अयोध्या-अभिनिर्णय और कलह के दोषी

श्री रामजन्मभूमि विवाद का निर्णय  स्थल-सम्बन्धी विवाद का निर्णय अन्ततः 30 अक्टूबर, 2010 को सुना दिया गया और इसके लिये गठित इलाहाबाद उच्च न्यायालय के विशेष पीठ के सभी माननीय न्यायाधीशगण ने सर्वसम्मति से यह स्वीकार किया कि विवादित ढाँचे के नीचे एक विशाल हिंदू मन्दिर था। दो न्यायाधीशों ने तो यह भी माना कि उस मन्दिर को तोड़कर तथाकथित बाबरी मस्जिद का निर्माण किया गया जबकि एक न्यायाधीश ने यह मत व्यक्त किया कि वह इमारत मन्दिर के खण्डहर के ऊपर बनाई गई थी; उनके इस निर्णय में उनकी अपनी विवशताओं और सोच को स्पष्ट देख पाना कठिन नहीं है।



न्यायपीठ के इस निर्णय के पीछे पुरातत्त्व विभाग द्वारा की गई खुदाई में मिले प्रमाणों की निर्णायक भूमिका थी और यह भी मानना पड़ेगा कि उत्खनन का यह कार्य माननीय न्यायपीठ की पहल पर ही हुआ था। अन्यथा विरोधी पक्ष तो इसका शुरू से ही विरोध करता रहा, क्योंकि, जैसा कि आगे के विवरण से स्पष्ट होगा वह मामले को अनन्त काल तक लटकाए रखना चाहता था। यही रुख हिंदू-पक्ष निर्मोही अखाड़े का भी रहा। यह किसी से छिपी बात नहीं है कि न्यायालाय, सरकारों तथा विपक्षी राजनीतिक दलों ने भी अन्त तक इसकी भरपूर कोशिश की कि जैसे भी हो, निर्णय को टालते रहा जाय।


तो जिम्मेदारी किसकी है ?


यह विवाद 488 वर्ष पुराना है जब मुगलआक्रान्ता के एक सिपहसालार ने अति प्राचीन काल से चले आ रहे हिंदू-आस्था केन्द्र भगवान् श्रीरामचन्द्रजी के जन्मस्थान मन्दिर को ध्वस्त करके उसके मलबे से उसी स्थान पर पूजा-स्थल बना लिया। उस समय भी सशस्त्र विरोध हुआ था और बाद की शताब्दियों में रह-रहकर विरोध होता रहा; क्योंकि श्रद्धालु जनता प्रतिवर्ष चैत्र रामनवमी के दिन अपने आराध्य का जन्मदिन मनाने लाखों की संख्या में निरन्तर आती रहती थी और बराबर तनाव होता था। अन्ततः मुगल-प्रशासन को उस परिसर में ही दो छोटे स्थल देने के लिये मजबूर होना पड़ा जिसमें एक को ‘सीता की रसोई' कहा जाता था तो दूसरे को ‘राम चबूतरा' । कैसी विडम्बना है कि जो लोग आज आक्रमणकारी के पक्ष में खड़े दिखाई पड़ते हैं, उनमें से अधिसंख्य वास्तव में हिंदुओं के रक्त-सम्बन्धी ही थे जो बलपूर्वक मतान्तरित करा लिए गए थे। यह भी एक तथ्य है कि सक्रिय विरोध करनेवाला वर्ग अति अल्प संख्या में लेकिन प्रभावी है तथा अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिये शेष निरीह लोगों को धर्मभीति दिखाकर अपने साथ रहने को बाध्य करता रहता है। तीसरी बात यह है कि हमारे राजनीतिक दल सत्ता में बने रहने के लिये संविधान में दी गई सेकुलर (जो सर्वधर्म समभाव भावना हिंदू समाज में जन्मजात पाई जाती है) शब्द की विकृत परिभाषा करके इन्हें अपने साथ बनाए रखने के लिये हर तरह से शोषण करते रहे हैं। अयोध्या-विवाद का उपयोग सत्ताधीशों ने तो अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिये शब्दाडम्बर, झूठ बोलना, झूठे आश्वासन देना तथा बरगलाना आदि हथकंडे शासन के सर्वोच्च स्तर पर अपनाए ही। हमारी न्यायपालिका भी पीछे नहीं रही।


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