विविध मन्दिों के प्रमुख वास्तुशिल्पी पद्मश्री प्रभाशंकर ओघड़भाई सोमपुटा

सन् 1949 में स्वाधीन भारत के उप- प्रधानमन्त्री सरदार वल्लभभाई पटेल " ने सोमनाथ मन्दिर के, जिसे शताब्दियों पूर्व मुस्लिम आक्रान्ता महमूद गजनवी ने अपने दीनी-मजहबी उन्माद में नष्ट-भ्रष्ट कर डाला था, के जीर्णोद्धार के लिए शिल्प-विशारद श्री प्रभाशंकर ओघड़भाई सोमपुरा को राजधानी दिल्ली में सादर आमन्त्रित किया। शिल्प-विशारद प्रभाशंकर ने राष्ट्र के सम्मान की पुनर्प्रतिष्ठा के लिए जीर्णोद्धार के इस पुनीत कार्य को सहर्ष स्वीकार कर लिया।



भारद्वाज गोत्र के मूल प्रवर्तक की रचना


भारद्वाज गोत्र के मूल प्रवर्तक ऋषिवर भरद्वाज उन महर्षि और आदिकवि वाल्मीकि के शिष्य थे जिन्होंने मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के उज्ज्वल चरित्र को जन-जन तक पहुँचाकर अक्षय कीर्ति अर्जित की थी।


भरद्वाज ने यन्त्रकला पर ‘यन्त्रसर्वस्व' नामक एक विशाल ग्रन्थ रचा था। इस विशाल ग्रन्थ में 40 प्रकरण थे। इनमें से एक प्रकरण का नाम 'वैमानिक प्रकरण' है। यह प्रकरण 8 अध्याय, 100 अधिकरण और 500 सूत्रों में रचा गया था। इस समय यह अधूरा उपलब्ध होता है। यह अधूरा वैमानिक प्रकरण सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा, नयी दिल्ली द्वारा माघ 2015 विक्रमी = फरवरी 1959 ईसवी को ‘बृहद् विमान शास्त्र' (कुल पृष्ठ 344) के नाम से प्रकाशित किया गया था। इसके सम्पादक और हिंदी भाषा अनुवादक स्वामी ब्रह्ममुनि परिव्राजक, गुरुकुल काँगड़ी, हरिद्वार थे।


इस ग्रन्थ के अध्ययन से ज्ञात होता है कि प्राचीन भारत में विमान-निर्माण-कला उच्च कोटि के स्तर पर विकसित थी। महर्षि भरद्वाज आयुर्वेद और व्याकरण के भी महान् आचार्य थे। उन्होंने अपने शिष्य पुनर्वसु आत्रेय को अष्टांग आयुर्वेद का जो ज्ञान दिया था, उसका संक्षिप्त रूप इस समय विख्यात चिकित्साशास्त्र चरकसंहिता के रूप में प्राप्त होता है। 32 विद्याओं और 64 कलाओं के बहुश्रुत ज्ञाता भरद्वाज मुनि के गोत्र में उत्पन्न श्रेष्ठ शिल्पियों ने अपने पारम्परिक और अनुभवजन्य ज्ञान से सोमनाथ मन्दिर कालान्तर में साकार कर दिखाया था।


महमूद गजनवी से सहन नहीं हुई। सोमनाथ मन्दिर की दिव्य भव्यता 


मुस्लिम आक्रान्ता महमूद गजनवी (9711030 ईसवी, शासनकाल 998-1002 ईसवी) को सोमनाथ मन्दिर की दिव्य भव्यता सहन नहीं हो सकी। इस सुन्दर और श्रेष्ठ मन्दिर की भव्यता का उल्लेख अल् कजवीनी नामक समकालीन लेखक ने अपनी रचना 'आसार-उल-बिलाद(661-674 हिजरी=1262-1275 ई.) में इस प्रकार किया है : ‘दस हजार गाँव इस मन्दिर (सोमनाथ) की जागीर में थे। प्रतिमा की पूजा और दर्शनार्थियों की देखभाल के लिए एक हजार ब्राह्मण मन्दिर में नियुक्त थे। इसके द्वार पर पाँच सौ सुन्दर युवतियाँ गाती और नृत्य करती थीं। इनका निर्वाह मन्दिर के चढ़ावे से होता था। यह मन्दिर 56 स्तम्भों पर खड़ा हुआ है जो सागवान के बने हए हैं और जिन पर शीशा चढ़ा हुआ है। मन्दिर में सोमनाथ की मूर्ति रखी हुई थी। यह मर्ति मन्दिर के बीच में स्थित थी। इसके नीचे कोई आधार नहीं था और न ऊपर से यह किसी चीज से लटकी हुई थी। इसे इस प्रकार हवा में जो देखता था, अचम्भित हो जाता था, चाहे वह मुसलमान हो या काफिर। मन्दिर के गर्भगृह में अंधेरा रहता था। वहाँ बहुमूल्य रत्नों से दीपकों जैसा उजाला हुआ करता था। पास ही दो सौ मन सोने की श्रृंखला को घंटियों की भाँति हिलाकर पूजा के लिए ब्राह्मणों को जगाया जाता था।' (इलियट एण्ड डाउसन द्वारा 8 खण्डों में मूलतः संपादित का हिंदी- संस्करणः भारत का इतिहास, खण्ड 1, शिवलाल अग्रवाल एण्ड कम्पनी, आगरा, " 1974 ईसवी, पृष्ठ 66-67)।


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