भारत और बृहत्तर भारत का

भारत का उत्तर-पूर्व का क्षेत्र शायद इस देश का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण क्षेत्र है। प्राकृतिक संपदा तथा सांस्कृतिक वैभव का जैसा असीम भंडार यहाँ बिखरा पड़ा है, वैसा इस देश में ही नहीं, शायद पूरी दुनिया में अन्यत्र दुर्लभ है। यहाँ विभिन्न कुलों की अनगिनत भाषाएँ, अनगिनत लोग तथा अनगिनत । संस्कृतियाँ ऐसा बहुरंगी वितान रचती हैं कि देखने-समझनेवाला मोहित होकर रह जाता है। दक्षिण-पूर्व एशियाई क्षेत्र के लिए तो यह भारतीय संस्कृति का न केवल मुख्य द्वार बल्कि एक संगम-स्थल है। इस छोटे-से क्षेत्र में 220 से । अधिक जनजातियों के लोग निवास करते हैं, और जितनी जनजातियाँ, उतनी भाषाएँ और उतनी ही संस्कृतियाँ। प्रकृति ने तो मानो अपना पूरा खजाना ही। यहाँ बिखेर दिया हो। अकेले इस क्षेत्र में 51 प्रकार के वन और असंख्य प्रकार की पादप जातियाँ हैं। नदियों, पहाड़ों, झरनों से भरा यह प्रदेश प्रागैतिहासिक काल से लेकर आज तक की नवीनतम संस्कृतियों को अपने में समेटे है।



सेतु : उत्तर-पूर्व


भारत के उत्तर-पूर्वी क्षेत्र की ब्रह्मपुत्र-घाटी का सांस्कृतिक व राजनीतिक इतिहास लगभग उतना ही पुराना है जितना पश्चिमी भारत की सिंधु-घाटी, मध्य भारत की गंगा-नर्मदा घाटी तथा दक्षिण भारत की कृष्णा-कावेरी घाटी का है। यह क्षेत्र दक्षिण एशिया की मध्य भूमि से कुछ अलग-थलग रहा है। इसलिए यह इतिहास में उसके समकक्ष स्थान नहीं बना सका, किंतु यदि यथार्थ की भूमि पर तुलना की जाए तो यह क्षेत्र अपनी विविधता में दक्षिण एशियाई किसी भी अन्य क्षेत्र से कहीं अधिक समृद्ध है। यह वास्तव में हिमाचल के दक्षिण व उत्तर एवं ब्रह्मपुत्र के पूर्व एवं पश्चिम की तमाम जनजातियों, भाषाओं तथा संस्कृतियों का संगम-स्थल रहा है। चीन से भारत तक सर्वाधिक व्यवहृत सांस्कृतिक राजमार्ग इसी क्षेत्र से होकर गुजरता रहा है। इस क्षेत्र ने प्रहरी का भी काम किया है और सेतु का भी। प्राकृतिक वैभव में तो यह विश्व का अद्वितीय क्षेत्र है ही, सांस्कृतिक व भाषाई विविधता में भी इसका एक कीर्तिमान है। इसके करीब 2 लाख 62 हजार वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में करीब 220 जनजातियों के लोग निवास करते हैं, जिनकी लगभग इतनी ही भाषाएँ हैं। इसके राज्यों (असम, मेघालय, मिजोरम, त्रिपुरा, नागालैंड, अरुणाचलप्रदेश, मणिपुर तथा सिक्किम) के पहाड़ी क्षेत्रों में वनवासियों के एकसाथ जितने नमूने देखे जा सकते हैं, उतने अन्यत्र दुर्लभ हैं। इनके अलावा इतिहास के विभिन्न कालखण्डों में तिब्बत, बर्मा (म्यांमार), थाईलैण्ड, पश्चिम बंगाल तथा बांग्लादेश से आए तमाम लोग यहाँ बसे हुए हैं जो अपने साथ अपनी भाषा, संस्कृति भी लेकर आए हैं। यदि कुछ जनजातियों के नाम गिनाएजाएँ तो शायद इनका कुछ अंदाजा लगे। इस क्षेत्र की मुख्य जनजातियों में असमी, नोआतिया, जमातिया, मिजो, रियांग, नगा, लुसाई, बंगाली, चकमा, भूटिया, बोडो, ढिमसा, गारो, गुरुंग, हजार, बियाटे, हाजोंग, खम्प्ती, करबी, खासी, कोच राजबोंग्सी (राजबंशी), कुकी, लेप्चा, मेइतेई, मिशिंग, चेत्री, नेपाली, पाइती, प्रार, पूर्वोत्तर मैथिली, रमा, सिग्फो, तमांग, तिवा त्रिपुरी तथा जेमे नगा आदि की गणना की जाती है।


 सन् 2011 की जनगणना के अनुसार इस क्षेत्र में करीब चार करोड़ सतासी लाख नौ सौ बयासी लोग निवास करते हैं जो भारत की कुल जनसंख्या के मात्र 3.8 प्रतिशत हैं। इसमें से करीब 64 प्रतिशत जनसंख्या (3 करोड़ 11 लाख से अधिक) अकेले असम में रहती है। असम में जनसंख्या का घनत्व प्रति वर्ग किलोमीटर 13 से लेकर 340 तक है। पूरे क्षेत्र में अनुसूचित जनजातियों की संख्या 160 है। पूरे क्षेत्र की 84 प्रतिशत जनसंख्या कृषि पर निर्भर है और गाँवों में रहती है। इस क्षेत्र में शिक्षा की दर (68.5 प्रतिशत) देश के बाकी हिस्सों की दर (61.5 प्रतिशत) से कहीं आगे है। जाहिर है। 


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