् पं. विद्यारत्न से थोड़े ही समय में संस्कृत व शास्त्रों का उचित ज्ञान प्राप्त कर लिया था। बाद में कुछ योगियों द्वारा वे तिब्बत ले जाए गए जहाँ उन्होंने अनेक वर्ष रहकर योग और सूर्यविज्ञान का कठोर प्रशिक्षण प्राप्त किया। दण्डी और संन्यासी जीवन के आठ वर्षों में इन्होंने सम्पूर्ण भारतवर्ष का पर्यटन किया और अपनी साधना को और भी परिपुष्ट किया। स्वामीजी हठयोग के अंतर्गत अत्यन्त कठिन ‘नाभि धौति क्रिया में पारंगत थे। इस क्रिया के द्वारा शरीर शून्यमय हो जाता है। इससे शरीर को संकुचित तथा प्रसारित करने की क्षमता आ जाती है। एक रोमकूप में से होकर किसी बड़े पदार्थ को भी शरीर के भीतर फँसाया जा सकता है अथवा बाहर निकाला जा सकता है। इस प्रक्रिया द्वारा स्वामी जी ने अपनी देह में प्रायः 400 स्फटिक गोलक तथा मस्तिष्क में बाणलिंग, शालिग्राम यथास्थान सजाकर रखे थे। प्रयोजन पड़ने पर पूजा आदि के लिए वे उनको बाहर निकाल लेते तथा क्रियादि के उपरान्त फिर भीतर घुसा देते। बड़ेबड़े स्फटिक गोलक रोमछिद्रों में से देह के भीतर प्रविष्ट करते हुए उन्हें अनेक शिष्यों-भक्तों ने स्वयं देखा था। शरीर के एक भाग में प्रविष्ट कराके वे उसी वस्तु को भीतर-ही-भीतर देह के दूसरे भाग में ले जाते थे। कभी-कभी संकोच-प्रसार करते समय एक-दो स्फटिक अपने आप देह से बाहर छिटक जाते थे। जिसके कारण उग्र तथा विशुद्ध पद्म-गंध वातावरण में फैल जाती थी। क्रिया-पूजा के समय बाबा की देह के भीतर भयानक ताप तथा विद्युत् शक्ति जाग्रत् हो उठती। उस समय देह को ठण्ढा रखने के लिए वह दो सर्यों को अपनी देह पर लपेट लेते थे। इस प्रकार ज्ञानगंज में स्वामी जी ने मंत्र, तपस्या तथा समाधि द्वारा अनेक सिद्धियाँ प्राप्त की थीं जिसका प्रयोग वह लोकहित में किया रते थे। आग्रह तथा प्रार्थना से वे जनसामान्य के क्लेश व रोग दूर कर दिया करते थे।


स्वामी विवेकानन्द (1863-1902)



पाश्चात्य जगत् को भारतीय योग, अध्यात्म और वेदांतदर्शन से अभिभूत करनेवाले विश्ववंद्य स्वामी विवेकानन्द का जन्म 12 जनवरी, 1863 को कलकत्ता में हुआ था। उनका मूल नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था। संगीत, साहित्य और दर्शन में उनकी विशेष रुचि थी। तैराकी, घुड़सवारी, क्रिकेट और कुश्ती उनका शौक था। भारतीय और पाश्चात्य- दोनों शैलियों में वह नियमित व्यायाम किया करते थे। उन्होंने दर्शनशास्त्र में स्नातक की शिक्षा प्राप्त की थी। विद्यार्थी-जीवन में वह दक्षिणेश्वर काली मन्दिर के पुजारी स्वामी रामकृष्ण परमहंस के सम्पर्क में आये और उनके शिष्य बन गये। परमहंस के निधन के पश्चात् उन्होंने संन्यास ले लिया और ‘स्वामी विविदिशानन्द' कहलाये। उन्होंने आसेतुहिमाचल सम्पूर्ण भारतवर्ष की यात्रा की। खेतड़ी के महाराज अजीत सिंह बहादुर के अनुरोध पर उन्होंने स्वामी विवेकानन्द नाम धारण किया। 1892 में उन्होंने कन्याकुमारी में महासागर के मध्य तीन दिनों तक तपश्चर्या की। वहीं उन्हें शिकागो में आयोजित होनेवाले विश्व धर्म संसद के विषय में जानकारी मिली और वहाँ जाने का निश्चय किया। सितम्बर, 1893 में 18 दिनों तक आयोजित इस सम्मेलन में वह दिग्विजयी हुए। भगवा वस्त्रधारी, सुडौल शरीरवाले स्वामजी की पश्चिमी मीडिया ने खूब सराहना की और उन्हें ‘साइक्लोनिक हिंदू' कहा। विवेकानन्द ने अनेक देशों की यात्राएँ कीं जहाँ उन्हें प्रचुर सम्मान और प्रतिष्ठा मिली। 1897 में उन्होंने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की। 1899 में उन्होंने पुनः पश्चिमी जगत् की यात्रा की तथा भारतीय आध्यात्मिकता का संदेश फैलाया।


विवेकानन्द हिंदू-धर्म के एक प्रसिद्ध वक्ता होने के साथ एक प्रसिद्ध योगी भी थे। उन्होंने पातंजल योगदर्शन पर विख्यात टीका लिखी। विदेशों में उन्होंने भारतीय योगदर्शन पर अनेक व्याख्यान दिए, जिसे पाश्चात्य श्रोताओं ने काफी सराहा। विवेकानन्द पर वेदांतदर्शन, बुद्ध के आष्टांगिक मार्ग और गीता के कर्मवाद का गहरा प्रभाव था। परन्तु वेदांत, बौद्ध और गीता के दर्शन को मिलाकर उन्होंने अपना दर्शन गढ़ा, ऐसा नहीं कहा जा सकता। उनके दर्शन का मूल वेदांत और योग ही रहा। योग की अन्तिम अवस्था राजयोग पर विवेकानन्द के मौलिक विचार थे और इस पर उन्होंने ग्रंथ की भी रचना की। विवेकानन्द के अनुसार प्रत्येक जीव अव्यक्त ब्रह्म है। बाह्य एवं अंतःप्रकति को वशीभूत करके अपने इस ब्रह्मभाव को व्यक्त करना ही जीवन का चरम लक्ष्य है। कर्म, उपासना, मनःसंयम अथवा ज्ञान, इनमें से एक, एक से अधिक या सभी उपायों का सहारा लेकर अपने ब्रह्मभाव को व्यक्त करो और मुक्त हो जाओ। बस, यही धर्म का सर्वस्व है। मत, अनुष्ठान-पद्धतियाँ, शास्त्र, मन्दिर अथवा अन्य बाह्य क्रियाकलाप तो उसके गौण अंग-प्रत्यंगमात्र हैं। मात्र 39 वर्ष की उम्र में 4 जुलाई 1902 को विवेकानन्द ने मुक्त प्राप्त की।


श्रीअरविन्द (1872-1950)



महान् क्रान्तिकारी और कालान्तर में महान् योगी श्रीअरविन्द का जन्म कलकत्ता में 15 अगस्त, 1872 को हुआ था। उनके पिता कृष्णधन घोष पश्चिमी सभ्यता के रंग में रंगे हुए थे। इसलिए उन्होंने अरविन्द को दो बड़े भाइयों के साथ दार्जिलिंग के एक अंग्रेजी स्कूल में पढ़ने के लिए भेज दिया। बाद में उन्हें पढ़ने के लिए इंग्लैण्ड भेज दिया गया। वहाँ केवल 18 वर्ष की अवस्था में आई.सी.एस. की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली और अनेक यूरोपीय भाषाओं में निपुणता प्राप्त कर ली। अंग्रेजों की नौकरी न करने के उनके निर्णय से बड़ौदा नरेश बहुत प्रभावित थे। उन्होंने अरविन्द को अपना निजी सचिव नियुक्त कर लिया। अतः अरविन्द भारत लौट आये। अरविन्द ने कुछ समय तक तो यह कार्य किया, किन्तु फिर अपनी स्वतंत्र विचारधारा के कारण नौकरी छोड़ दी। वह बड़ौदा कॉलेज में पहले प्रोफेसर बने और फिर बाद में वाइस प्रिंसिपल भी बने। सन् 1905 में बंगाल-विभाजन से आहत होकर अरविन्द ने विभिन्न समाचार-पत्रों में अंग्रेजों के विरुद्ध अनेक प्रभावशाली लेख लिखे। उनके लेखों से जनजागृति आयी। ब्रिटिश सरकार उनके इस क्रियाकलापों से चिंतित हो गई और अलीपुर बम काण्ड के अंतर्गत 02 मई, 1908 को उन्हें गिरफ्तार कर लिया। उन्हें एक वर्ष तक अलीपुर जेल में कैद रखा गया। जेल में ही उन्हें हिंदुत्व एवं हिन्दू-राष्ट्र विषयक अद्भुत आध्यात्मिक अनुभूति हुई। घोष के पक्ष में प्रसिद्ध बैरिस्टर चितरंजन दास ने मुकदमे की पैरवी की थी। उन्होंने अपने प्रबल तर्कों के आधार पर अरविन्द को सारे अभियोगों से मुक्त घोषित करा दिया। जेल से छूटने पर उत्तरपाड़ा में अरविन्द का एक प्रभावशाली व्याख्यान हुआ। दो वर्ष के बाद अरविन्द दक्षिण-पूर्वी भारत में फ्रांसीसी उपनिवेश पाण्डिचेरी चले गए जहाँ उन्होंने आध्यात्मिक विकास के अन्तरराष्ट्रीय सांस्कृतिक केन्द्र के रूप में एक आश्रम की स्थापना की, जिसकी ओर विश्वभर के छात्र आकर्षित हुए।


पाण्डिचेरी आने पर अरविन्द प्रथम दिन से ही योगाभ्यास में अधिकाधिक तल्लीन होते गए और राजनीति से पूर्णरूपेण संबंधविच्छेद कर लिया। अपने एकान्तवाद में भी श्रीअरविन्द जगत् तथा भारत में घटनेवाली सभी घटनाओं का बड़ी सूक्ष्मता से निरीक्षण करते रहे और जब कभी आवश्यकता हुई सक्रिय हस्तक्षेप भी किया, परंतु केवल आध्यात्मिक बल और मौन आध्यात्मिक क्रिया के द्वारा ही। श्रीअरविन्द ने समग्र योग-पद्धति का न केवल विकास किया, बल्कि उसे पूर्णता भी प्रदान की। उनके अनुसार इन तरीकों से लोग उच्चतर चेतन अवस्था को प्राप्त कर पायेंगे। श्रीअरविन्द ने चार योगों की चर्चा की है- ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग और राजयोग। श्रीअरविन्द ने इन योगसिद्धि में तीन विधियों की पहचान की है। पहली विधि में जीवन के समस्त तत्त्वों को दैवतत्त्व के समक्ष समर्पण किया जायेगा; दूसरी विधि में चेतना का महान् बौद्धिक परिमण्डल की ओर प्रचलन होगा जिसमें महानु बौद्धिक परिमण्डल की शक्ति तथा उसका प्रकाश चेतना स्वयं में ग्रहण कर लेगी तथा तीसरी विधि में शक्तियुक्त तथा प्रकाशयुक्त चेतना पुनः धरती की ओर लौटेगी। श्रीअरविन्द का दृढ़ विश्वास था कि संसार के दुःख का निवारण केवल आत्मा के विकास से ही हो सकता है जिसकी प्राप्ति केवल योग द्वारा ही संभव है। वह मानते थे कि योग से ही नयी चेतना आ सकती है। श्रीअरविन्द ने योग-साधना पर मौलिक ग्रन्थ लिखे। उनकी योग-साधना पद्धति के अनुयायी सब देशों में पाए जाते हैं। श्रीअरविन्द ने 1910 में ही भारत की स्वतन्त्रता के बारे में अपना दृष्टिकोण स्पष्ट दिया था- 'चार वर्ष बाद युद्धों, जगद्व्यापी महापरिवर्तनों एवं क्रान्तियों का एक लम्बा काल आरम्भ होगा जिसके पश्चात् भारत अपनी स्वतन्त्रता प्राप्त कर लेगा। स्वाधीनता शीघ्र ही आ रही है और कोई चीज उसे रोक नहीं सकती।' श्रीअरविन्द के 75वें जन्मदिवस 15 अगस्त, 1947 को भारत को स्वाधीनता प्राप्त हुई। उस दिन उन्होंने भारत के पुनः अखण्ड होने की भविष्यवाणी की थी। 05 दिसम्बर, 1950 को श्रीअरविन्द ने महासमाधि ले ली। पूरे 111 घंटे तक उनके शरीर में किसी प्रकार का विकार नहीं आया था।


स्वामी कुवलयानन्द (1883-18 अप्रल 1966)



गुजरात में जन्मे कुवलयानन्द (जगन्नाथ गणेश गुने) को मुख्य रूप से योग के वैज्ञानिक आधारों के मार्गदर्शक शोध के लिए जाना जाता है। बम्बई और बड़ौदा से पढ़ाई के बाद वह स्वाधीनता आंदोलन का हिस्सा हो गए थे। कुवलयानन्द श्रीअरविन्द से प्रभावित थे और बाद में से प्रभावित थे और बाद में टिळक के होमरूल आन्दोलन में शामिल हो गये थे। इसी दौरान भारतीय संस्कृति का पठन-पाठन करते हुए 1907 में उनका परिचय बड़ौदा के जुम्मम दादा व्यायामशाला से हुआ। यहाँ मानिकराव दादा ने उन्हें तीन साल शरीर के भारतीय शास्त्र से उनका शुरूआती परिचय करवाया। लेकिन उनके जीवन में योग के विधिवत् प्रवेश की शुरूआत हुई 1919 में जब बड़ौदा में पहली बार उनकी मुलाकात बंगाली योगी परमहंस माधवदास से हुई और यहाँ से कुवलयानन्द के जीवन की दिशा बदल गयी।


स्वामी कुवलयानन्द योग को आधुनिक वैज्ञानिक कसौटी पर कसकर इसका प्रसार करना चाहते थे ताकि योग के चिकित्सकीय पहलू को लोगों के सामने लाया जा सके। इसके लिए उन्होंने 1924 में दुनिया का पहला योग शोध-संस्थान 'कैवल्यधाम' स्थापित किया। बम्बई-पूना के मध्य स्थित लोनावाला में स्थापित कैवल्यधाम ने एक शोध-पत्रिका ‘योग मीमांसा' का प्रकाशन भी शुरू किया जो पूरी तरह से योग के चिकित्सकीय पहलू को समर्पित है। स्वामी कुवलयानन्द ने जिस योग क्रांति के बीज बोए थे, वे समय के साथ पल्लवित होते रहे और आज पूरब में चीन से लेकर पश्चिम में कनाडा तक कैवल्यधाम योग पर एक प्रामाणिक संस्था के रूप में कार्यरत है।


स्वामी शिवानन्द सरस्वती (1887-1963)



महायोगी स्वामी शिवानन्द सरस्वती वेदान्त के महान् आचार्य और सनातन धर्म के विख्यात प्रवक्ता थे। उनका जन्म तमिलनाडु में अप्यायार दीक्षित वंश में हुआ था। उन्होंने बचपन से ही वेदान्त का गहन अध्ययन और अभ्यास किया। इसके बाद उन्होंने चिकित्साविज्ञान का अध्ययन किया। तत्पश्चात् उन्होंने मलेशिया में डॉक्टर के रूप में लोगों की सेवा की। 1923 में उन्होंने अपना सबकुछ दान कर दिया और भारत आ गये। एक वर्ष उन्होंने तीर्थयात्रा में व्यतीत किया। 1924 में ऋषिकेश में स्वामी विश्वानन्द सरस्वती ने उन्हें संन्यास की दीक्षा दी और उनका नाम स्वामी शिवानन्द सरस्वती रखा। स्वामी शिवानन्द डॉक्टर के तौर पर कई वर्षों तक रोगग्रस्त भिक्षुओं और तीर्थयात्रियों की सेवा में लगे रहे। 1927 में उन्होंने एक निःशुल्क आरोग्यशाला की स्थापना की। 1932 में उन्होंने शिवानन्दाश्रम और 1936 में ‘डिवाइन लाइफ सोसायटी की स्थापना की। अध्यात्म, दर्शन और योग पर उन्होंने लगभग 300 पुस्तकों की रचना की और भारत, यूरोप और अमेरिका में योग-केंद्र खोले। योग को उन्होंने अभूतपूर्व ऊँचाई पर पहुँचाया। वे दिमाग, दिल और शरीर के लिए ज्ञान, भक्ति और कर्मयोग का संतुलित प्रशिक्षण देते थे। उन्होंने त्याग व निःस्वार्थ भाव से हजारों लोगों को ज्ञान, योग और साधना करना सिखाया। पूरे विश्व में उनके शिष्यों ने 137 शाखाओं के माध्यम से ज्ञान, ध्यान व योग को स्थापित किया है।


तिरुमलई कृष्णमाचार्य (1888-1989)



बीसवीं शती में हठयोग के महान् व्याख्याता, योग के पितामह माने जानेवाले और महान् योगगुरु बी.के.एस. अयंगार और कृष्ण पट्टाभि जोयीस के गुरु, तिरुमलई कृष्णमाचार्य का जन्म कर्नाटक के चित्रदुर्ग में हुआ था। उनके पिता वेदों के प्रसिद्ध शिक्षक थे। 6 वर्ष की आयु में कृष्णमाचार्य का उपनयन संस्कार हुआ और उन्होंने अपने पिता के मार्गदर्शन में संस्कृत, वेद और अमरकोश का अध्ययन करना प्रारम्भ किया। दस वर्ष की आयु में पिता की मृत्यु के बाद उन्हें परिवारसहित मैसूर आना पड़ा जहाँ उनके परदादा श्रीनिवास ब्रह्मतंत्र प्रकालस्वामी प्रकाली मठ के महंत थे। कृष्णमाचार्य ने कामराज संस्कृत महाविद्यालय और मठ में औपचारिक शिक्षा प्राप्त की। उन्होंने मैसूर में वैदिक विद्वत्ता की परीक्षा उत्तीर्ण की। 16 वर्ष की आयु में उन्होंने भारतभ्रमण किया और षड्दर्शनों का अध्ययन किया। 1906 में वह काशी पहुँचे और उस अवधि के महान् वैयाकरण ब्रह्मर्षि शिवकुमार शास्त्री के साथ तर्कशास्त्र और संस्कृत का अध्ययन किया। 1909 वह मैसूर वापस आ गये और प्रकाल मठ में वेदांत का अध्ययन किया। 1914 में वह पुनः काशी आये और क्वीन्स कॉलेज में दाखिला ले लिया। बंगाल के वैद्य कृष्णकुमार के अधीन आयुर्वेद के अध्ययन के लिए उन्हें छात्रवृत्ति भी मिली। उन्होंने श्रीबाबू भगवान दास से योग सीखा और पटना विश्वविद्यालय से सांख्ययोग की परीक्षा उत्तीर्ण की। 1919 में वह योगेश्वर राममोहन ब्रह्मचारी की खोज में निकले जो नेपाल के परे हिमालय पर्वत में निवास करते बताए जाते हैं। जब उन्होंने वायसराय लॉर्ड इर्विन से अनुमति मांगी तो वायसराय ने उनसे अपने मधुमेह का उपचार करने को कहा। कृष्णमाचार्य ने उन्हें 6 महीने में रोगमुक्त कर दिया। प्रसन्न होकर वायसराय ने उन्हें खर्च सहित तीन सहायकों के साथ योगी की खोज के लिए नेपाल और तिब्बत की यात्रा पर भेज दिया। कैलासपर्वत की गुफा में योगेश्वर राममोहन ब्रह्चारी से भेंट हुई। गुरु के सान्निध्य में कृष्णमाचार्य ने कैलास पर्वत में कई वर्ष बिताकर पतंजलि के योगसूत्रों, आसन एवं प्राणायामादि का अभ्यास किया। दक्षिण भारत लौटने के बाद कृष्णमाचार्य ने 1924 में मैसूर के महाराजा के संरक्षण में योग विद्यालय खोला जहाँ वह 1955 तक योग की शिक्षा देते रहे और योगमकरन्द, योगरहस्य, योगावली आदि पुस्तकों की रचना की। वह मैसूर नरेश के योग सलाहकार भी रहे। कृष्णमाचार्य एक योगाचार्य के साथ उपचारक भी थे। प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से उनसे प्रेरणा लेकर दुनियाभर में कई योग संस्थान खुले। 1989 में सौ साल की उम्र में निधन होने से पहले उन्होंने ऐसे कई योग्य शिष्य तैयार कर दिए जिन्होंने देश- विदेश में योग की महत्ता को बढ़ाया। जिद्दू कृष्णमूर्ति और हैदराबाद के निजाम को भी उन्होंने योग सिखाया था। कृष्णमाचार्य ने अपने आखिरी दिनों तक हठयोग की विनियोग प्रणाली का अभ्यास किया और उसकी शिक्षा दी। कृष्णमाचार्य दर्शन, तर्क, योग, भाषाशास्त्र और संगीत के प्रकाण्ड विद्वान् थे। उन्होंने दो-दो बार श्रीवैष्णव व सम्प्रदाय के अध्यक्ष के पद को ठुकराया था।


परमहंस योगानन्द (1893-1952)



पश्चिमी दुनिया में क्रियायोग का प्रसार करनेवाले महान् योगी परमहंस योगानन्द का जन्म मुकुन्दलाल घोष के रूप में 5 जनवरी, 1893 को गोरखपुर में एक बंगाली परिवार में हुआ। योगानन्द के पिता भगवतीचरण घोष बंगाल नागपुर रेलवे में उच्च पदस्थ थे। योगानन्द अपने माता-पिता की चौथी सन्तान थे। उनके माता-पिता महान् क्रियायोगी लाहिड़ी महाशय के शिष्य थे। जन्म के कुछ समय पश्चात् उनकी माताश्री उन्हें लाहिड़ी महाशय के आशीर्वाद के लिए वाराणसी ले गयीं। लाहिड़ी महाशय ने बालक को महान् योगी होने का आशीर्वाद दिया। योगानन्द जी में जन्म से ही ईश्वप्राप्ति की परमाकांक्षा बनी हुई थी। परमसत्य की खोज के क्रम में वह युक्तेश्वर गिरि जी के पास पहुँचे। सन् 1915 में 10 वर्षों के आध्यात्मिक प्रशिक्षण के बाद योगानन्द जी ने संन्यास का स्वामी पद ग्रहण किया।


परमहंस योगानन्द ने युवकों की शिक्षा के लिए 1918 में राँची में योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ इण्डिया' की स्थापना की। 1920 में उन्हें गुरु ने अमेरिका में हो रहे उदारवाद के विश्व धर्म सम्मेलन में भारत के प्रतिनिधि के रूप में भेजा। सम्मेलन के पश्चात् बोस्टन, न्यूयॉर्क, फिलाडेल्फिया में दिए गए उनके व्याख्यानों का अत्यंत उत्साह के साथ स्वागत हुआ और 1924 में उन्होंने सम्पूर्ण अमेरिका में दौरे करते हुए अनेक व्याख्यान दिये। अगले दशक में परमहंस जी ने व्यापक यात्राएँ कीं जिनमें उन्होंने अपने व्याख्यानों और कक्षाओं के दौरान हजारों नर-नारियों को ध्यान के यौगिक विज्ञान एवं संतुलित आध्यात्मिक जीवन की शिक्षा प्रदान की।


परमहंस योगानन्द के जीवन एवं उनकी शिक्षाओं का वर्णन उनकी आत्मकथा 'द ऑटोबायोग्राफी ऑफ योगी' में उपलब्ध है। उनकी यह कृति एक उत्कृष्ट पुस्तक सिद्ध हुई और 21 भाषाओं में अनुवादित हो चुकी है तथा अब विश्व तथा भारतभर में कई महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में पाठ्य-पुस्तक तथा सन्दर्भग्रन्थ के रूप में प्रयोग में लाई जा रही है। 7 मार्च, 1952 को लॉस एंजिल्स में परमहंस योगानन्द ने महासमाधि ले ली। महासमाधि के 21 दिन बाद भी उनके शरीर में कोई विकृति नहीं आई। 21 दिनों के बाद उनके शरीर को काँसे के ताबूत में रखकर लॉस एंजिल्स में संरक्षित किया गया। मार्च 2002 में उनकी महासमाधि की 50वीं वार्षिकी पर उनके पार्थिव अवशेष को स्थायी समाधि-स्थल में प्रतिष्ठित किया गया।


स्वामी देवमूर्ति (1901-2009)



विदेशों में योग की ध्वजा फ हराने वाले योगियों में स्वामी देवमूर्ति का नाम अग्रगण्य है। इनका जन्म 20 मार्च, 1901 को हुआ और 27 सितम्बर, 2009 को 108 वर्ष की अवस्था में इनका देहांत हुआ। स्वामी देवमूर्ति ब, हा चाया, ब, हा चाया, शाकाहार, ध्यान, नेति, नौली, प्राणायाम और मकरासन पर बहुत जोर देते थे। देवमूर्ति ने तीन वर्ष की अवस्था में योगाभ्यास शुरू किया था। 5 वर्ष की अवस्था में एक हिमालयन योगी मतिजी महाराज उन्हें अपने साथ हिमालय की गुफाओं में ले गए और योग के रहस्यों से अवगत कराया। सन् 1958 में मतिजी ने देवमूर्ति को योग को पूरे विश्व में प्रचारित करने का आदेश दिया। जवाहरलाल नेहरू और इन्दिरा गांधी के योग-शिक्षक रहे देवमूर्ति ने विदेशों में 20 टन वजनी ट्रक को अपने दांतों से खींचने और चार कारों को अपने एक हाथ से रोकने का कारनामा दिखाया था। 1959 में उन्होंने हैम्बर्ग, जर्मनी में अनेक शो करके योगविद्या का अद्भुत प्रदर्शन किया था। उन्होंने भारत और यूरोप में अनेक योग-केन्द्र स्थापित किये। उनके मुख्य यूरोपीय शिष्यों- जैक के बोल्टन और जॉन आर. मोर ने 1962 में इंग्लैण्ड में एक अंतरराष्ट्रीय योग केन्द्र की स्थापना की।


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