कामाख्या वरदे देवि! नीलपर्वत वासिनि! त्वं देवि जगतां मातयनिमुद्रे नमोऽस्तुते!!!

असम राज्य की राजधानी गुवाहाटी के समीप ही प्राचीन परमपावन कामरूप क्षेत्र अवस्थित है। ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे 200 फीट ऊँचे नीलांचल पर्वत पर इस कामरूप क्षेत्र में कामाख्या शक्तिपीठ अधिष्ठित है। तंत्र-साधना की दृष्टि से यहाँ की कामाख्या देवी का मन्दिर सर्वाधिक जाग्रत शक्तिपीठ है। अत्यन्त प्राचीन काल से ही यह क्षेत्र ज्योतिष, तंत्र और आगम का प्रमुख केन्द्र रहा है। यहाँ की प्राकृतिक सुषमा भी सुरम्य है। अतएव पर्यटन की दृष्टि से भी देश के कोने-कोने से पर्यटक एवं भक्त बड़ी संख्या में यहाँ आते रहते हैं। पहले तो यातायातकी असुविधा थी। फलतः पहुँचने में बड़ी कठिनाई होती थी। किन्तु, अब यथेष्ठ साधन उपलब्ध हैं।



वस्तुतः यहाँ का मनोहारी प्राकृतिक सौंदर्य यात्रियों और पर्यटकों को बरबस अपनी ओर खींच लेता है। लोकविश्वास है कि इसी स्थल पर सती (पार्वती) का योनिमण्डल गिरा। इससे इस पर्वत का रंग नीला हो गया । फलतः यह नीलांचल पर्वत कहलाने लगा। कालांतर में यही स्थान कामाख्या महापीठ के नाम से प्रसिद्ध हो गया। पुरातात्त्विक ग्रंथों में इस मंदिर के निर्माण की रोचक कथाएँ पढ़ने को मिलती हैं। सर्वत्रदेवी की महिमा का बखान है। देश के कोने-कोने से हिंदू-भक्त एवं अन्य पर्यटक बड़ी संख्या में आकर इस पवित्र स्थल को दोलायमान रखते हैं। वासन्ती-पूजा तथा शारदीय नवरात्र आदि त्योहारों पर भक्तजनों की भीड़ अधिक जुटती है।


कामाख्या के नील पर्वत की ऊँचाई लगभग 690 फुट है। मन्दिर 525 फीट की ऊँचाई पर है। बारह खम्बों से सज्जित इस मन्दिर में शिव-पार्वती की कामेश्वर- कामेश्वरी रूप प्रतिमा स्थापित है। इसे भोगमूर्ति भी कहा जाता है। ये मूर्तियाँ अष्टधातु की बनी हैं। प्रवेश करते ही भक्तगण पहले इसी हरगौरी प्रतिमा के दर्शन करते हैं। करीब दस सीढ़ियाँ नीचे उतरकर एक गुफा में प्रवेश करते हैं। यहाँ धूप-दीप-फूलों की सुगन्ध से गुफा महक रही है। दीपक के हलके प्रकाश में हम देवी की महामुद्रा के दर्शन करते हैं। यहीं एक शिलाखण्ड पर देवी का योनिमण्डल एक स्वर्ण टोप से ढका है। फूलों से सज्जित भी है। एक जलधार इस प्रस्तरखण्ड से बह रही है। जिसका पान और स्पर्श दर्शनार्थी कर रहे हैं। तंत्र- साधना के लिए जागृत पीठ की गुफा में मैं खड़ा हूँ। देवी के जनन अंग की पूजा यहाँ होती है, जो मातृ-शक्ति है, काम-शक्ति है। विश्व की सरसता और मधुरता का आधार है।


इस कामाख्या- शक्तिपीठ के पीछे पुराणों में एक मार्मिक कथा आती है। दक्ष प्रजापति के घर स्वर्ग की महामाया ने कन्या के रूप में जन्म लिया और शिवाराधना कर उन्हें पति के रूप में वरण किया। दक्ष अपनेजामाता शिव को पसन्द नहीं करते थे। एक बार दक्ष प्रजापति ने एक महान् यज्ञ का आयोजन किया। इस महान् आयोजन में उन्होंने 27 जामाता आमंत्रित किये, किन्तु शिव को नहीं बुलाया। जब सती ने अपने पिता के घर होनेवाले इस विशाल उत्सव के बारे में सुना, तो उसने अपने पति शिव से पिता के घर यज्ञ में जाने की बात पूछी। शिव ने सती का समझाया कि बिना निमंत्रण कहीं भी जाना अपमान है। किंतु सती के मन में अपने पिता के घर के यज्ञोत्सव को देखने की तीव्र लालसा थी। उन्होंने शंकर से बार-बार आग्रह किया कि वे उसे पिता के घर जाने की आज्ञा दें। शिव ने सती के हठ पर उसे अपने दो गणों के साथ पिता के घर भेज दिया। दिया।


जब शिवप्रिया सती अपने पिता के घर पहुँची, तो वहाँ किसी ने उसका स्वागत नहीं किया। सती ने पूरी यज्ञशाला घूमकर देखी। वहाँ सभी देवताओं के भाग थे, किन्तु शिव का भाग नहीं था। तब सती अपने पिता के पास गयी और पूछा कि हे पिता! आपने मेरे पति शिव का भाग क्यों नहीं रखा है? दक्ष प्रजापति ने उत्तर दिया कि तुम्हारे पति शिव संहारक हैं। असगुनी देवता हैं। उनका शुभ कार्य में क्या काम? यह सनते ही सती क्रोध से तमतमा उठी और हवनकुण्ड में कूद पड़ी। चारों ओर हाहाकार मच गया। शिव के गणों ने यज्ञशाला को नष्ट कर डाला। सूचना पा शिव दौड़े आए और सती की अधजली देह को कंधे से चिपटाए विक्षिप्त से इधरउधर भटकने लगे। सती के जले शरीर के अंग एक-एक करके स्थान-स्थान पर गिरने लगे। जहाँ-जहाँ ये अंग गिरे, वहाँ-वहाँ एक शक्तिपीठ बन गया। जहाँ जिह्वा गिरी, वहाँ ज्वाला जी; जहाँ वक्ष गिरा, वहाँ व्रजेश्वरी; जहाँ चरण गिरे, वहाँ चामुण्डा और चिन्तपूर्णी; जहाँ नैन गिरे वहाँ नैना देवी और जहाँ कर्णमणि गिरी, वहाँ मणिकर्णिका आदि तीर्थ बने। कामरूप आसाम के नीलांचल पर्वत पर देवी का मुख्य अंग योनिमण्डल गिरा। इसलिए यहाँ बना एक विशिष्ट जागृत शक्तिपीठ।


कामाख्या-मन्दिर में पूजा की विशिष्ट विधियाँ हैं। देवी के भक्त कबूतर की बलि देते हैं- ऐसा वहाँ के एक मित्र बतला रहे थे। मन्दिर में आषाढ़ मास के मृगशिरा नक्षत्र में एक उत्सव तीन दिनों तक मनाया जाता है। यह देवी के ऋतुमती होने का उत्सव है। यहाँ चैत्र कृष्ण तृतीया को कामेश्वर-कामेश्वरी का विवाहोत्सव बड़े उत्साह से मनाया जाता है।


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