मणिपर में हिन्दी के बढ़ते कदम

भारत-जैसे बहुभाषी देश में राजभाषा, राष्ट्रभाषा तथा सम्पर्क- भाषा के रूप में हिंदी का प्रयोग हो रहा है। हिंदी को ये पद उसकी अपनी विशेषताओं के कारण प्राप्त हुए हैं। किसी भी भाषा को जनभाषा या सम्पर्क-भाषा बनने के लिए सामाजिक आवश्यकता-पूर्ति की क्षमता, रचनात्मक शक्ति और साहित्यिक एवं कलात्मक योग्यता से परिपूर्ण होना चाहिए। हिंदी में ये सारी विशेषताएँ मौजूद हैं। इसलिए हिंदी का प्रयोग न केवल भारत, बल्कि विदेशों में भी बढ़ रहा है। कहना न होगा कि आज तकनीकी विकास के इस दौर में भी हिंदी का प्रचार-प्रसार बड़ी तेजी हो रहा है।



मणिपुर में हिंदी का प्रयोग कब और कैसे शुरू हुआ, इसका निश्चित प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं। इतना अवश्य कहा जाता है कि दसवीं और ग्यारहवीं शताब्दी के बीच भारत के प्रमुख हिंदी-प्रदेशों से अनेक ब्राह्मण मुगलों के आक्रमण से भयभीत होकर भारत के विभिन्न क्षेत्रों में चले गए थे। प्रव्रजन के माध्यम से बहुत से लोग मणिपुर भी पहुँचे, तब मणिपुरवासियों का परिचय हिंदी से हुआ। ये ब्राह्मण अपने साथ अपनी भाषा और अपनी संस्कृति लेकर आए थे, जिनके समन्वय से मणिपुर में एक नयी संस्कृति का जन्म हुआ। ईश्वर की पूजा-आराधना जैसी धार्मिक क्रियाओं में ये ब्राह्मण संस्कृत तथा हिंदी की शब्दावली का प्रयोग करते थे। इस तथ्य की जानकारी भी मिलती है कि पन्द्रहवीं शताब्दी में राजा कियाम्बा द्वारा लमलादोङ् या विष्णुपुर में स्थापित विष्णु मन्दिर में पूजा- अनुष्ठान करवाने के लिए ब्राह्मण नियुक्त किए गए थे। अठारहवीं शताब्दी में पामहैबा अर्थात् महाराजा गरीबनवाज़ द्वारा अपने शासनकाल में वैष्णव सम्प्रदाय को राजधर्म घोषित कर दिए जाने के बाद तो वैष्णव पदावली तथा जयदेव के गीतगोविन्द के पदों का गान मणिपुरी सामाजिक-सांस्कृतिक तथा धार्मिक क्रियाओं का अनिवार्य अंग बन गया। वैष्णव मतावलम्बी मणिपुरी लोगों के मन में काशी, हरिद्वार, नवद्वीप, पुरी, वृन्दावन आदि क्षेत्रों के प्रति श्रद्धाभाव जागा। इन तीर्थस्थलों की यात्रा के कारण भी हिंदी तथा यहाँ की बोलियों से मणिपुर के लोगों का परिचय बढ़ा।


अठारहवीं शताब्दी में जब अंग्रेज़ मणिपुर आए, उस समय वे अपने साथ बांग्ला तथा हिंदीभाषी कुछ अधिकारियों को भी साथ लाए थे। उनसे सम्पर्क स्थापित करने के लिए भी मणिपुर के लोगों को हिंदी की आवश्यकता महसूस हुई। उन्नीसवीं शताब्दी में महाराज चुड़ाचाँद के शासनकाल में औपचारिक शिक्षा की व्यवस्था के लिए विद्यालयों की स्थापना की गई। मेधावी विद्यार्थियों को मणिपुर से बाहर विद्याध्ययन के लिए भेजा गया। काशी, प्रयाग, नवद्वीपजैसे धार्मिक स्थलों में रहकर उन विद्यार्थियों ने संस्कृत के साथ हिंदी का भी ज्ञान प्राप्त किया। इसके साथ मणिपुर में हिंदी को प्रसारित करने में हिंदीभाषी व्यापारियों की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है।


स्वाधीनता संग्राम के दौरान जब गाँधी जी ने राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदुस्तानी की वकालत की और उसके प्रचार-प्रसार की आवश्यकता जतलाई तो विभिन्न प्रदेशों के साथ मणिपुर में भी राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी को ही मान्यता देने के पक्ष में अनेक लोग सामने आये। पं. राधामोहन शर्मा, थोकचोम मधु सिंह, ललिता माधव शर्मा और कैशाम कुंजबिहारी ऐसे ही व्यक्तित्व हैं, जिनपर गाँधी जी के विचारों का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। वास्तव में इन्हें मणिपुर में हिंदी प्रचार-प्रसार के आदि-स्तंभ के रूप में माना जाना चाहिये। आज मणिपुर में हिंदी का जो एक समृद्ध रूप देखने को मिलता है, वह सहज परिस्थितियों के कारण उत्पन्न नहीं हुआ है, बल्कि निःस्वार्थ हिंदीसेवियों की आहुतियों का परिणाम है।


हिंदी-प्रचार के प्रारंभिक समय में पं. राधामोहन शर्मा ने थोकचोम मधु सिंह के साथ मिलकर हिंदी विद्यालय स्थापित दिया और हिंदी का अध्यापन-कार्य आरंभ किया। कैशाम कुंजबिहारी ने मोइराखोम और तेरा बाज़ार में हिंदी स्कूल की शुरूआत की। आगे चलकर इन्होंने ही ‘राष्ट्रलिपि स्कूल की भी स्थापना की। सन् 1933 में इम्फाल के व्यापारी वर्ग के प्रयासों से सेठ भैरोदान के नाम पर ‘भैरोदान हिंदी स्कूल की स्थापना हुई। इनके अलावा हिंदी प्रचार और प्रसार को गति देनेवाले महानुभवों में हुइरोम अतुलचन्द्र सिंह, लाइपुबम भागवत देव, अरिबम छत्रध्वज शर्मा, डांहांमै मथियुचुङ (मेरा कबुई), हिदङ्मयुम द्विजमणि देव शर्मा, चिगाबम कलाचाँद शास्त्री आदि उल्लेखनीय हैं।


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