उत्तर-पूर्व के दो अनमोल रतन

जब किसी की प्रतिभा सामान्य l मापदण्डों से ऊपर उठ जाती है, तब वह व्यक्ति अद्वितीय होने की राह पर निकल पड़ता है। समूचे विश्व में ऐसे कई कलाकार हुए हैं जो छोटे शहरों, कस्बों और गाँवों में पैदा हुए, लेकिन अपनी लगन और मेहनत के बल पर उन्होंने पूरी दुनिया में नाम कमाया। संगीत की दुनिया में ऐसी कई विभूतियाँ हैं जिन्होंने संगीत की दुनिया को एक नयी पहचान दी। भारतीय संगीत के जड़ें बहुत गहरी हैं और यहाँ संभवतः सबसे अधिक प्रकार के संगीत गाए-बजाए जाते रहे हैं। लेकिन विगत अस्सी सालों में एक नये तरह का संगीत सर्वाधिक प्रचलित हुआ जिसे फ़िल्म संगीत या सिनेमाई संगीत कहते हैं। भारतीय फिल्म जगत् में बहुत-से ऐसे संगीतज्ञ हुए जिन्होंने आम श्रोता के हृदय को अपने संगीत से आनन्दित किया। फ़िल्म में मुख्यतः पार्श्वगायन अथवा प्लेबैक संगीत सर्वाधिक प्रसिद्ध हुआ क्योंकि इसमें तकनीक और व्याकरण की पृष्ठभूमि में भाव को प्रधानता दी गयी। पार्श्वगायन में गायक का उद्देश्य अपने लिए गाना नहीं होता बल्कि उसे उस व्यक्ति के लिए गाना होता है जिसे परदे पर दिखाया जा रहा है। यह एक जटिल बात थी जैसे परकाया प्रवेश। इन गानों को संगीतकार सुरबद्ध करते थे और संगीत-संयोजकों और वाद्ययन्त्रकलाकारों की मदद से सजाते थे। इन्हीं संगीतकारों में एक नाम था सचिन देव बर्मन (एस.डी. बर्मन) का।



सचिन देव बर्मन का जन्म त्रिपुरा के एक शाही परिवार में हुआ। शाही परिवार में जन्म लेने के बाद भी संगीत उनके हृदय में इस तरह बसा था कि वह धीरे-धीरे पढ़ाई के क्रम में ही संगीत की जादुई दुनिया में कदम बढ़ाते चले गये। शुरूआत में वह गायिकी से जुड़े और कलकत्ता में कई जगहों पर अपने गायन की प्रस्तुति दी, लेकिन दुनिया को पता नहीं था कि उनके अन्दर एक विलक्षण संगीतकार भी छुपा हुआ है। समय के साथ यह पन्ना भी खुला जब उन्होंने बांग्ला-नाटकों में संगीत देना शुरू किया। सन 1937 में उन्हें पहली बार बांग्ला-फ़िल्म में संगीत देने का अवसर मिला और उनकी दूसरी बांग्ला-फ़िल्म ‘राजकुमारेर निर्वासन' के संगीत ने बड़ी प्रसिद्धि पायी। यह सिलसिला 1944 तक चला, लेकिन उनकी यात्रा तो जैसे शुरू ही हुई थी। उनके संगीत के कई ऐसे रंग थे जिनका साक्षात्कार बंगाल के बाहर के लोगों से भी होना था। 1946 में वह बम्बई चले गये। पहली कुछ फिल्मों में उन्हें कुछ खास सफलता नहीं मिली, लेकिन 1947 में दो भाई' फिल्म के गीत- 'मेरा सुन्दर सपना बीत गया' को अच्छी शुरूआत मिली। इसके बाद फिल्म ‘शबनम का एक गीत- ये दुनिया रूप की चोर' भी बहुत लोकप्रिय हुआ। उनकी यात्रा का सबसे अहम हिस्सा 'नवकेतन फिल्म्स' था जहाँ से उन्हें उड़ान मिली। ‘अफसर' और ‘बाज़ी' नवकेतन फिल्म्स के साथ उनकी पहली दो फिल्में थीं। 'बाजी' फिल्म के गीत- ‘तदबीर से बिगड़ी हुई तकदीर बना ले' ने श्रोताओं बीच विशेष जगह पायी जिसमें चले आ रहे भारतीय संगीत-संयोजन से हटकर ‘ब्लूज़ संगीत' का रंग चढ़ा था। इसके बाद टैक्सी ड्राइवर', 'नौ दो ग्यारह', 'कालापानी’, ‘मुनीम जी' और 'पेईंग गेस्ट' के गानों ने उन्हें आज के मुम्बई और उस समय के बम्बई का स्थापित संगीतकार बना दिया। उन्होंने गुरुदत्त की दो ऐसी फिल्मों में संगीत दिया जो मील के पत्थर साबित हुआ। ये फिल्में थीं- 'प्यासा' और 'कागज़ के फूल' जिनके गाने आज भी लोग बड़े चाव से सुनते हैं। 1955 में बनी 'देवदास' का संगीत भी उन्होंने ही दिया था। इसके साथ-साथ ‘हाउस नम्बर 44', 'फन्टूश', ‘सोलहवाँ साल में भी उन्होंने अपने संगीत का जादू बिखेरा। एक गीत - ‘जलते हैं। जिसके लिए', जो रॉय की सुजाता फ़िल्म थी, ने संगीत जगत् में अपनी मधुरता की अमिट छाप छोड़ी। इसके साथ-साथ एक गायक के रूप में भी अपनी अनोखी आवाज़ के कारण उन्होंने अपनी अलगपहचान बनायी। ‘मेरे साजन हैं उस पार' (बन्दिनी) - 1963, ‘वहाँ कौन है तेरा' (गाइड) - 1965-जैसे गीतों ने गम्भीर पार्श्वगायन में एक नया पन्ना जोड़ा। एक सुकून, एक तरह का प्रवाह और इन दोनों के बीच सचिन देव बर्मन की लोकशैली से ओतप्रोत आवाज़ ने श्रोताओं को दीवाना बनाया। फ़िल्म ‘आराधना' -1969 के गीत - ‘सफल होगी तेरी आराधना के लिए उन्हें सर्वोत्तम पार्श्वगायक का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला।


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