मध्यकालीन भारतीय नगर-स्थापत्य का अनुपम उदाहरण

 प्राचीन भारत में महानगरों की वास्तुकला पर विशेष रूप से ध्यान दिया जाता था। संपूर्ण सुख-सुविधासम्पन्न उन महानगरों को आज की परिभाषा में ‘स्मार्ट सिटी' ही कहेंगे। इस दृष्टि से काशी एवं काञ्चीपुरम्, रामायणकालीन अयोध्या, महाभारतकालीन राजगृह एवं इन्द्रप्रस्थ, मौर्यकालीन कौशाम्बी, पाटलिपुत्र, तक्षशिला, एवं वैशाली; कालिदासकालीन अवन्तिका तथा पूर्व-मध्यकालीन हम्पी (किष्कंधानगरी) का अपने काल में गौरवपूर्ण स्थान था।



यह हम्पी नामक नगर मध्ययुग में भी विजयनगर नाम से विशाल हिंदू-साम्राज्य की राजधानी था। यह सुयोजित महानगर विशाल राजमार्गों, व्यापार-केन्द्रों, मन्दिरों, दुर्गों, महलों और सैन्य-स्थलों (स्कंधावारों) से सुशोभित था। इसके अन्तर्गत दक्षिण भारत के अधिकांश व्यापारिक शहर और बंदरगाह थे, जिनके माध्यम से मसालों और सूती-रेशमी वस्त्रों के व्यापार पर विजयनगर को एकाधिकार प्राप्त था। इस शक्तिशाली महानगर ने 250 वर्षों तक दक्षिण भारत के चार मुसलमानी राज्योंअहमदनगर, गोलकुंडा, बीदर और बीजापुर को आगे नहीं बढ़ने दिया। अंत में मजहब के नाम पर एक महागठबंधन बनाकर सबने 23 जनवरी, 1565 ई. को तांगड़ी के मैदान में निर्णायक युद्ध किया और छलपूर्वक 90-वर्षीय सेनापति आलियाराम को कत्ल कर यहाँ के भव्य राजप्रासादों और कलात्मक इमारतों को प्रचुर प्रकाश पड़ता है। वास्तव में कुम्रहार से प्राप्त मौर्यकालीन राजप्रासाद अपनी विशालता, भव्यता एवं कलात्मक सुन्दरता के कारण एशिया के प्रसिद्ध सूसा एवं एकबताना के भव्य भवनों से कहीं अधिक समृद्ध तथा अलंकृत प्रतीत होता है। (एशियाटिक रिसर्चेज, पृ. 10)। यथार्थ रूप में कुम्रहार के प्रथम उत्खननकर्ता डी.वी. स्पूनर तथा एल.ए. वैडेल पाटलिपुत्र के दुर्ग प्राचीर तथा राजप्रासाद की शहतीरों की हजारों वर्षों के उपरान्त भी वैसा ही चिकना और अक्षत पाकर आश्चर्यचकित हो गए थे। (ज.ना. पाण्डेय, भारतीय कला, पृ. 29)।


कुम्रहार के प्रस्तर के 80 स्तम्भों युक्त एक विशाल सभागार के अवशेष प्राप्त हुए हैं। ये छः मीटर से अधिक एकाश्म ओपयुक्त आठ पंक्तियों में विभाजित हैं तथा पूर्व से पश्चिम की ओर जानेवाली प्रत्येक पंक्ति में दस स्तम्भ हैं जो 15-15 फुट की दूरी पर स्थित हैं। इन स्तम्भों को भूमि में गाड़ी गई लकड़ी की भारी एवं मजबूत चौकियों पर टिकाया गया था। इस सभागार के छत एवं फर्श काष्ठ-निर्मित जो अग्निकाण्ड में नष्ट हो गये। कर्नल वैडेल ने इसे चन्द्रगुप्त का विशाल सभामण्डप माना है क्योंकि इस स्थल पर उन्हें कुछ मौर्य ओपयुक्त प्रस्तर के टुकड़े प्राप्त हुए थे। यह भवन राजप्रासाद अथवा सभामण्डप ही रहा होगा। इसके दक्षिण में काष्ठ-निर्मित सात चबूतरे या मंच मिले हैं। प्रत्येक मंच 9 मीटर लम्बा, 1.50 मीटर चौड़ा और 1.35 मीटर ऊँचा है। इस मंच के निर्माण का क्या उद्देश्य था, नहीं मालूम, सम्भवतः उनके ऊपर सोपानों का प्रावधान रहा हो। ये मंच काष्ठ-कर्म की श्रेष्ठता के सूचक हैं जिसमें लकड़ी के लट्ठों की जुड़ाई निर्विवाद रूप से अत्यंत स्वच्छ एवं सच्ची है। (वासुदेवशरण अग्रवालभारतीय कला, प. 100)।


इस प्रकार के सभागार ईरान के पर्सिपोलस नगर में भी मिले हैं जिन्हें वहाँ की भाषा में ‘अपादान' कहा जाता था। पाश्चात्य विद्वानों का यह तर्क है कि इसप्रकार के भवन-निर्माण की प्रेरणा भारत ने ईरान से ली होगी- सर्वथा आधारहीन एवं सत्य से परे है, क्योंकि ‘अपादान' शुद्ध संस्कृत-भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है ‘हटा हुआ' या ‘दूर किया हुआ' । पाटलिपुत्र का सभामण्डप राजप्रासाद परिसर में होते हुए भी मुख्य महल या राजकुल से कुछ हटकर बनाया गया है जो अपादान की मूल व्याख्या एवं अर्थ के अनुरूप होने के कारण ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में प्रासंगिक प्रतीत होता है।


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