मध्यप्रदेश के एक अक्षय कीर्ति-स्तम्भः महाराजाधिराज भोज

प्राचीन भारत का मध्यदेश और आज का मध्यप्रदेश अनेक शूरमाओं, साहित्यकारों और निर्माता-नरेशों की अक्षय कीर्ति से सुवासित है। इन्हीं धर्म और संस्कृति के उन्नायकों में एक नाम है परमारवंशीय महाराजाधिराज भोज का। 11वीं शती में पचास वर्षों से भी अधिक समय तक सुदीर्घ शासन करनेवाले भोज परमार वंश के सर्वाधिक प्रतापी और प्रसिद्ध नरेश थे। जहाँ एक ओर वे महाबली योद्धा थे, वहीं दूसरी ओर वे परम विद्यानुरागी, उत्कृष्ट साहित्यकार और महान् निर्माता भी थे। सच कहा जाये तो वे साहित्य, संस्कृति और कला के साधक- संरक्षक थे।



सन् 1018 ई. में परमावंशीय सिंहासन की शोभा बढ़ानेवाले भोज ने अपने समकालीन अनेक राज्यों को पराजित करके अपनी राजनीतिक संप्रभुता स्थापित की। अपने चाचा वाक्पति मुंज की मृत्यु का बदला लेने के लिए उन्होंने कल्याणी के चालुक्य-नरेश गांगेयदेव को हराया। मेरुतुंग के अनुसार उन्होंने अनहिलवाड़ा के राजा को भी परास्त किया था। उदयपुर-प्रशस्ति में चेदि, लाट और तुरुष्कों पर उनकी विजयों का उल्लेख है। इस प्रशस्ति में भोज को ‘पृथिवी का अधिकारी और एक अन्य अभिलेख में ‘सार्वभौम सम्राट् कहा गया है। भोज का उत्तर भारतीय सैनिक अभियान कान्यकुब्ज (कन्नौज) तथा पश्चिम बिहार पर उनके अधिकार से स्वयमेव सिद्ध हो जाता है। गुजरात पर आक्रमण करनेवाले तुर्को को करारी मात देकर भोज ने न केवल उन्हें वापस लौट जाने के लिए विवश किया, अपितु गुजरात के सोलंकियों पर भी अपनी मान-मर्यादा स्थापित की। उन्होंने ग्वालियर के कच्छपघात कुल के कीर्तिवर्मन से भी संघर्ष । किया था। निरंतर युद्ध और सैनिक अभियान के कारण भोज की शक्ति शिथिल होने लगी और तब उन्हें चन्देल, चालुक्य, कलचुरी और सोलंकी शक्तियों के सम्मिलित आक्रमण में अपनी तथा अपने वंश की प्रतिष्ठा की रक्षा करने के लिए अपने प्राण उत्सर्ग करने पड़े।


महाराजा भोज एक राजनीतिक विजेता ही नहीं थे, वे एक उच्च कोटि के विद्वान् भी थे। उनकी राजसभा में विद्वानों का सदैव सम्मान और संरक्षण होता था। अपने विद्यानुराग के कारण भोज ने अपनी राजधानी धारानगरी में एक ‘सरस्वतीकण्ठाभरण' नामक महाविद्यालय की स्थापना की थी, जिसमें काव्य, संगीत, नृत्य और कला की शिक्षा दी जाती थी। उस महाविद्यालय में शिक्षा प्राप्त करने के लिए दूर-दूर से विद्यार्थी आते थे। महाविद्यालय की दीवारों पर उच्च कोटि की रचनाओं से अभिलिखित प्रस्तर-खण्ड पाए गए हैं। कहते हैं इस महाविद्यालय में सरस्वती की एक आदमकद प्रतिमा स्थापित थी, जो आजकल बोस्टन संग्रहालय में है। आज भी यह स्थान ‘भोजशाला' के नाम से जाना जाता है।


परमार भोज एक महान् कवि और साहित्यकार थे। उन्होंने काव्य, व्याकरण, धर्म, दर्शन, गणित, वैद्यक, व्याकरण, कोश तथा वास्तुकला आदि विभिन्न विषयों पर पाण्डित्यपूर्ण ग्रंथों की रचना की थी। इनमें सरस्वतीकण्ठाभरण, शब्दानुशासन, आयुर्वेदसर्वस्व, युक्तिकल्पतरु तथा समरांगणसूत्रधार अत्यधिक प्रसिद्ध हैं। उनका ग्रंथ समरांगणसूत्रधार भारतीय वास्तुशिल्प का एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है। इस ग्रंथ में तत्कालीन भवनों, राजप्रासादों, मन्दिरों आदि के निर्माण-संबंधी निर्देश संकलित हैं। उनकी विभिन्न शैलियों, तल-योजना, ऊर्ध्व-योजनाओं, अलंकारों तथा उनमें स्थापित विभिन्न देव-प्रतिमाओं के विषय में स्पष्ट और रोचक सामग्री दी गई है। यह ग्रंथ तत्कालीन वास्तुविदों के लिए वास्तु-विन्यास का एक आदर्श रूप समुपस्थित करता था।


साहित्यानुराग और विद्याप्रेम भोज का स्वाभाविक और जन्मजात गुण था। यह गुण उनकी बाल्यावस्था में ही प्रकट हो गया था। कहा जाता है कि जब भोज के पिता सिंधुराज के जीवन का अन्तिम समय आया तब भोज केवल 6 वर्ष के ही थे, इसलिए उनके कंधों पर राज्य का भार डालना संभव न था। अतएव सिंधुराज ने अपने भाई मुंज को यह कहकर राज्य सौंपा कि सयाने होने पर भोज को राज्य वापस कर दें। किन्तु कुछ दिन राजा रहकर मुंज की नीयत खराब हो गयी और उसने सिद्धराज नामक एक सेवक को आज्ञा दी कि निर्जन स्थान पर ले जाकर भोज को मार दो और उसका शीश लाकर मुझे दो। सेवक साधु स्वभाव का था। एकान्त में ले जाकर उसने भोज को सब कुछ बता दिया और उसे छिपाकर राजा के पास उसका नकली शीश लेकर लौट चला। चलते समय भोज ने एक भूर्जपत्र पर अपने रक्त से एक श्लोक लिखा और सिद्धराज से कहा कि इसे राजा मुंज को दे देना। वापस आने पर मुंज ने सेवक से पूछा कि मारे जाने के समय भोज ने क्या कहा था। ऐसा पूछे जाने पर सिद्धराज ने वह भूर्जपत्र राजा मुंज को दे दिया। उसमें अंकित था


मान्धाता च महीपतिः कृतयुगालंकारभूतो गतः।।


सेतुर्येन महादधौ विरचितः क्वासौ दशास्यान्तकः॥


अन्ये चापि युधिष्ठिरप्रभृतयो याता दिवं भूपते।


नैकेनापि समं गता वसुमती मुंज! त्वया यास्यति॥ 


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