मन्दिर, जिसे जहाज पर लादकट

सन् 1564 ई. के भयंकर तालीकोटा युद्ध और विजयनगर के विध्वंस के पश्चात् इसकी राजधानी को पहले पेनुकोण्डा और बाद में चंद्रगिरि स्थानान्तरित कर दिया गया। तत्पश्चात् दक्षिण क्षेत्र के नायक लोग स्वतंत्र होकर राज्य करने लगे और उनलोगों ने भी मन्दिर निर्माण की आकर्षक स्थापत्य कला के विकास में कोई कमी नहीं की। इसके अन्तर्गत निर्मित बहुसंख्यक स्तंभोंवाले विशाल भवनों, गोपुरों एवं कल्याणमण्डपों को हम आज भी देख सकते हैं। वेल्लोर (तमिलनाडु) का कल्याणमण्डप भी उसी परम्परा का प्रतीक है। इसका निर्माण-काल सदाशिवराय (1542-1565) के शासनकाल के अन्त में हुआ। इस सुंदर संरचना में मूर्तिकला तथा वनस्पति-रूपरेखा का अद्भुत मिश्रण है। सुप्रसिद्ध कला-इतिहासकार पर्सी ब्राउन (1872-1955) ने इसे 'कला का प्रत्यक्ष संग्रहालय' (म्यूज़ियम बाई इटसेल्फ) कहा है।



विजयनगर साम्राज्य काल में निर्मित ऐसे कई कलापूर्ण मण्डप आज भी विद्यमान हैं जिनमें मदुरई के सहस्र स्तम्भों का मण्डप, तिरुनेलवती के नेलतईरपा मन्दिर का मण्डप, कोयम्बटूर के निकट स्थिर पेरूर का मण्डप तथा जलकंटेश्वर मन्दिर एवं वेल्लर के कल्याणमण्डप उल्लेखनीय हैं। सुप्रसिद्ध पुरातत्त्ववेत्ता लोंगेस्ट के कथानुसार मदुरई एवं विजयनगर (वर्तमान हम्पी) के मण्डपों को अत्यंत सुंदर कह सकते हैं, तथापि वेल्लोर का कल्याणमण्डप सबसे छोटा रहते हुए भी सर्वोत्कृष्ट है। तभी तोसंसार की नज़र कला के इस अद्भुत स्मारक पर लग गई और ब्रिटिश काल में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के गवर्नर ने इस सुन्दर शिल्प-निकेतन को तोड़कर लन्दन के ब्राइटेड म्यूजियम में स्थानान्तरित करने की महत्त्वाकांक्षी योजना बना डाली। इसको ले जाने के लिए इंग्लैंड से एक जहाज भी चल पड़ा। लेकिन, भारत के सौभाग्य से वह जहाज मार्ग में ही समुद्र में डूब गया। तब दूसरे जहाज की भी व्यवस्था की गयी। इसी बीच राजनैतिक चेतना की गरमाहट के कारण यह योजना निष्फल हो गयी और यह मण्डप यथावत् खड़ा रहा, जिसे मैंने चार बार देखने का सौभाग्य प्राप्त किया। इस कल्याणमण्डप के अलौकिक स्थापत्य के सौन्दर्य का आकलन हम उपर्युक्त घटना से ही समझ सकते हैं कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी इसे सामुद्रिक मार्ग की विषम बाधाओं की परवाह न करती हुई लगभग दस हज़ार किलोमीटर दूर अपने मुल्क में ले जाने को तत्पर थी।


सम्प्रति, यह मण्डप जलकंटेश्वर मन्दिर के बाहरी घेरे की दीवार (प्राकार) के दक्षिण-पश्चिम कोने में अवस्थित है। इसके तीन खण्ड हैं और कुल 46 अलंकृत स्तंभों से यह सुसज्जित है। इसकी पहली इकाई लगभग खुला मण्डप है और इसमें कुल 24 स्तंभ हैं। दूसरी तथा तीसरी इकाइयाँ तीन ओर से दीवारों से घिरी हैं। मण्डप की दूसरी इकाई सामने के खुले मण्डप से प्रायः एक मीटर ऊँची है और तीसरी भी एक ऊँचे अधिष्ठान पर स्थित है। इसकी दक्षिणी दीवार पर एक द्वार-मार्ग है, जो संभवतः नेपथ्य-गृह वा वस्तुभण्डार के लिए प्रयुक्त होता होगा। इसके ऊपरी तल का सबसे सुन्दर और महत्त्वपूर्ण भाग इसका कूर्मपृष्ठ है,


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