आसरा

दरवाजा बंदकर माँ मुड़ी तो वो दर्दभरी रेखाएँ अब अपना दर्द उगलने लगीं जो कई महीनों पहले पैदा हुई थीं। गोबर से लीपी दीवार को थाम उस पर सिर टिकाया तो अनायास ही आँखें डबडबा आयीं। लिपी दीवार पर उघड़ी हुई हथेली की रेखाएँ भी जैसे वही बयान करने लगीं जो उनके भाग्य में होनेवाला है।


 “माँ?''


दो दिन बाद ही....'


जो पीड़ादायी शब्द जबान न कह। सकी उनका दर्द पुष्पा ने भरपूर गहरे तक महसूस किया। लंबी सांस भर जैसे उसने उस भाग्य को स्वीकार किया। पौळ को। पार कर पुष्पा खुले आंगन में आ गई तो वर्षों से झूमता नीम उदास-उदास सा डालियाँ झुका गले मिलने को आतुर प्रतीत हुआ। दो घड़ी से उदास आँखों से निहारा और दौड़कर उसके तने से लिपट गई। उदास हँख का दिलासा पाकर खारे पानी ने अब भीतर-ही-भीतर उमड़ना घुमड़ना स्वीकार न किया और बह चला।



चूल्हे पर दाल की हाँडी चढ़ा आटे के लिये पीपे को उठाया तो......। कल इस । पींपे को भी अपना घर छोड़ना होगा। वही यात्रा करनी होगी जो घर के लोग तय । करेंगे। वर्षों से यही कोना इसका ठिकाना । है। शायद धूप का मुँह अब तक इसने देखा ही नहीं होगा। पुष्पा के हाथ उसे । बच्चे की तरह सहलाने लगे। अंतरतम पीड़ की लहर सभी निर्जीव वस्तुओं से निकलकर जैसे पुष्पा के सीने में आकर मचलने लगी। तवा, चिमटा, बर्तन, थाली, तसली, सबको ये पुश्तों का ठिकाना त्यागकर जाना होगा। वो परछत्ती जहाँ माँ गुड़ का डिब्बा, मिठाइयाँ बच्चों की पहुँच से दूर रखती थी। न जाने कितनी-कितनी कोशिशों में लपक-लपककर माँ से चुपके मिठाई खाई है उस परछत्ती से। ऊँचे पहाड़ जैसे मुश्किल इस काम में भाई का सहयोग पाकर टुकड़े-टुकड़े मिठाई में अनमोल स्वाद चखा है। सदैव ही यह परछत्ती मुँह चिढ़ाती-सी लगी, उसका वजूद बच्चों की आँखों में सदैव खटका ही है, किंतु आज यह भी वर्षों की साथिन लग रही है।


लग रही है। कच्ची दीवार पर आड़े ढूँठ रखकर । उस पर बांस का ताना-बाना बुन मिट्टी के थपड़ों को लगाते समय दादा जी का सीना गर्व, संतोष से चौड़ा हो गया होगा। ऐसाआसरा जो पीढ़ियों को सहारा देगा, लेकिन यह नहीं सोचा होगा कि पीढ़ी ही की। जरूरत पड़ी तो वह इसका सहारा नहीं बन पायेगी तब क्या होगा? माटी के थपड़ों ने मौसम के न जाने कितने थपेड़े सहन किये, किंतु समय की एक मार सहन न कर सका।।


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