बस्तियों की बसावट का आधार

पानी प्राणिमात्र के लिए प्राणाधार है। पानी के आधार पर सांस- सांस जीवन की सुरक्षा की कल्पना मानव ने बहुत पहले कर ली थी और इसी कारण जलस्रोतों के क्षेत्र में ही मानवीय बस्तियों का विकास किया जाने लगा। कहावत तो यह भी है कि पानी के प्रवाह-क्षेत्र में प्राणियों का लालन-पालनहोता है। जलस्रोतों ने प्राणियों को जीवनरस ही नहीं दिया बल्कि सांसों को सदैव चलित और हृदय को स्पंदित किया। बौद्धकालीन पाली-ग्रन्थ 'मिलिन्दपञ्हो' में नगर-निवेश की जो विधि आई है वह भारतीय नगर-नियोजन की पुरानी ही नहीं, आज तक प्रचलित रही है। इसमें जल की उपलब्धता पर ध्यान रखा रखा जाता था।



उस काल में नियोजन के लिए इंजीनियर को चुना जाता जिसे ‘नगरवडुकी' कहा गया है। नगरवर्धकी इसी का संस्कृत शब्द है। वह सबसे पहले ऐसा स्थान ढूँढ़ता था जो असम या ऊबड़- खाबड़ नहीं हो, वहाँ की भूमि न कंकरीली हो और न ही पथरीली। वहाँ किसी उपद्रव की आशंका न हो। उस काल में बाढ़, अग्नि, चोर या शत्रु के आक्रमणों को उपद्रव के अन्तर्गत माना जाता था। इसी प्रकार वह स्थान अन्य समस्त दोषों से बचा आधार हुआ हो और अतीव रमणीय होना चाहिए। इसके बाद उस ऊँचे-नीचे स्थान को समतल करवाया जाता था और ढूँठ-झाड़ी कटवाकर साफ़-सफ़ाई करवाई जाती थी। इसके बाद नगर का माप-चोख के अनुसार सुन्दर मानचित्र (मापेय्य सोभनूम्) तैयार किया जाता था। उसे कई भागों में बाँटा जाता और चारों ही ओर परिखा-खाई और हाता, मजबूत द्वार, चौकस अटारियाँ, किलाबन्दी, बीच-बीच में खुले उद्यान, चौराहे, दोराहे, चौक, साफ़-सुथरे और समतल राजमार्ग, बीच-बीच में दुकानों की पंक्तियाँ, आराम, बगीचे, बावड़ी, कुएँ, देवस्थानों का निवेश किया जाता था। (मिलिन्दपञ्हो, अनुमानवग्गो, 4)


भोजराज ने समरांगणसूत्रधार में इसी मत को स्वीकार किया है। वह कहते हैं कि नगर, पुर-नियोजन के लिए उचित भूमि वह है जो स्निग्ध और इकसार (अथवा सारभृत), साफ़-सुथरी, प्रदक्षिणाक्रम से जलाशयोंवाली हो, जहाँ पर्याप्त जलसंसाधन उपलब्ध हों और सघन वृक्षों से आच्छादित हो, निबिड़ा एवं पूर्व की ओर ढालू हो; जहाँ पर दूर्वादल, धान्य, औषधियाँ, पूँज, नागरमोथा, कुश घास, वल्कल और चतुर्दिक् प्रसारित स्वादिष्ट एवं स्वच्छ-स्थिर जल हो; जहाँ वास्तु, यज्ञ और देवताओं के स्थल, वन-उद्यान, जैसे सम्भार (सामग्री) विद्यमान हो और जो तालाब, बावड़ी आदि जल-संसाधनों से अलंकृत हो; जहाँ पर वाहनों की आवाजाही सुखप्रद हो और जहाँ जोड़ों (दम्पतियों) की प्रणयलीला सुखपूर्वक होती हो, वह भूमि पुर के लिए प्रशंसित कही गई है, वह समृद्धिप्रदायक है। (समरांगणसूत्रधार, 8.40-42)


यह भी माना गया है कि घरों के आसपास पर्यावरण के लिए वाटिकाओं की रचना हो। ये वाटिका, स्नानगृह-जैसी रचनाएँ लतामण्डप से जुड़ी होनी चाहिए। वहाँ पर सघन लताकुंज भी हों। लकड़ी के शोभित शिखर (मंच, मचान) सहित जल से भरी हुई बावड़ियाँ, पुष्पों के गलियारे भी वहाँ सुन्दर ढंग से कल्पित किए जाने चाहिए। जलादि यंत्रों व उनके संचालन की उचित व्यवस्था होनी चाहिए


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