विज्ञान एवं अध्यात्म की दूटी को पाटने का कार्य

 शिक्षाविद् प्रायः अधूरी एवं अपुष्ट जानकारी (सूचनाओं) को अज्ञान की, सुव्यवस्थित जानकारी को ज्ञान की, ठोस ज्ञान को बुद्धिमत्ता की, ठोस बुद्धिमत्ता को व्यावहारिक ज्ञान की तथा ठोस व्यावहारिक ज्ञान को संपूर्ण ज्ञान की श्रेणी में स्थान देते हैं। परंतु विचारणीय विषय है कि हमें अपने अंदर की ओर झाँकने, अपना मूल्यांकन करने की प्रेरणा कहाँ से प्राप्त होती है? यह प्रेरणा अस्थिर मस्तिष्क से, रचनाशील मस्तिष्क से, अनुशासित मस्तिष्क से, अथवा सुसंस्कारित मस्तिष्क में से किससे प्राप्त होती है? प्रत्येक व्यक्तित्व के वैयक्तिक स्तर का ध्यान रखते हुए भी अधिकांश व्यक्तियों के बारे में हम कह सकते हैं कि यह प्रेरणा ‘आंतरिक' है। यह भी अनुभव किया गया है कि अधिकांश लोग ‘आरंभिक स्थिति से ही आगे बढ़ना बंद कर देते हैं। कुछ लोग ही इस चिन्तन की प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हैं। इस प्रक्रिया में अन्तिम उत्तर यही मिलता है। हमें अंतःप्रेरणा से ही मार्गदर्शन मिल रहा है।'



अगला प्रश्न उठता है, यह ‘अंतःप्रेरणा' या ‘स्वतःप्रेरणा' क्या है? मुझे पूर्ण विश्वास है कि हमें ‘आंतरिक शक्ति' ही प्रेरित करती है। हम सबमें अपार शक्तिपुंज है। यही आंतरिक शक्ति हमारे अंदर विचार एवं संवेदनाएँ उत्पन्न करती है तथा हमें अपने स्थान पर अपना कर्तव्य पूर्ण करने की प्रेरणा देती है। यह आंतरिक शक्ति प्राणिक शक्ति कहलाती है तथा यह महानतम शक्ति है। यद्यपि सभी में यह शक्ति समान रूप से विद्यमान है, तथापि प्रत्येक व्यक्ति बाह्य रूप से इसका प्रदर्शन सीमित रूप से ही करता है। विभिन्न व्यक्तियों में इस शक्ति को बाह्य रूप से प्रदर्शित करने की क्षमता' विषय ‘खोज का विषय है जिसमें भौतिकविज्ञान हमारी सहायता कर सकता है।


भौतिकविज्ञान तथा अध्यात्म- दाना में भौतिकविज्ञान तथा अध्यात्म- दोनों में ही इस प्रश्न का उत्तर देने की अलग विधियाँ हैं। प्रश्न है कि विभिन्न लोग अलग-अलग ढंग से क्यों सोचते हैं? उनके स्वभाव, रुचियाँ तथा क्षमताएँ अलग-अलग क्यों हैं? भौतिकविज्ञान इन विभिन्नताओं का कारण परिस्थितियों तथा उनके पास उपलब्ध साधनों को मानता है तथा अध्यात्मविज्ञान कर्मचक्र', विकास की प्रक्रिया तथा जन्म- जन्मान्तर के संस्कारों की पूँजी को मानता है। अतः भौतिकविज्ञान के लिए चुनौती है। कि वह समय स्पेस (नभमण्डल), चेतनता के समग्र अध्ययन को अपने कार्यक्षेत्र में स्थान दे तथा इन विषयों के अपने अध्ययन एवं अनुभव को व्यक्त करे। हम यह मानते हैं कि भौतिकविज्ञान में प्रथम दो क्षेत्रों में पर्याप्त शोध-कार्य करने की अत्यंत आवश्यकता है। यद्यपि भौतिकविज्ञान के क्षेत्र के विषय में सोच में कुछ परिवर्तन आया है, तथापि विज्ञान एवं अध्यात्म के बीच की दूरी को पाटने के लिए भौतिकविज्ञान को उस क्षेत्र में सक्रियता से शोध-कार्य करना होगा जो क्षेत्र अब तक केवल अध्यात्म के अंतर्गत माने जाते रहे। हैं। इस संदर्भ में मानसिकता में परिवर्तन लाने के लिए एक साहसी एवं दूरदर्शी नेतृत्व की सहायता की आवश्यकता है।


मानव शरीर में अपार आंतरिक शक्तियाँ हैं, परंतु इच्छाशक्ति अस्थिर (लचकीली) (फ्लैक्सिबल) है। मनुष्य की इस मिश्रित प्रकृति ने उसे अन्य प्राणियों से अलग पहचान दी है। मनुष्य जहाँ दूरदर्शिता की सोच से काम करता है, वहां अन्य प्राणी (पशु) केवल स्वाभाविक प्रवृत्तियों के वशीभूत होकर सभी क्रियाएँ करते हैं। मनुष्य अपनी इच्छाशक्ति के आधार पर कार्य करने के लिए स्वतंत्र है, परंतु उचित रूप से विकसित न होनेवाले मनुष्य भी केवल प्रवृत्तियों के अधीन ही काम करते हैं। उनके लिए यह स्थिति दुःखदायी । होती है। विचारों के समान प्रवृत्तियों में भी सुधार हो सकता है। विज्ञान इस दृष्टि से सहायक हो सकता है।


अध्यात्म में उपलब्ध सिद्धान्त एवं क्रियाओं से आत्मजागृति होती है। संभव है। अध्यात्म की जटिलताओं एवं अध्यात्म गुरुओं द्वारा गोपनीयता अपनाने के कारण अतीत काल में इस ज्ञान को सामान्य व्यक्ति की पहुँच से बाहर रखा गया होगा । परंतु अब ‘गिरि पंथ' के परम गुरु ‘महावीर बाबा ने अध्यात्मज्ञान क्रियायोग को सामान्य व्यक्ति तक पहुँचाने की अनुमति प्रदान कर दी है।


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