मन्दिर : आर्थिक व्यवस्था

भारतीय सभ्यता में समाज-व्यवस्था के अंतर्गत मन्दिर सदा ही एक महत्त्वपूर्ण स्तम्भ रहे हैं। भारतीय सामाजिक व्यवस्था में मन्दिर एक ऐसी संस्थागत व्यवस्था रहे हैं जिनकी भारतीय समाज के नियमित और सुचारु रूप से संचालन में एक बड़ी और महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। भारतीय मन्दिर ज्ञान- विज्ञान, कला-संस्कृति के साथ-साथ महत्त्वपूर्ण आर्थिक केंद्र भी रहे हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था में मन्दिरों की एक बड़ी भूमिका रही है। प्रमुख आर्थिक केंद्र होने के कारण मन्दिर अकूत धन-सम्पदा के स्वामी भी रहे हैं। प्रसिद्ध विद्वान् एम.जी.एस. नारायणन और केशव वेलुठाट के अनुसार दक्षिण भारतीय मन्दिर स्वर्ण, रजत तथाअन्य बहुमूल्य धातुओं के गोदाम बन चुके थे। यही कारण है प्रारम्भिक मुस्लिम आक्रान्ता और लुटेरों के आक्रमण के मुख्य केंद्र भी मन्दिर ही होते थे। भारतीय समाज के नीति-निर्धारण में मन्दिरों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होने के कारण ही बाद के चरण के मुस्लिम लुटेरों और आक्रान्ताओं ने भी अपने आक्रमण और लूट का केंद्र-बिंदु बनाए रखा, जिसका प्रमुख कारण एक तो उनकी अर्थलिप्सा की पूर्ति और दूसरे भारतीय सनातन समाज को उनके धर्म और संस्कृति से विमुख करने का प्रयास था।


भारतीय परंपरा में जैसा कि हमने चर्चा भी की है, मन्दिर धार्मिक तथा सामाजिक गतिविधियों, ज्ञान-विज्ञान, कला-संस्कृति आदि के साथ-साथ प्रमुख आर्थिक केंद्र रहे हैं तथा अर्थव्यवस्था में उनकी एक बड़ी और स्पष्ट भूमिका रही है। इस आलेख में हम उनके कुछ प्रमुख आर्थिक गतिविधियों और आर्थिक व्यवस्था की चर्चा करेंगे।


भारतीय मन्दिरों की प्रमुख आर्थिक गतिविधियाँ


स्थानीय स्तर पर भारतीय मन्दिर बैंक की भूमिका निभाते थे। एक ओर आधुनिक बैंकों के जैसे ही मन्दिर व्यापारियों तथा सामान्य जनों से जमा ग्रहण करते थे और जमा राशि पर 12% की दर से जमाकर्ताओं को ब्याज देते थे।


लोग अपनी बहुमूल्य वस्तुएँ तथा पैसे मन्दिरों में जमा करते थे। मन्दिरों के प्रति जनमानस में अगाध निष्ठा, इनकी आर्थिकसम्पन्नता, जमा राशि पर उचित ब्याज-दर तथा मन्दिर के न्यासियों द्वारा अपनी भूमिका के समुचित निर्वहन के कारण अपनी जमा- पूँजी को यहाँ सबसे सुरक्षित समझते थे।


राज्य का अधिकतर कोष भी मन्दिरों में ही रखा जाता था तो दूसरी ओर और संस्थाओं को समय-समय पर अनेक प्रकार के ऋण भी प्रदान करते थे। मन्दिर कृषि-विकास, सिंचाई-योजनाओं के लिए, पशुपालन, बागवानी तथा व्यापार के लिए व्यापारिक श्रेणियों, ग्रामसभा तथा सामान्य निर्धारित ब्याज की स्थितियों पर ऋण देते थे। ब्याज के रूप में लोगों या संस्थाओं से अपने दैनिक धार्मिक कार्यों के निमित्त सामग्री, जैसे- तेल, घी, प्रसाद की सामग्री तथा अन्य पूजा-सामग्री तथा अन्य आवश्यक वस्तुएँ लेते थे। पशुपालन के लिए दी गई ऋण पर ब्याज के रूप में दूध, घी आदि पदार्थ तथा कृषि और बागवानी के लिए प्रदान की गई ऋण पर उनके उत्पाद का कुछ भाग ब्याज के रूप में ले लेते थे। इसके अतिरिक्त व्यापार के लिए दी गई राशि पर निर्धारित दर के अनुसार स्वर्ण या मुद्राओं में भी ब्याज लेते थे।


स्वर्ण के रूप में या अन्य प्रचलित मुद्रा के रूप में व्यापारिक या व्यक्तिगत ऋण पर ब्याज की दर 12.5 से लेकर 15 प्रतिशत तक होती थी, परन्तु धन के बदले अनाज की स्थिति में ऋण की दर 25 प्रतिशत से लेकर 50 प्रतिशत की वार्षिक दर होती थी।


मन्दिर ऋण के बदले बंधक के रूप में भूमि अपने पास रखते थे तथा आवश्यकता पड़ने पर ऋण लेने के लिए मन्दिर दान में मिली हुई भूमि को ग्रामसभा या व्यापारियों के पास बंधक रखते थे। मन्दिर उत्पादक- अनुत्पादक- सभी प्रकार के कार्य के लिए ऋण उपलब्ध कराते थे। मन्दिर न केवल व्यापारियों को बड़ी मात्रा में ऋण प्रदान करते थे बल्कि सार्थवाहों को भी अनेक प्रकार की सुविधाएँ उपलब्ध कराते थे।


भारतीय मन्दिर बड़े स्तर पर रोजगार प्रदान करनेवाली संस्था होते थे। मन्दिर मुख्यतया दो स्तर पर रोजगार उपलब्ध कराते थे, पहला, मन्दिरों द्वारा संचालित धार्मिक गतिविधियों के लिए और दूसरा मन्दिरों द्वारा संचालित विद्यालयों तथा अन्य सामाजिक कार्यों के लिये। 11वीं शती के एक अभिलेख के अनुसार तंजौर मन्दिर में शिक्षकों और पुजारियों के अतिरिक्त 609 कर्मचारी कार्यरत थे। एक अन्य अभिलेख के अनुसार विजयनगर-साम्राज्य में अपेक्षाकृत एक छोटे मन्दिर में 370 कर्मचारी कार्यरत थे। मन्दिरों में पुजारियों और शिक्षकों के अतिरिक्त राजमिस्त्री, गाड़ीवान्, लोहार, बढ़ई, मालाकार तथा रसोइयों के जुड़े रहने के अनेक प्रमाण मिलते हैं। सहस्रबाहु मन्दिर से प्राप्त अभिलेख भी बड़े स्तर पर अभियंताओं, लकड़ी के काम करनेवाले तथा अनेक लोगों के कार्यरत रहने की बात करते हैं। बड़े मन्दिरों में लेखाकार तथा राजकीय पर्यवेक्षक भी होते थे। अनेक शोधकर्ताओं ने भी अलग-अलग समय पर अपने शोधकार्यों के माध्यम से भारतीय मन्दिरों को प्रमुख नियोक्ता के रूप में स्थापित किया है।


वेतन के तौर पर अलग-अलग कार्यश्रेणी और कुशलता के अनुसार सामान्यतः मन्दिर के ओर से भूमि प्रदान की जाती थी। चोल-अभिलेखों में वेतन का भुगतान मुद्रा के रूप में करने का भी व्यापक उल्लेख है। इसके अतिरिक्त अनाज के द्वारा भी भुगतान किया जाता था। दैनिक मजदूरों को सामान्यतः अनाज से ही भुगतान किया जाता था।


आगे और-----