मुस्लिम इतिहासकारों ने भी दिए हैं मन्दिर के प्रमाण

1. हदीका-ए-शहदा, लेखक: मिर्जा जान, 1856 ई.


सन् 1855 में मुसलमान मुजाहिद अमीर अली अमेठवी ने हिंदुओं से हनुमानगढ़ी छीनने के लिए जिहाद छेड़ दिया था। इसके प्रत्यक्षदर्शी और सक्रिय सहयोगी मिर्जा जान ने सन् 1856 में ‘हदीका-ए-शहदा' नामक एक किताब लिखी जो जिहाद की असफलता के तुरंत बाद लखनऊ से प्रकाशित हुई थी। इस पुस्तक के नवें अध्याय में बाबरी मस्जिद के निर्माण का उल्लेख है : ‘अल हासिल जिस तरह मथुरा और बनारस वगैरह को खस व खाशाके कुफ्र (कुफ़्र के कूड़ा-करकट) से साफ़ किया, फैजाबाद व अवध को भी उसी तरह जलालत की नजासत (गन्दगी) से शफ्फाक (स्वच्छ) किया कि यह बड़ा परस्तिश का मुकाम था, तख़्तगाहे पिदरे राम (राम के पिता दशरथ की राजधानी) था। यहाँ के बुतखानों को तोड़ा, संगदिल बुतों को साबित न छोड़ा। जहाँ बड़ा बुतखाना था वहाँ बड़ी मस्जिद बनाई और जहाँ छोटा मंडफ़ (मण्डप) था, मस्जिदे मुख़्तसर कनाती (छोटी मस्जिद) तामीर फ़रमाई।... चुनांचे बुतखाना-ए-जन्म अस्थान अर्जे मस्कृिते रासे राम है, उसके मुत्तसिल (बगुल में) सीता रसोई है, सीता उसकी जोरू का नाम है; वहाँ कैसी मस्जिदे सर बुलन्द बाबर शाह ने सन् नौ सौ तेईस (923) में बएहतमाम (देखरेख) सैयद मूसा आशिकान बनवाई है कि उसकी तारीख खैर बाकी है। आज तक वह मस्जिद सीता की रसोई मशहूर नज़दीक व दूर है और पहलू में वह दैर बाकी है' (हदीका-एशहदा, कुतुबखाना, हबीबगंज, ज़िला अलीगढ़, 1314 हिजरी)।



यहाँ पर अवध-अयोध्या के बुतखानाए-जन्म अस्थान = जन्मस्थान-मन्दिर को स्पष्ट रूप से ‘अर्जे मस्किते रासे राम' कहा है। इसका अर्थ है : राम के पैदा होने की अर्जु=जमीन=स्थान=भूमि। अर्थात् रामजन्मभूमि।


2. जिया-ए-अख्तर, लेखक: हाजी मुहम्मद हसन, 1878 ई.


हाजी मुहम्मद हसन द्वारा लिखित 'ज़ियाए-अख्तर' नामक किताब में बताया गया है। : ‘बहुक्म जहीरुद्दीन बाबर बादशाह देहली, सैयद मूसा आशिकान ने सन् 923 हिजरी में महल सराय राजा राम चन्दर व मत्तबख (बावर्चीखाना=रसोई) बराबर करके जो मस्जिद बनवाई थी और दूसरी मस्जिद जो मुईयुद्दीन औरंगजेब आलमगीर बादशाह ने वहीं तामीर करवाई थी, ये दोनों मस्जिदें बसबब कुहन्गी के बाबजा से शिकस्त हुई (ज़िया-ए-अख्तर, नामी मुन्शी नवल किशोर प्रेस, लखनऊ, 1878 ईसवी, पृष्ठ 38)।


3. ताटीख-ए-पाटीनिया मदीनतुल अवलिया (गुनगस्त-ए-हालात-एअयोध्या अवध), लेखक : मौलवी अब्दुल कटीम, 1885


मौलवी अब्दुल करीम ने सन् 1885 में फ़ारसी में ‘तारीख-ए-पारीनिया मदीनतुल अवलिया' नामक किताब लिखी थी। उसके पोते मौलवी अब्दुल गफ्फार तर्जुमा करके ‘गुमगस्ते हालाते नाम देकर पहली बार सन् प्रकाशित करवाया था। इसमें लिखा दरगाह के मशरक तरफ़ मुहल्ला है। जिसका दूसरा नाम कोट जी भी है। इस कोट में मिन्जुमला इसके पच्छम वाले मकान पैदाइश व बावर्चीखाना (राजा राम) का था और इसअस्थान व रसोई सीता बाबरशाह ने इन मकानात (भूमिसात् करने) के बाद मस्जिद तैयार कराई। इस मस्जिद होने का सबब बाद में आएगाके मिम्बर पर हस्बे जेल तारीख बफ़रमूदए शाह बाबर कि अदलश ता काखे गरर्दू मुलाकी।


बिना कर्दे ईं महबिते कुदसियां अमीरे सआदत निशां मीर बाकी। बुवद खैर बाकी चू साले बनायश अयां कि बहुक्म बुवद खैर बाकी।


अकबर बाहशाह ने इस कोट का नाम अकबरपुर रक्खा और इस किले के अन्दर की अराजी (भूमि) को उस वक्त के मुशायख कबार (बड़े शेखों) को वास्ते कब्रगाह के अता फरमाया' (गुमगस्त-ए- हालात-ए-अयोध्या, नामी प्रेस, लखनऊ, इशायत पहली बार 1979 ईसवी, पृष्ठ 40)।


किन्तु मौलवी अब्दुल गफ्फार ने जब इसी किताब का दूसरा संस्करण सन् 1981 में प्रकाशित करवाया तो उसमें से ‘जिसका दूसरा नाम... बुवद खैर बाकी' तक की पंक्तियाँ निकाल दीं। अब इस दूसरे संस्करण में नया पाठ इस प्रकार प्राप्त होता है : ‘इस दरगाह के मशरक तरफ़ मुहल्ला अकबरपुर है। ** अकबर शाह ने इस कोट का नाम अकबरपुर रक्खा' (गुमगस्त-ए-हालात-एअयोध्या, नामी प्रेस, ख़्वाजा कुतुबुद्दीन रोड, लखनऊ, 1981 ईसवी, पृष्ठ 54)।


इन दोनों वाक्यों के बीच में * * स्टार नहीं हैं। ये यह बताने के लिए हमारी ओर से लगाए गए हैं कि इन दोनों के बीच में सन् 1979 वाले पहले संस्करण में उपर्युक्त पंक्तियाँ विद्यमान थीं जिन्हें सन् 1981 वाले दूसरे संस्करण से निकाल दिया गया है।


यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि अपने दादा मौलवी अब्दुल करीम की फ़ारसी किताब का तर्जुमा करके इसके दूसरे उर्दूसंस्करण में से उपर्युक्त पंक्तियाँ निकालनेवाला पोता वही मौलवी अब्दुल गफ्फार है जिसने अपनी 80 साल की उम्र में रिट याचिका नं. 746/1986, जिला फैजाबाद, ‘मुहम्मद हाशिम बनाम डिस्ट्रिक्ट जज फैज़ाबाद व अन्य' वाले केस में दिनांक 28.10.1986 को कथित 'बाबरी मस्जिद के पक्ष में अपना हलफनामा मा. उच्च न्यायालय, इलाहाबाद की लखनऊ पीठ में दाखिल किया था।


दूसरे संस्करण में मौलवी अब्दुल गफ्फार ‘शहर अवध में बाबर शाह की आमद' शीर्षक के अन्तर्गत बताते हैं : सुल्तान बाबर, कि जो अमीर तैमूर की नस्ल है, अपने बचपन के जमाने में खुफ़िया तौर पर लिबास तब्दील करके फ़कीरों की तरह काबुल से शहर अवध में आया। उस वक्त शहर अवध में सिकन्दर लोधी की सल्तनत थी और मुकाम सल्तनत का एक सदर मुकाम था। सुल्तान बाबर ने शाह जलाल साहिब कदस सरहा और हज़रत मूसा आशिकान की खिदमत में हाज़िर होकर बातिनी (आन्तरिक) इमदाद तलब की कि इन बुजुर्गों की दुआ से आबाई सल्तनत हिन्दुस्तान उसके हाथ आ जाए।...


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