देवालयों का दुर्लभ स्थापत्य-विधान

विश्व में भारत को देवालयों के स्थापत्य के लिए जाना जाता है। दक्षिण में विशाल गोपुर और उत्तर में सभामण्डप की रचना लिए ये देवालय इतने भव्य और नयनरम्य बने हुए हैं कि देखनेवाला मुग्ध होकर पाँव उठाना ही भूल जाता है। भारतीय स्थापत्य में दक्षिण के देवालयों के रचना-विधान को द्राविड़-शैली और उत्तर के विधान को नागर-शैली कहा गया है। इन देवालयों के निर्माण के संबंध में अनेक ग्रंथों की रचना हुई है जिनमें शैव और वैष्णवागम तो प्रमुख हैं ही,उत्तरी उत्तरी भारत में शिल्पप्रकाश, विश्वकर्माप्रकाश, अपराजितपृच्छा, समरांगणसूत्रधार, जयपृच्छा, दीपार्णव, क्षीरार्णव, वास्तुतिलक, प्रासादमण्डनम् इत्यादि और दक्षिण भारत में मानसार, मयमतम्, देवालयचंद्रिका, शिल्परत्नम् आदि भी प्रमुख हैं। शिल्पियों ने नियमों के पालन में न केवल दक्षता का परिचय दिया वरन् अतिशय श्रद्धा भी प्रदर्शित की है।



प्रसिद्ध शैवशास्त्र ‘कामिकागम' में प्रासादों की छह कोटियाँ निर्धारित की गई हैं, इनका अन्यत्र भी विवरण यथारूप मिलता है- 1. नागर, 2. द्राविड़, 3. वेसर, 4. वराट, 5. कलिङ्ग तथा 6. सर्वदेशी। ये सभी देवालय देशानुसार निर्धारित कहे गए हैं- नागरः पूर्वदेशे च कर्णाट द्रविड़ः स्म व्यन्तर पश्चिमे देशे वेसर उत्तरापथे। कलिङ्ग देशे यामुन सर्वतः स्थितः देश जातिश्च कथिता कुलस्थान बलोद्भव॥ द्राविड़ शैली के मन्दिर हमें सुदूर दक्षिण से लेकर अधिकतम औरंगाबाद के एलोरा तक दिखाई देते हैं।


इनकी अनेक भूमियाँ नाना देवों का प्रतिनिधित्व करनेवाली मानी जाती हैं। शीर्ष छत का आकार वृत्त, चौकोर, छह या आठ पहलू होता है। इनमें शीर्ष को अल्प या क्षुद्र विमान कहा जाता है। महाबलीपुरम् के समुद्रतटीय मन्दिर, तंजावुर के बृहदीश्वर मन्दिरों में इस शैली का स्वरूप दिखाई देता है। पल्लव, चोल, पाण्ड्य, पश्चिमी गंग व होयसल-राजवंशों ने इस शैली के विकास में योगदान किया है। काञ्ची के पल्लवशासक दक्षिण के प्रारंभिक राजवंशों में रहे हैं। सिंहविष्णु का पुत्र महेंद्रवर्मन-प्रथम वह पहला शासक था जिसने तमिलप्रदेश में शैल गुहा वास्तु का प्रवर्तन किया। मंड़गपट्टू में महेंद्रवर्मन का एक अभिलेख मिला है जिससे ज्ञात होता है कि पहली बार उसने ईंट, धातु, लकड़ी और गारे की अपेक्षा पत्थर को काटकर मंदिर का निर्माण करवाया था- एतद अनिष्टकं अनुमं अलौहं असुधं विचित्रचित्तेन निर्मापितं नृपेण ब्रह्मेश्वर विष्णुलक्षितायतनम्। पाण्ड्यों ने वास्तुकला व मूर्तिकला सहित चित्रकला में पल्लव-कला को आदर्श के रूप में अंगीकार किया है। विजयनगर काल में चेर देश में मन्दिर-निर्माण की क्रिया खूब फली-फुली। शुचींद्रम् के स्थाणुनाथ मन्दिर व त्रिवेंद्रम् के पद्मनाभस्वामी मंदिर में साज- सजा पर खूब ध्यान दिया गया है। तिरुंनंदिक्कररै व त्रिकोटित्तनम् केंद्रों के देवालयों में विशेष तरह की स्थानीय भूमि योजना व शिखर का प्रयोग दिखाई देता है।यहाँ मुख्य रूप से इकहरे और दोहर शिखरान्वित गोल प्रासाद हैं। ये मालाबार इलाके की अपनी विशेषताएँ लिए हैं।


दसवीं शताब्दी के आरम्भ से द्राविड़- शैली के मन्दिरों का सर्वाधिक प्रचलन देखने में आता है। जबकि परान्तक प्रथम (907-947) के शासनकाल में तिरुचिरापल्ली जिले में बने प्रासाद, राजराज चोल के समय के मन्दिर, बृहदीश्वर मन्दिर आदि इस शैली के जीवन्त प्रमाण हैं। बृहदीश्वर मन्दिर 1010 ई. में पूर्ण हुआ जिसमें ललितकलाओं का अद्भुत समन्वय देखा जा सकता है। इस शैली में मन्दिर के चतुर्दिक् प्राकार व विशाल गोपुर, सन्धार- जैसी विशेषताएँ भी मिलती हैं।


नाना देवालयों का स्वरूप :


मयमतम् में कहा गया है कि यदि प्रासाद चौकोर या आयताकार हों तो वे ‘नागर' कोटि के अन्तर्गत कहे जाते हैं


चतुरश्रायताश्रं यन्नागरंपरिकीर्तितम् । इसी प्रकार शिखर पर स्थूपि के अन्त तक की रचनावाले प्रासाद ‘नागर' कहे जाते हैं- स्थूप्यन्तं चतुरश्रं यन्नागरं परिकीर्तितम्॥ द्राविड़-शैली के मन्दिरों की स्थापत्य-रचना, नागर-शैली से किञ्चित भिन्न होती है। इन मन्दिरों का आधार भाग वर्गाकार होता है तथा गर्भगृह पर सीधा पिरामिड आकार का शिखर होता है। इस शिखर पर विभिन्न भूमियाँ होती हैं। शीर्षभाग गुम्बदाकार, छह या आठ पहल का होता। है। ये विस्तृत प्रांगण या अजिर वाले व पर्याप्त ऊँचाई लिए होते हैं। प्रांगण में छोटेबड़े अनेक मन्दिर, कक्ष, जलस्रोत होते हैं। इनमें प्रांगण का मुख्य प्रवेशद्वार ‘गोपुर संज्ञक होता है। मयमतम् के अनुसार अष्टकोणाकार और षट्कोणाकार प्रासाद जो कि लम्बवत्, आयताकार होते हैं, ‘द्राविड़ कोटि के प्रसाद होते हैं- अष्टाग्रं च षडश्रे च तत्तदायाममेव च। सौधं द्राविडमित्युक्तं...॥ इसी प्रकार ग्रीवा से लेकर समापन तक अष्टाकार विमान 'द्राविड़ शैली का होता है- ग्रीवात् प्रभूति वस्वत्रं विमानं द्रामिळं भवेत्। ऐसे प्रासाद जो वृत्तायत, ह्यश्र अथवा वृत्ताकार हों (मिलेजुले) 'वेसर' शैली के प्रासाद कहे जाते हैं- वृत्तं वृत्तायतं यत्रं वृत्तं चान्ये प्रकथ्यते। और, ग्रीवा से लेकर आगे तक की रचनाएँ वृत्ताकार हों तो वह प्रसाद ‘वेसर' संज्ञक होता है-


ग्रीवात् प्रभृति वृत्तं यद् वेसरं तदुदाहृतम्॥


सर्वांग सुंदरता पर जोर :


मय का निर्देश रहा है कि हरप्रासाद (शिवालय) को प्रदक्षिणावृत्तपूर्वक बनाया जाना उचित है। इस प्रकार से बनवाए गए। देवालय, विमान सम्पदा प्रदान करते हैं। प्रासादों को सदा कूट, नीड, तोरण, मध्यभद्र सहित या रहित बनवाया जा सकता है


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