द्वादश ज्योतिर्लिंग प्राचीन अणुशक्ति-केन्द्र हैं!!!

हम जिन्हें बारह ज्योतिर्लिंग कहकर पूजते हैं, वे वैदिक प्रणाली के प्रसिद्ध ऊर्जा-केन्द्र थे। इसी कारण अनादिकाल से वे श्रद्धा और भक्ति के केन्द्र बन गए थे। ये ज्योतिर्लिंग इस प्रकार हैं- 1. सोमनाथ, 2. मल्लिकार्जुन, 3. महाकालेश्वर,4. ओंकारेश्वर, 5. वैद्यनाथ, 6. नागेश्वर, 7. केदारेश्वर, 8. त्र्यंबकेश्वर, 9. रामेश्वर, 10. भीमाशंकर, 11. विश्वेश्वर और 12. घृष्णेश्वर।


प्रत्येक आस्तिक हिंदू के मन में इन पीठों के प्रति गहरी श्रद्धा और भक्तिभाव होता है। इसी कारण जीवन में कम-से-कम एक बार उन सबके दर्शन करने को वह उत्सुक होता है।



वर्तमान सार्वजनिक धारणा यह है कि उन स्थानों की बड़ी आध्यात्मिक पवित्रता है तथापि अन्य कई प्रमाणों से स्पष्ट होता है कि वह भयपूर्ण, गंभीर श्रद्धाभाव इसलिए है कि वे किसी प्राचीन युग के ऊर्जा केन्द्र रहे हैं।


उन सारे स्थानों पर लंब गोलाकार शिवलिंग प्रतिष्ठित हैं। उस आकार पर विचार कीजिए। मुम्बई नगर के ट्राम्बे विभाग में जो अणुभट्टी है, उसका आकार पूर्णतया एक विशाल शिवलिंग जैसा ही है।


शिवलिंग जिस शिला पर गाड़ा जाता है, उसशिला पर तरंग दर्शाए जाते हैं। वैसे ही अणु- रेणु के भ्रमण-मार्ग आधुनिक पदार्थविज्ञानशास्त्र (भौतिकशास्त्र) की पुस्तकों में भी दिग्दर्शित होते हैं।


'शिव' यानि पवित्र और 'लिंग' यानि चिह्न। शिव यह शक्ति का पति कहलाता है। शिव बड़ा शक्तिमान होता है। शिव बड़ा क्रोधी भी होता है। सभी का कल्याण करा सकनेवाली शिव की शक्ति होती है। अणुशक्ति में भी कई प्रकार के जनकल्याण साधने की क्षमता होती है।


किन्तु वही कल्याणकारी शक्ति कहीं से अनियंत्रित होकर बहने लगी, तो वह सर्वनाश कराती है। शिव का भी वैसा ही है। वे यदि क्रुद्ध हो गए, तो उनके तृतीय नेत्र से झरनेवाला तेज सारे विश्व को नष्ट कर सकता । शिवजी जब ताण्डव-नृत्य करते हैं, तो पंचमहाभूतों के मंथन से सृष्टि काँप उठती है। अणुशक्ति का ताण्डव उसी भयानक प्रकार का होता है।


महाभारत के समय उन 12 केन्द्रों से अणुशक्ति का उत्पादन होता था। यदि आधुनिक वैज्ञानिक साधनों से उन स्थानों की आणविक जाँच करवाकर पता लगाया जा सकता है तो लगाया जाये। 


ऑस्ट्रेलिया नाम भी प्राचीन अस्त्रालय नाम है। वह सारा प्रदेश वीरान अनुपजाऊ बनने का कारण अणू-विस्फोट हो सकते हैं। आधुनिक कसौटियों से उसकी भी जाँच करा ली जाये। जाये। ज्योतिर्लिंग' शब्द से स्पष्ट है कि उन केन्द्रों से तेज या ऊर्जा की ज्योति निकलती थी। अमेरिका में भी लिवरमोर नगर में जहाँ लेज़र नाम की बड़ी शक्ति मान ज्योति प्रकट की जाती है, उस यंत्रण्य को भी अमेरिकावालों ने ऐतिहासिक योगायोग से शिव नाम ही दिया है।


संस्कृत में आकाशस्थ तारकादि को जो दिव्य तेज होता है, उसे ज्योति कहा जाता है। लिंग का चिह्न ऐसा भी अर्थ है और उससे उत्पादन-क्षमता भी प्रतीत होती है।


शिव को त्रिअंबक (त्र्यंबक) यानी तीन चक्षुवाला कहते हैं। शिवजी का तृतीय नेत्र यदि क्रोध में खुल गया, तो उससे निकलनेवाले तेज की किरणें सारी सृष्टि को पिंघला सकती हैं या भग्न कर सकती हैं। यूनानी कथाओं में ललाट के मध्य में ऐसा ही विनाशक चक्षु होनेवाले राक्षसों का उल्लेख है। उन्हें सायक्लोप्स कहा जाता था। मनुष्य की आत्मा वहीं होती है। वही सारी शारीरिक क्रियाओं का संचालन और नियंत्रण करती है।


ब्रह्मा-विष्णु-महेश त्रिमूर्ति में अंतिम विनाश का कार्य शिवजी के तृतीय नेत्र की ज्वाला से होता है। अणुशक्ति का सदुपयोग और दुरुपयोग भी जिस प्रकार हो सकता है, वैसे ही शिवजी की कृपादृष्टि से कल्याण और वक्रदृष्टि से विनाश होता है।


शिव की उस सर्वनाशी शक्ति के कारण उसे महाकाल भी कहते हैं। शिवजी को महाप्रलयंकारी भी कहा जाता है।


आधुनिक वाक्प्रचार में विद्युत या अन्य किसी भी ऊर्जा को ‘पावर' यानि याक्ति या ऊर्जा कहते हैं। वह वैदिक परिभाषा का ही तो शब्द है। पार्वती, दुर्गा, भवानी, चण्डी को शक्ति भी कहते हैं। इसीलिए उसके भक्तों को ‘शाक्त' कहते हैं।


भगवान् शिव का कोप होता है, तो वे रुद्रावतार धारणकर तृती रुद्रावतार धारणकर तृतीय नेत्र से आग उगलते हैं। उसी को रौद्र यानी भयानक रूप कहते हैं। उस समय महाप्रलय होने की संभावना होती है। अतः शिव को महाप्रलयंकारी भी कहा गया है। उस समय अनेक प्रकार की भयानक ध्वनि होने लगती है, अतः उस अवस्था का ‘भैरव' यानी ‘भय-रव' भी नाम पड़ा है।


शक्ति की उपासना करनेवाले लोग मृत व्यक्तियों की हड्डी और मुण्डों की माला गले में पहनते हैं। भयानक शक्ति-साधना का वह बोध-चिह्न था। 


आगे और-----