योगः कर्मसु कौशलम्

आधुनिक विज्ञान, ज्ञान प्राप्त करने का एकमात्र साधन, प्रयोग-प्रणाली को ही मानता है। उसकी मान्यता है कि सत्य को परखने के लिए प्रयोगधर्मिता ही उचित तर्क-प्रणाली है। इसके विपरीत, योग-प्रणाली में अपने निज अनुभव को ही ज्ञानप्राप्ति का साधन माना जाता है। उसका मनोवैज्ञानिक कारण है। आदमी को अपनी अनुभूति के प्रति जितनी विश्वसनीयता और प्रियता होती है, उतनी विश्वसनीयता किसी अन्य साधन के प्रति नहीं होती।


योग, आदमी को अपने अस्तित्व की पहचान से मुलाकात करवाता है। योगाभ्यासी बाल काढ़ते समय जब शीशा देखता है तो उसे धीरे-धीरे लगने लगता है कि बालों की सैटिंग पर उसका ध्यान अब कम जाने लगा है। उसे अपने चेहरे पर वे तेरह लकीरें मिटती-सी नज़र आने लगती हैं जो व्यक्तित्व में क्रोध, शोक, तनाव एवं मनोग्रन्थियों के कारण बनी थीं। फिर उसे यह भी दिखाई देने लगता है कि तीन नयी - रेखाएँ और उभर रही हैं जो प्रसन्नता, उत्साह, उमंग, आशावादिता एवं आनन्द का कारण बन रही हैं। शरीरशास्त्रियों के अनुसार क्रोध, शोक, नैराश्य आदि निगेटिव भाव के कारण, चेहरे की तेरह मांसपेशियों में तनाव की हरकत के कारण ये तेरह रेखाएँ उभरती हैं। परंतु प्रसन्नता, उत्साह, आनन्द आदि पॉजिटिव भावों के कारण तीन ही रेखाएँ बनती हैं। इस कारण चेहरे पर रौनक और आँखों में मोहक चमक झलक उठती है। इसी मुकाम पर, उसे शक पड़ने लगता है कि उसके अस्तित्व की पहचान, मात्र शरीर के अलावा भी और कुछ है।



अस्तित्व की इस नयी पहचान से, उन लोगों की । मुलाकात नहीं हो पाती जो ‘योग’ शब्द को अंग्रेजी मानसिकता की फैशनपरस्ती के
कारण 'योगा' पुकारते हैं। ‘योगा' कहनेवाले, योग-क्रिया का उपयोग शरीर की मशीनरी को चुस्त-दुरुस्त और रोगमुक्त रखने का साधनमात्र समझते हैं। कारण स्पष्ट है कि वे अपने अस्तित्व को मात्र शरीर तक ही सीमित मानते हैं। आधुनिक वैज्ञानिक सभ्यता का कायल दिमाग, उसकी और गहराई तक नहीं जा सकता है तथा जाने में वैज्ञानिक मान्यताओं के लिए हानिकारक मानता है।


भारतीय मान्यता के अनुसार, शब्द के गलत उच्चारण से ऐसी दिमागी उलझन पैदा होना स्वाभाविक है। शब्द के गलत उच्चारण से, अस्तित्व के विभिन्न स्तरों पर क्यों और कैसे हानिकारक प्रभाव पड़ता है, यह अपने में एक अलग विषय है जिस पर चर्चा करना मौजूदा विषय से भटकना होगा।


मौजूदा विषय से भटकना होगा। आधुनिक विज्ञान, ज्ञान प्राप्त करने का एकमात्र साधन, प्रयोग-प्रणाली को ही मानता है। उसकी मान्यता है कि सत्य को परखने के लिए प्रयोगधर्मिता ही उचित तर्क-प्रणाली है। इसके विपरीत, योग-प्रणाली में अपने निज अनुभव को ही ज्ञानप्राप्ति का साधन माना जाता है। उसका मनोवैज्ञानिक कारण है। आदमी को अपनी अनुभूति के प्रति जितनी विश्वसनीयता और प्रियता होती है, उतनी विश्वसनीयता किसी अन्य साधन के प्रति नहीं होती। योगाभ्यास से व्यक्तित्व में अधिकतम अनुभव करने की क्षमता बढ़ाने की गुंजाइश बनती है।


ज्ञानप्राप्ति की अनुभव-प्रणाली की सार्थकता और प्रामाणिकता के विषय में, भौतिकविज्ञान के प्रसिद्ध वैज्ञानिक सर जेम्स जीन्स का यह कथन विचारणीय है जो उन्होंने अपनी पुस्तक ‘दि न्यू बैंकग्राउंड ऑफ साइंस' में व्यक्त किया है। वे लिखते हैं, वे प्राचीन ऋषिगण, जिनके पास न तो आज की तरह सुसंपन्न प्रयोगशालाएँ थीं, न ही वे ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्राप्त कोई सबूत पेश करते थे, परन्तु फिर भी वे वही निष्कर्ष स्थापित करते थे, जो निष्कर्ष आज की प्रयोगशालाओं में जाँचपड़ताल और परीक्षण के द्वारा प्राप्त होते हैं। वे इसलिए क्योंकि उनके पास ऐसे उपकरण (इन्सटूयमेन्ट) थे जो ज्यादा पैने और गहराई में जानेवाले थे, जो स्टील से बने औजारों से भी ज्यादा पैने थे। वे उपकरण जो प्रिज्म, लैंस, टैस्ट ट्यूब या गणितीय फॉर्मूले से भी गहरे रहस्योद्घाटन करते थे। ये औजार उनकी चेतना से बने थे जो त्रुटिहीन दक्षतावाले होते थे और चेतना की समाधि अवस्था में उन्हें चेतना के इस उपकरण से जो अनुभवी ज्ञान जो प्राप्त हुआ था, उसके अनुसार उन्होंने पाया कि आदमी का अस्तित्व तीन भागों में बँटा है- आकृति, प्रकृति और अहंकृति। आकृति से मतलब है, शरीर का आकार-रंग-रूप। प्रकृति से मतलब है, आदमी का स्वभाव। अहंकृति से मतलब है, ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों का सामर्थ्य। आकृति अणु परमाणुओं से बनी पंचतंत्रीय पदार्थ-सत्ता है। प्रकृति या स्वभाव आदमी की प्राणऊर्जा से बनता है। अहंकृति या अहंकार मन में ज्ञानेन्द्रियों के संस्कार, भावना रूप में और कमेन्द्रियों के संस्कार, वासना रूप में एकत्रित होकर बनता है।'


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