त्त्रिपुरा का उनकोटि तीर्थ

 भारत गणराज्य का पूर्वोत्तर भूभाग मूलतः आसाम, अरुणाचलप्रदेश, मेघालय, मिजोरम, मणिपुर, नागालैण्ड, त्रिपुरा एवं सिक्किम के रूप में जाना जाता है। यह भूभाग अनेक पौराणिक दैविक कथाओं एवं पुरातात्त्विक महत्त्व से सम्पन्न है, परंतु दुर्गम पथों एवं आवागमन की दृष्टि से सुदूर होने के कारण उतना चर्चित न हो पाया जितना इसे अपने विशिष्ट नैसर्गिक सौंदर्य, तीर्थ-महत्त्व एवं पुरातात्त्विक दृष्टि से होना चाहिए था।



भारत के इसी पूर्वोत्तर भाग में एक छोटा-सा राज्य है त्रिपुरा। इसी राज्य में स्थित है कैला शहर। इस शहर से लगभग 10 से 15 किमी दूर है 'उनकोटि तीर्थ एवं पुरा महत्त्व का स्थल। कैला शहर से यहाँ तक का मार्ग बांस के वनों से आच्छादित है तथा सर्पले रूप में है। यहाँ स्थित है पहाड़ियों के मध्य उनकोटि, इस स्थल पर असंख्य पुरातात्त्विक महत्त्व एवं पुराण-कथा से संबंधित ऐसी दुर्लभ और विशाल मूर्तियों का खज़ाना है जिसे देखकर अच्छे-से-अच्छा पुरातत्त्वविद् तथा पुराख्याता भी दाँतों तले अंगुली दबा लेता है। परंतु दुःख की बात का है कि इस दुर्लभ स्थल का अभी तक पुरासर्वेक्षण नहीं हो पाया, वर्ना विश्व- पुरातत्त्व में यह स्थान अपनी विशेषता कभी का दर्ज करा सकता था।


सदाबहार वृक्षों से आच्छादित उनकोटि का यह पहाड़ मूलतः रघुनन्दन पहाड़ के नाम से जाना जाता है और इसी में से प्रवाहित होते प्राकृतिक झरने आगे जाकर मनु नदी में रूपान्तरित हो जाते हैं। इस पहाड़ पर असंख्य देवी-देवताओं की मूर्तियाँ विशाल और आश्चर्यचकित करनेवाली हैं। इन मूर्तियों में अनेक मूर्तियाँ शिव, गणेश एवं सिंहवाहिनी दुर्गा की हैं। इन सैकड़ों पाषाण- मूर्तियों में सर्वाधिक प्रसिद्ध 'उनकोटीश्वर कालभैरव' की मूर्ति अत्यधिक भव्य एवं विशाल है। कालभैरव की इस मूर्ति के मुख की भव्यता इसी से प्रतीत होती है कि इसके दोनों कानों (कर्णो) के मध्य का अन्तर 14 हाथ का है। इसके दोनों कानों में कुण्डलों का आकार बड़े पहियों (बैलगाड़ियों के पहियों) के बराबर तो उसकी मूंछे दोनों ओर डेढ़-डेढ़ हाथ लम्बी हैं। कालभैरव के श्रीमुख की लम्बाई 30 फुट से भी अधिक है। कालभैरव, महादेव शिव के रौद्र स्वरूप एवं तन्त्रशक्ति की शैवोपासना के उद्गायक हैं। कालभैरव की इतनी विशाल मूर्ति विश्व के किसी स्थान से अब तक प्राप्त होने का कोई शोध प्रकाश में नहीं आया है।


वर्ष 1837 ई. में आसाम के भूभाग में आए भूकम्प के कारण उनकोटि की इन मूर्तियों का बहुत कुछ भाग पहाड़ों के फटने से अन्दर धंस गया था। परंतु जो कुछ भी इन मूर्तियों का शिल्प-वैभव शेष रहा, उनमें इतना प्रचण्ड कालभैरव (शिवस्वरूप) का मुख भारतभर के अब तक प्राप्त मूर्तिशिल्प में कहीं भी देखने या पढ़ने में नहीं आया है। अन्तरराष्ट्रीय पुरातत्त्वविद् ‘पद्मश्री' एवं इन पंक्तियों के लेखक के गुरुवर्य रहे डॉ. विष्णु श्रीधर वाकणकर (उज्जैन-मालवा) ने अप्रैल, 1987 में पुरा-अन्वेषण किया था और उन्होंने ही प्रथम बार इन मूर्तियों का शिल्पगत धर्म वैभव एवं पुरातत्त्व-विश्लेषण किया था। उन्होंने इस बात पर विचार किया कि एक ही स्थान पर सैकड़ों की संख्या में इतनी विशाल और कलावैभवयुक्त मूर्तियाँ पहाड़ों में उत्कीर्ण की गयीं। उन्होंने इस स्थान का दौरा कर यह विचार प्रकट किया कि यह स्थान अत्यंत दुर्गम क्षेत्र में होने के कारण धूप, हवा और मूसलाधार बारिश के प्रकोप को सता रहा। बीच के समय में आए भूकम्प से एवं 16वीं शती के मध्य में कालापहाड़ द्वारा किए गए विध्वंस से यहाँ की बहुत-सी देव-मूर्तियाँ व उनका शिल्प ध्वस्त होकर यत्र-तत्र बिखर गया था। इन शिल्प-मूर्तियों के अवलोकन सारे पहाड़ी क्षेत्र में होते है। इनमें एक पहाड़ी शिखर पर चतुर्मुखी शिवलिंग है जिसके 3 मुख स्पष्ट हैं, परंतु चौथा मुख पहाड़ के एवं पाषाणखण्ड के अपक्षय के कारण अस्पष्ट हो गया


माता-पिता, गुरु तथा अतिथिगणः


त्रिपुरी समाज में माँ को पृथिवीतुल्य तथा पिता को आकाश के तुल्य मान्यता दी गई है। वे जीवित देव माने जाते हैं तथा उनके चरण स्पर्श करके धूप, दीप, बाती के साथ विशेष पर्वो पर उनकी पूजा की जाती है। गुरु को परमात्मा की विशिष्ट रचना मानकर, उन्हें उचित सम्मन दिया जाता है। अतिथि को देवता की श्रेणी में सम्मानित किया जाता है। उन्हें 'नरुवाउ' अर्थात् नारायण' मानकर स्वादिष्ट भोजन एवं पेय पदार्थ अर्पित किए जाते हैं।


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