'ॐ' : सृष्टि की प्रथम पूँज

 'ॐ'   का वर्णन सर्वप्रथम स्पष्ट रूप से ऋग्वेद (1.3.7), शुक्लयजुर्वेद (2.13, 40.15 एवं 17) आदि स्थानों में किया गया है। शुक्लयजुर्वेद में इसे दैवीय गुण अथवा लक्षण कहा गया है जिसमें तीन भावों को सम्मिलित किया गया है। मूलतः यह दो स्वरों ‘अ' एवं 'ऊ' एवं एक व्यंजन ‘म’ का मेल है जिसकी विज्ञों ने अलग- अलग सन्दर्भो में भावात्मक व्याख्या की है। उच्चारण करने के क्रम में इस संयुक्ताक्षर के तीनों अक्षर एक विशेष क्रम में प्रस्फुटित होते हैं जिसका प्रभाव जड़ और चेतन- दोनों पर पड़ता है। इसे उचित वातावरण में मंत्रोच्चार के चार विशेष नियमों का पालन करते हुए श्रद्धा, विश्वास एवं एकाग्रता से उच्चारण करने पर इससे उत्पन्न ध्वनि ऊर्जा-हर चैतन्य मनुष्य को दैवीय संसार को अनुभूत कर सकने की क्षमता देती है। इस संयुक्ताक्षर का प्रथम स्वर ‘अ’ नाभि क्षेत्र से सृजित होता है और कण्ठ से प्रस्फुटित होता है। पुनः दूसरा भाग ‘ऊ' जिल्ला क्षेत्र पर आकार लेता है और अन्त में तीसरा अक्षर ‘म’ ओठों पर समाप्त हो जाता है। इसे कई साधकों ने त्रिमूर्ति अथवा त्रिदेव का बिम्ब मानते हुए कहा कि प्रथम अक्षर 'अ' ब्रह्मा अथवा सृष्टि की उत्पत्ति का प्रतीक है क्यूंकि 'अ' अक्षर से 'ॐ' की उपत्ति होती है और मुख खुलता है। इसके उपरान्त उन्होंने अक्षर 'ऊ' को विष्णु अथवा सृष्टि के पालन का प्रतीक माना क्यूंकि इस अक्षर के पूँज की अवधि में न मुख खुला रहता है अथवा सृजित का पालन होता है। अक्षर 'म अक्षर ‘म’ को उन ज्ञानियों ने संहार एवं शिव का प्रतीक माना क्यूँकि 'म' अक्षर से इस दैवीय शब्द अथवा शब्दांश का समापन होता है एवं मुख बन्द होता है। 



 'ॐ' शब्द की इन्हीं विशेषताओं के कारण इसे अधिकांश मन्त्रों के साथ-साथ उपयोग किया गया और आध्यात्मिक रूप से पाया गया कि किसी भी मन्त्र में इसे आरम्भ में जोड़ने से मन्त्र के प्रभाव में वृद्धि हुई। इसके पीछे एक समुचित कारण भी है। किसी भी आध्यात्मिक अथवा दैवीय अनुभूति से जुड़ने के लिए शरीर के सभी चक्रों का सन्तुलन अति आवश्यक है। और जब साधक 'ॐ' का उच्चारण करता है तो इस दैवीय क्षमता से परिपूर्ण शब्द से निकली ध्वनि-ऊर्जा शरीर के सभी चक्रों को सन्तुलित करती है जिसके फलस्वरूप जड़पी शरीर चेतनरूपी परमात्मा में समाहित होने के क्रम में बाधा उत्पन्न करनेवाले विचारों, कामनाओं और संदेह से मुक्त हो जाता है। स्वर ‘अ’ नाभि क्षेत्र से उत्पन्न होकर समूचे मध्य भाग में हृदय और फेफड़े की सीमा तक अनुगुंजित होता है। पुनः स्वर ‘ऊ' पूरे हृदय-क्षेत्र को अनुगुंजित करता है। और अन्त में स्वर ‘म’ पूरे कपाल क्षेत्र को अनुगुंजित करता है। चूंकि शरीर के सभी महत्त्वपूर्ण चक्र इसी क्षेत्र में होते हैं, अतः मन्त्रों के पहले 'ॐ' शब्द के उच्चारण से शरीर के सभी महत्त्वपूर्ण चक्र सन्तुलित होते हैं और मान्त्रिक को मंत्रोच्चार और इससे उत्पन्न ध्वनि-ऊर्जा का समुचित लाभ मिलने की सम्भावना प्रबल हो जाती है।वेदों के उपरान्त उपनिषद् सबसे प्राचीन और महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ हैं जिन्हें वेदों का अन्तिम भाग एवं उच्चतम दर्शन माना जाता है। वैसे तो इनकी इनकी कुल संख्या 1,131 है और इनमें 108 को प्रमुख माना गया है। इनमें भी छांदोग्योपनिषद् को एक विशेष स्थान प्राप्त है। इस उपनिषद् के प्रारम्भ (1.1.1) में ही कहा गया है कि 'ॐ इत्येतत् अक्षरः', अर्थात् ॐ अविनाशी, अव्यय एवं क्षरणरहित है। आगे कहा गया है कि एक मनुष्य को 'ॐ' का ध्यान अवश्य करना चाहिए। पुनः प्रथम अध्याय के द्वितीय खण्ड में 'ॐ' शब्द पर चर्चा करते हुए यह वर्णन किया गया है कई इस दैवीय शब्दांश अथवा शब्द का सदुपयोग देवासुर संग्राम में भी किया गया है। छान्दोग्योपनिषद् के अनुसार 'ॐ' गीत अथवा संगीत के परम परिष्कृत, परम प्रगल्भ एवं निर्लेप अवस्था का उच्चतम एवं अपरक्राम्य स्रोत है। इस उपनिषद् के अनुसार शब्द 'ॐ' आश्चर्य, श्रद्धा एवं ज्ञान के त्रिगुणित स्थिति का प्रतीक है। 


इसी तरह कठोपनिषद् कहता है कि 'ॐ' एक पराभौतिक अवस्था है जिसमें मनुष्य कामनाओं से मुक्त होता है, जो बीत गया और जो भविष्य के गर्भ में छुपा है, से परे हो जाता है एवं निर्गुण हो जाता है अर्थात् अच्छे-बुरे से ऊपर उठ जाता है। मैत्रायन्युपनिषद् के छठे पाठ में 'ॐ' शब्द के अर्थ एवं महत्त्व पर विवेचना की गई है। यह उपनिषद् कहता है कि शब्द ॐ' ब्राह्मण-आत्मन का प्रतिनिधित्व करता है। आगे यह कहा गया है कि “ॐ' आत्मा का शरीर है और लिंग-विभेद के क्रम में इसके तीनों अक्षर क्रमशः स्त्रीलिंग, पुल्लिंग एवं नपुंसक लिंग का प्रतिनिधित्व करते हैं। प्रकाश से व्याख्या करने पर ये तीनों अक्षर अग्नि, वायु एवं आदित्य तथा ज्ञान से व्याख्या करने पर ऋग्वेद, सामवेद एवं यजुर्वेद का प्रतिनिधित्व करते हैं। माण्डूकोपनिषद् में भी 'ॐ' की पराभौतिक शक्तियों पर प्रकाश डाला गया है। यह कहता है कि 'ॐ' चेतना की सारी अवस्थाओं में प्रसारित होता है। इस उपनिषद् में चेतना की चार अवस्थाओं, जगना, स्वप्न, गहन स्वप्न और एकात्म का वर्णन किया गया है और कहा गया है कि ये चारों अवस्थाएँ ही 'ॐ' हैं।


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