भारत की इस सहिष्णुता से मैं स्तब्ध हूँ

यह हमारे देश की विडम्बना ही है कि भारत को लूटने-खसोटनेवाले और हजार वर्षों तक गुलाम रखनेवाले अरब, तुर्क, पठान, मुगल और अंग्रेज़ साम्राज्यवादी आक्रांताओं के नाम पर रखे गए भवनों और सड़कों आदि के नाम स्वाधीनता के बाद भी ‘सेक्युलरिज्म' के नाम पर बड़ी बेशर्मी से न केवल ढोए जा रहे हैं अपितु दासता तथा पराधीनता के इन चिह्नों को भारत की राष्ट्रीयता, स्वतंत्रता तथा एकता का प्रतीक मानने का प्रयास किया जा रहा है।



चोटी, एक अंग्रेज सर्वेक्षक के नाम से माउंट एवरेस्ट बन गई । रामसेतु को 'एडम्स ब्रिज़' कहा जाने लगा। 1857 के अनेक क्रूर सेनापतियों के नाम से अण्डमान द्वीप के सहायक टापुओं को जोड़ दिया। यूरोज, ओटुम, हेवलॉक, निकल्सन, नील, जॉन लारेंस, हेनरी लॉरेंस आदि के नामों से उन्हें आज भी पुकारा जाता है। अंग्रेजों ने 1912 में दिल्ली को राजधानी बनाई और लाल किले को ब्रिटिश सैनिकों की छावनी बना दिया गया। शासनतंत्र को चलाने के लिए सर एडविन ल्युटिंयस के द्वारा अनेक नये भवनों का निर्माण कराया गया। यह बड़े आश्चर्य की बात है कि लगभग एक हजार साल की गुलामी के बाद भी इन्हें आजादी का प्रतीक-स्थल समझा गया। सन् 1191 में विश्वप्रसिद्ध नालन्दा विश्वविद्यालय को जलाकर नष्ट करनेवाले बख़्तियार खिलजी के नाम पर पटना के पास ‘बख्तियारपुर शहर और स्टेशन अभी भी विद्यमान है। यह हमारे देश पर एक कलंक है। इसी प्रकार हमारे उपनगरों व सड़कों के नाम (विशेषकर राजधानी दिल्ली में) विदेशी लुटेरों और भारतविरोधी तत्त्वों के नाम पर रखे गए हैं, जैसे- तुगलक रोड, लोदी रोड, लोदी कॉलोनी, अकबर रोड, शाहजहाँ रोड, जहाँगीर रोड, जहाँगीर पुरी, मंगोलपुरी, लॉर्ड मिंटो रोड, लॉरेन्स रोड, चेम्सफोर्ड रोड, डलहौजी रोड, आर्थर रोड, लुटयन्स जोन, आदि-आदि।


यह सर्वविदित है कि पहले मुस्लिम पठानों तथा मुगलों ने भारत की हजारों कलाकृतियों, विशाल मन्दिरों, राजमहलों, विश्वविद्यालयों का ध्वंस किया। बाद में इनके खण्डहरों पर अनेक मकबरों, मस्जिदों, किलों तथा भवनों का निर्माण किया। भारत के विभिन्न क्षेत्रों में ऐसे अनेक स्थान है जहाँ आज भी अनेक भग्नावशेषों को देखा जा सकता है। उदाहरण के लिए दिल्ली की कुतुबमीनार, अजमेर में ढाई दिन का झोपड़ा, ताजमहल, फतेहपुर के भवन तथा दिल्ली का लालकिला है। सोमनाथ मन्दिर पर न जाने कितनी बार आक्रमण हुए। काबुल से कन्याकुमारी तक आज भी सैकड़ों नगरों, कस्बों, ग्रामों के नाम, मुख्य सड़कों के नाम इन्हीं बदले नामों से जाने जाते हैं। अंग्रेज़ शासकों ने भी धूर्ततापूर्ण तथा बेशर्मी से जहाँ जान-बूझकर मुस्लिम-कुकृत्यों को संरक्षण दिया, वहीं अनेक स्थानों, सड़कों, भवनों को अपने नाम से जोड़ा।


काशी की ज्ञानवापी मस्जिद, मथुरा में श्रीकृष्णजन्मभूमि पर बनी ईदगाह और देश के चालीस हज़ार मन्दिरों को तोड़कर बनाई गई मस्जिदें राष्ट्रीय अपमान और गुलामी की प्रतीक हैं। औरंगजेब को काशी और मथुरा में मस्जिद बनाने के लिए और भी काफ़ी स्थान थे। बाबर को भी मस्जिद बनाने के लिए पूरी अयोध्या थी, लेकिन उसने श्रीरामन्मभूमि मंदिर को ध्वस्त कर उसी स्थान पर मस्जिद का ढाँचा खड़ा करने की कोशिश की। इसी तरह औरंगजेब ने भी ज्ञानवापी मन्दिर तथा श्रीकृष्णजन्मभूमि मन्दिर के स्थान पर ही मस्जिदें बनवायीं। स्पष्ट है कि ये मस्जिदें विदेशी हमलावरों की विजय और भारत की हार तथा अपमान के स्मारक हैं। कोई भी स्वाभिमानी और स्वतंत्र राष्ट्र गुलामी की निशानियों को सहेजकर नहीं रखता, बल्कि उन्हें नष्ट कर देता है।


गुलामी की इन निशानियों को सहेजकर रखने का दूरगामी दुष्परिणाम यह हुआ कि भारतीय इतिहास में विदेशियों से सतत संघर्ष करनेवाले अनेक योद्धाओं के क्रियाकलापों तथा उनके स्थलों को विस्मृत करने का योजनापूर्वक प्रयास हुआ। उदाहरणार्थ : बप्पा रावल, राणा सांगा, महाराणा प्रताप की संघर्ष-स्थली चित्तौड़गढ़, हिंदवी स्वराज्य के संस्थापक शिवाजी की जन्मभूमि शिवनेरी का दुर्ग तथा उनका राज्याभिषेक-स्थल रायगढ़ का दुर्ग, खालसा-पंथ के निर्माता गुरु गोविन्द सिंह के आनन्दपुर साहब को इतिहास के पन्नों से निकालकर, कुछ सेकुलरवादी तथा वामपंथी लेखकों ने इन महानायकों तथा उनके पवित्र तथा शौर्य-स्थलों को राष्ट्रीय धरोहर के रूप में प्रस्तुत नहीं किया। बाबर, अकबर, औरंगजेब को उन्होंने संस्कृति का महान् सन्देशवाहक, उदात्त भावनाओं का परिचायक तथा ‘जिंदा पीर' तक कह डाला।


पोलैण्ड ने रूसियों द्वारा निर्मित चर्च को ध्वस्त किया


विश्वप्रसिद्ध अंग्रेज़ इतिहासकार आर्नोल्ड टॉयन्बी (1889-1975) सन् 1960 में ‘अबुल कलाम आजाद स्मृति व्याख्यानमाला' में व्याख्यान देने के लिए दिल्ली आये। ‘एक विश्व और भारत' विषय पर उनके तीन व्याख्यान हुए। ये व्याख्यान पुस्तकाकार प्रकाशित हुए हैं। इन भाषणों में टॉयनबी ने पोलैण्ड का एक उदाहरण दिया किया कि किस प्रकार पोलैण्ड ने स्वाधीन होते ही रूसियों द्वारा बनवाए गए चर्च को ध्वस्त कर दिया। टॉयन्बी के शब्दों में, ‘सन् 1914-15 में रूसियों ने पोलैण्ड की राजधानी वास को जीत लिया तो उन्होंने शहर के मुख्य चौक में ‘अलेक्जेंडर नेवस्काई कैथेडेल' नामक एक विशाल चर्च बनवाया। रूसियों ने यह पोलैण्डवासियों को निरन्तर याद करवाने के लिए बनवाया कि पोलैण्ड में रूस का शासन है। जब पोलैण्ड 1918 में आज़ाद हुआ तो पोलैण्डवासियों ने पहला काम उस चर्च को ध्वस्त करने का किया, हालाँकि नष्ट करनेवाले सभी लोग ईसाइयत को माननेवाले ही थे। मैं जब पोलैण्ड पहुँचा तो चर्च ध्वस्त करने का काम समाप्त हुआ ही था। 


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