उदारता का परिचय दे मुस्लिम समुदाय

भारतीय संविधान के अनुसार भारत एक पंथनिरपेक्ष गणराज्य है। पंथनिरपेक्षता का अर्थ किसी एक पंथविशेष का पक्ष लेना नहीं है। यह पूर्णतया सत्य है कि पंथनिरपेक्ष राष्ट्र में शासन-व्यवस्था पंथविशेष के आधार पर स्थापित नहीं होती और सरकार पंथ के नाम पर नागरिकों में भेदभाव नहीं करती। भारतीय संविधान के अनुच्छेदों- 25 से 27 में नागरिकों को धार्मिक स्वतन्त्रता का मौलिक अधिकार प्रदान किया गया है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी भावनाओं और विचारों के अनुसार किसी भी धर्म (पंथ) को अपनाने के लिए स्वतन्त्र है। परन्तु धार्मिक स्वतन्त्रता का प्रयोग किसी भी पंथविशेष को अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति करने के लिए नहीं करना चाहिए। यदि कोई भी पंथ किसी भी प्रकार धार्मिक स्वतन्त्रता का दुरुपयोग करके देश की आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक परिस्थितियों को प्रभावित कर अपने पंथ के लोगों का कल्याण चाहता है तो उसे इस प्रकार की आज्ञा नहीं प्रदान की जानी चाहिए। भारत में पंथनिरपेक्षता का अर्थ है सर्वधर्मसमभाव व सहिष्णुता और धार्मिक समानता की समझ।



स्वतन्त्रता के पश्चात् भारत में धार्मिक स्वतन्त्रता का राजनीतिकरण हो रहा है। अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा के नाम पर मुस्लिम-तुष्टिकरण की नीति अपनाकर राजनीतिक दल अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति कर रहे हैं। अपने देश में इस्लाम मत के लोगों का एक बहुत बड़ा पहले हिंदू था जिसे बलपूर्वक मुसलमान बनाया गया था और उनके वंशज आज भी अपने पूर्वजों पर किए गए धार्मिक अत्याचारों से आहत हैं। मुसलमान उन्हें मुस्लिम मानने के लिए तत्पर नहीं है। बाबरी ढाँचे के निर्माण और ध्वंस का प्रश्न राजनीतिक नेताओं के लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण है, परन्तु आम मुस्लमान के लिए नहीं, उसे तो भड़काया जाता है और चुनाव में अपना लाभ प्राप्त करने के लिए उकसाया जाता है; मस्जिद का प्रश्न मुसलमानों के लिए न ही भावनात्मक है। और न ही धार्मिक। भावनात्मक इसलिए नहीं है क्योंकि वहाँ इस्लाम के किसी महापुरुष का न तो जन्म हुआ था और न ही वह स्थान किसी इस्लामी महापुरुष से किसी भी प्रकार से सम्बन्धित है; इस्लामी कानून के अनुसार यह तर्क दिया जाता है। कि इस्लाम में मस्जिद का एक विशेष स्थानहै। यदि एक बार मस्जिद का निर्माण हो गया तो वहाँ प्रार्थना ‘नमाज' की जाएगी और वह स्थान सदा के लिए मस्जिद ही रहेगा और अल्लाह की संपत्ति रहेगा। (वैसे कौन-सी वस्तु अल्लाह/ईश्वर/वाहे गुरु की नहीं है?) और वह भूमि पुनः उसके मालिक को नहीं दी जा सकती। यदि एक बार मस्जिद गिरा भी दी गई तो भी वहाँ नमाज पढ़ना जारी रहेगा; परन्तु अयोध्या में श्रीरामजन्मभूमि पर पिछले कई दशकों से नमाज नहीं पढ़ी गयी। ब्रिटिश काल में मस्जिद को कोई कानूनी संरक्षण प्राप्त नहीं था और यह मर्यादा अधिनियम के अन्तर्गत थी और परिणामस्वरूप मस्जिद में मुसलमानों के द्वारा एक विशेष अधिकार को प्रतिकूल कब्जे के आधार पर समाप्त कर दिया था। प्रख्यात मुस्लिम विद्वान् एवं लेखक मुल्ला ने अपने ‘मुस्लिम विधि के सिद्धान्त (19वाँ संस्करण, द्वारा एम. हिदायतुल्ला) में कहा गया है कि एक मस्जिद पर स्वामित्व का अधिकार प्रतिकूल कब्जे के सिद्धान्त पर समाप्त हो जाता है। पंथनिरपेक्ष भारत में एक मस्जिद का स्थान दूसरे पंथ के धार्मिक स्थानों से अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं है।


राजनेता, भले ही वह हिंदू हों या मुस्लिम, श्रीरामजन्मभूमि और बाबरी ढाँचे के विषय में वाद-उत्पन्न कर राजनीति कर रहे हैं। इसके पश्चात् प्रत्येक मनुष्य इस संबंध में अपना पक्ष रखता है और एक विशेष विचार बना लेता है। मस्जिद इस्लाम को माननेवालों के लिए नमाज पढ़ने के लिए आवश्यक नहीं है। नमाज तो खुले में भी पढ़ी जा सकती है। भारत में संवैधानिक ढाँचे के अंतर्गत पंथनिरपेक्ष राज्य में मस्जिद, मन्दिर, गुरुद्वारा एवं गिर्जाघर की भूमि को जनहित के लिए अधिगृहित करने में कोई भेदभाव नहीं है। इसलिए मस्जिद दूसरे धर्मों के पूजा-स्थलों से न कम और न ही अधिक महत्त्वपूर्ण है।


स्वामी विवेकानन्द ने 1893 में शिकागो में आयोजित विश्व धर्म संसद में भाषण देते हुए कहा कि हिंदू-धर्म वह धर्म है जिसने समस्त विश्व को सहनशीलता एवं वैश्विक स्वीकार्यता की शिक्षा दी है। उन्होंने धार्मिक विभिन्नता की व्याख्या विभिन्न रंगों से निकलती हुई एक किरण के रूप में की।


अपने धर्मस्थलों को तोड़कर मस्जिद बनानेवालों के विरुद्ध भी हिंदुओं ने कभी कोई कार्यवाही नहीं की। वर्तमान में श्रीरामजन्मभूमि हिंदुओं के लिए आस्था का केन्द्र और उनकी भावनाओं का प्रतीक है। यदि देश के करोड़ों हिंदुओं का बहुमत वर्ग उस स्थान पर मन्दिर बनाना चाहता है तो मुस्लिम समाज को सहर्ष वह स्थान अपने भाइयों को रामलला का भव्य मन्दिर बनाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय की प्रतीक्षा किए बिना ही दे देना चाहिए, क्योंकि मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम एक अवतारी पुरुष थे जिनका कोई पंथ नहीं था और उनको कानूनी दाँव-पेंचों की जंजीरों में नहीं बाँधा जा सकता।


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