हम्पी : जहाँ पत्थरों से निकलते हैं संगीत के स्वर

 दक्षिण में विजयनगर साम्राज्य लगभग ५ दो सौ साल तक यानी सोलहवीं शताब्दी के मध्य तक फला-फूला। जब यह राज्य शिखर पर था तो इसकी सीमाएँ कृष्णा नदी के किनारे से शुरू होकर एक ओर बंगाल की खाड़ी और दूसरी ओर अरब सागर तक फैली हुई थीं। वस्तुतः एक राज्य नहीं, अपितु एक महान् साम्राज्य था। इसी साम्राज्य की राजधानी के अवशेष मध्य कर्नाटक में हम्पी के आसपास लगभग दस किलोमीटर के दायरे में फैले हुए हैं। सम्प्रति महान् पुरातात्त्विक अवशेषों को समेटे हुए हम्पी एक छोटा-सा गाँव है, जो पर्यटन के बोझ में शहर बनने की कोशिश कर रहा है। इस गाँव की स्थायी आबादी दो हजार से अधिक नहीं है, लेकिन किसी भी समय यहाँ कम-से-कम 1000 पर्यटक और तीर्थयात्री अवश्य बने रहते हैं। सर्दियों में, जो पर्यटन और तीर्थयात्रा के लिये सबसे अच्छा समय माना जाता है, यहाँ प्रतिदिन पर्यटकों की संख्या 2000 से ऊपर पहुँच जाती है और लगभग हर घर का एक हिस्सा गेस्टहाउस बन जाता है।



हम्पी ऐतिहासिक ही नहीं कलात्मक वस्तुओं का एक संग्रहालय ही है। कई कोस में बिखरी शिल्प वस्तुएँ अचंभित करनेवाली हैं। दस्तकारी का बेहतर नमूना बेजान पत्थरों पर साफ दिखता है मानो पत्थरों में जान डाल दी गई हो। बेहतरीन शैली छोटी वस्तुओं मे दिखती है तो बड़े मण्डपों में भी। इन अनोखी चीजों को जब सैलानी देखते हैं। तो बरबस मुँह से वाह निकल आती है। इस पूरे गाँव को यूनेस्को ने विश्व-विरासत सूची में सम्मिलित किया है।


पौराणिक काल में हम्पी को पम्पापुर कहा जाता था। रामायण काल यानी त्रेतायुग में इसको किष्किंधा कहा गया है। 14वीं शताब्दी में इसी जगह हरिहर और बुक्कराय ने विजयनगर की स्थापना की थी। आज भी विजयनगर के अवशेष हम्पी में इधर-उधर बिखरे हैं। कुछ टुकड़े कोप्पल में हैं तो बाकी बेल्लरी जिले में। ये बिखरी चीजें विजयनगर की भव्यता की साक्षी हैं। तुंगभद्रा नदी के आजू-बाजू होस्पेट शहर बसा है। शहर के आस-पास पंपापुर, किष्किंधा और विजयनगर के अवशेष हैं। नदी के दक्षिण ओर विजयनगर और उत्तर किष्किंधा है। ये दोनो क्षेत्र आज विश्व की धरोहर हैं।


लगभग दो सौ साल तक विजयनगर पर भिन्न-भिन्न राजवंशों ने शासन किया। इन राजाओं ने शासन के दौरान अद्भुत चीजों की रचना भी करवाई जिसमें मन्दिर और भवन भी थे। पर हम्पी का इतिहास कृष्णदेवराय के इर्द-गिर्द ही घूमता है। उत्खनन के दौरान मिली अधिकांश चीजें उसी काल की हैं। इनके शासनकाल को इतिहासकारों ने स्वर्णकाल कहा है। कृष्णदेवराय के समय विजयनगर साम्राज्य का रूप धारण कर चुका था। उनके निधन के बाद अच्युतदेवराय यहाँ के राजा हुए। उन्होंने अच्युतदेवरायपुर नाम से नगर का विस्तार किया। इनकी मृत्यु के बाद सदाशिवदेवराय यहाँ के शासक हुए। नाबालिग सदाशिवदेवराय के राजा बनते ही पारिवारिक वैमनस्य भी उभरने लगा जो अंततोगत्वा विजयनगर पर दूसरे वंश का शासन हो गया। इस प्रकार साम्राज्य की नींव कमजोर होती गई जिसका लाभ उठाकर बहमनी सल्तनत ने विजयनगर पर आक्रमण कर दिया। लड़ाई में विजयनगर को हार मिली थी। सुल्तान के सिपाहियों ने अत्यंत बेरहमी से नगर को लूटा और तहस-नहस कर दिया। मन्दिरों की मूर्तियाँ खण्डित कर दी गयीं। धीरे-धीरे नगर जमींदोज हो गया था। 19वीं शताब्दी की शुरूआत में ब्रिटिश वैज्ञानिक ने इसकी खोज की। उत्खनन के दौरान मिले अवशेषों से दुनिया को इस भव्य नगर की कहानी का पता चला।


पर्यटकों को सटीक जानकारी उपलब्ध कराने के लिए इन अवशेषों को पम्पापुर, अच्युतयदेवरायपुर, कृष्णापुर और विट्ठलपुर नाम से चार भागों में बांटा गया है। दक्षिण भारत के पहाड़ बड़ी-बड़ी चट्टानों से बने हैं। ये चट्टानें फिसलाऊं हैं। हम्पी की पहाड़ियाँ भी ऐसी ही हैं। विजयनगर तीन तरफ पहाड़ से घिरा था। ये पहाड़ आज भी हैं। इन खंडहरों तक पहुँचने के लिए इन्हीं पहाड़ों को पार करना पड़ता है।


पहाड़ों को पार करना पड़ता है। खण्डहर में घुसते ही पहला दर्शन टूटेफूटे मन्दिर से होता है। यह गौरी-गणेश का मन्दिर है। मन्दिर की मूर्ति टूटी है। बारह फुट ऊँची मूर्ति का निर्माण राई-व्यापारी ने करवाया था। इसको मस्टर्ड गणेश मन्दिर कहा जाता है। शिला के अगले भाग में गणेश और पृष्ठभाग में माता पार्वती की मूर्ति उत्कीर्ण है। मूर्ति को ऐसे करीने ढंग से गढ़ा गया है कि मानो माँ पार्वती ने गणेश को अपनी गोद में लिया है। फिसलनभरी शिला के नीचे मन्दिरों का समूह है, पर मन्दिरों में पूजा नहीं होती। कहा जाता है कि ऐसे यहाँ चार हजार मन्दिर हैं।


यहाँ के मन्दिरों में जैन, बौद्ध और इस्लामी वस्तुकला की छाप दिखती है। इस्लामी मेहराब तो सही-सलामत है लेकिन बाकी टूटे-फूटे। ऊँची पहाड़ी से मटुंग ऋषि पर्वत, हेमकुट का दिगंबर जैन मन्दिर और ऋष्यमूक पर्वत स्पष्ट दिखता है। यहीं पुराना शिव मन्दिर है जिसमें सिर्फ शिवरात्रि को पूजा होती है। पहाड़ के ऊपर शिलाखंडों से घिरी अंधेरी गुफा है जिसके उस पार छह सौ साल पुराना चना-गणेश मन्दिर है। 18 फुट ऊँची शिला का आकार चने जैसा है। मन्दिर के स्तम्भों पर देवी-देवताओं की मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं।


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