अयोध्यावासी सीताजी से क्षमा मांगें!

वाल्मीकीयरामायण का ध्यानपूर्वक अवलोकन करने पर ज्ञात होता है कि राजा राम द्वारा लंकापुरी में भगवती सीता जी की अग्निपरीक्षा लेना और फिर अयोध्या आकर उनका परित्याग कर देना एक पति द्वारा अपनी धर्मपत्नी की परीक्षा और परित्याग नहीं, वरन् एक राजा द्वारा अपनी राजमहिषी का राजधर्म की दृष्टि से लिया गया निर्णय है जिन पर प्रजाजनों ने चरित्रदोष की आशंका व्यक्त की थी।


राम एक कर्तव्यपरायण पति ही नहीं वरन् उससे भी बढ़कर एक प्रजापालक आदर्श राजा भी थे। एक पति जब राजा भी होता हो तो उसका दायित्व और अधिक बढ़ जाता है। ऐसी स्थिति में उसे व्यक्तिगत जीवन के साथ-साथ राष्ट्रगत जीवन भी कुशलता से निभाना पड़ता है। विकट परिस्थिति आ जाने पर इन दोनों प्रकार की भूमिकाओं में से किसे प्रधानता दी जाए, रावण-वध के उपरान्त राम इसी अंतर्वंद्व से जूझ रहे थे।



राजा राम के हृदय का अंतढंढ़


रावण-वध के बाद श्रीराम ने हनुमान् से कहा कि वे राजा विभीषण की अनुमति लेकर अशोकवाटिका में जाएँ और सीता जी को रावण-वध का समाचार सुनाने के बाद यहाँ जनसंसद में ले आयें। राम के निर्देशानुसार हनुमान् सीता जी को वहाँ ले आये। इस समय राम के हृदय के अंतर्द्वद्व का सूक्ष्म विश्लेषण करते हुए महर्षि वाल्मीकि लिखते हैं :


पश्यतस्तां तु रामस्य समीपे हृदयप्रियाम्।


जनवादभयाद् राज्ञो बभूव हृदयं द्विधा॥


                             -वाल्मीकीयरामायण, युद्धकाण्ड, 115.11


अर्थात्, राम की उस हृदयप्रिया सीता को समीप देखकर जनअपवाद के भय से राजा का हृदय द्विधा हो गया।


इस महत्त्वपूर्ण श्लोक के पूर्वार्ध में पति राम का और उत्तरार्ध में राजा राम का साभिप्राय उल्लेख यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि द्विधापूर्ण हृदय राजा राम का हुआ न कि पति राम का।


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