मौर्यकालीन नगर-नियोजन की श्रेष्ठता का अनुपम उदाहरण पाटलिपुत्र

पाटलिपुत्र  मौर्य-साम्राज्य की राजधानी नगर के रूप में उल्लिखित है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र तथा मेगास्थनीज के वर्णन से पाटलिपुत्र की नगर-योजना तथा अन्य नगरों के विषय में अनुमान लगाया जा सकता है। पाटलिपुत्र का उल्लेख महापरिनिव्वानसुत्त में ‘पुट्टभेदन नगर के रूप में आया है। (ए. घोष, दी सिटी इन अर्ली हिस्टॉरिकल इण्डिया, पृ. 46, विस्तृत विवरण हेतु देखिये राइज डेविड्स कृत दीघनिकाय, द्वितीय खण्ड, पृ. 2; कौटिल्य अर्थशास्त्र, 2.3)। मेगास्थनीज ने अपने ग्रंथ इण्डिका में, जिसे एरियन ने उद्धृत किया है, पाटलिपुत्र नगर के विषय में लिखा है- ‘‘भारत का सबसे बड़ा नगर वह है जिसे पालिब्रोथा (पाटलिपुत्र) कहते हैं। नगर की लम्बाई 80 स्टेडिया (लगभग 15 किमी) है तथा चौड़ाई 15 स्टेडिया (लगभग 3 किमी) है। इसके चारों तरफ एक खाई है। जो 600 फुट (लगभग 185 मीटर) चौड़ी तथा 30 फुट (लगभग 9 मीटर) गहरी है। नगर के चारों तरफ लकड़ी की बनी हुई ऊँची रक्षा-प्राचीर है। इसमें 570 बुर्ज तथा 64 द्वार हैं।'' (बी.बी. दत्त, टाउन प्लानिंग इन एंशियंट इण्डिया, पृ. 323)। नगर- नियोजन के संबंध में कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी रोचक वर्णन मिलते हैं। इस ग्रंथ के अनुसार राजधानी की रक्षा के लिए प्राचीर या प्रकार के बाहर एक दूसरे के समानान्तर तीन परिखाएँ (खाइयाँ) होनी चाहिये। प्रत्येक को पास की खाई से एक दण्ड (2 मीटर) दूर होनी चाहिये। इन तीन परिखाओं की चौड़ाई क्रमशः 14, 12 एवं 10 दण्ड (अर्थात् क्रमशः 25.6 मीटर, 22 मीटर तथा 18.30) मीटर निर्धारित की गई है। खाइयों के किनारों को ईंटों अथवा पत्थरों द्वारा पक्का किया जाता था तथा सबसे भीतरी खाई से 4 दण्ड (लगभग 7.3 मीटर) की दूरी पर प्राकार (रक्षा-प्राचीर) का निर्माण किया जाता था। उसकी चौड़ाई 5 से 10 मीटर तथा ऊँचाई उससे दुगुनी होती थी। प्राकार-निर्माण में ईंटों तथा प्रस्तरों का विधान था तथा इसका ऊपरी छोर 5.50 मीटर से 11 मीटर चौड़ा होता था जिसपर एक रथ आसानी से दौड़ सकता था। प्राकार के ऊपर निर्मित इस मार्ग को परवर्ती साहित्य में 'देवपथ' कहा गया है। इस प्रकार रक्षा-प्राचीर में आवश्यकता के अनुरूप चार से सोलह द्वारों का प्रावधान रहता था, परन्तु इनमें से ब्राह्म, ऐन्द्र, याम्य या सेनापत्य नामक चार द्वार प्रमुख थे। (तारापद भट्टाचार्य, ए स्टडी ऑन वास्तुविद्या, पृ. 70)। अर्थशास्त्र में निर्देशित है कि रक्षा-प्राचीर अत्यंत दृढ़ होनी चाहिये।



पाटलिपुत्र का परकोटा या रक्षा-प्राचीर


मेगास्थनीज ने जिस पाटलिपुत्र का वर्णन प्रस्तुत किया है, उसकी पुष्टि आधुनिक पटना के समीप बुलन्दीबाग नामक स्थल की 1915-16 तथा 1923 ई. में डॉ. डी.वी. स्पूनर द्वारा संपादित पुरातात्त्विक उत्खननों से होती है। बुलन्दीबाग में नगर के परकोटे अथवा शाल-प्राकार (वासुदेवशरण अग्रवाल, भारतीय कला, पृ. 100) के अवशेष 450 फीट लम्बाई तक पाए गए हैं। वास्तव में बुलन्दीबाग के उत्खनन से यह सिद्ध हो गया है कि मौर्यकालीन राजधानी-नगर पाटलिपुत्र की रक्षा-प्राचीर काष्ठ-निर्मित थी जहाँ काष्ठ-निर्मित दीवार तथा खण्डित काष्ठ-स्तम्भ प्राप्त हुए हैं जो मोटे लट्ठों से बनाई गई थी और एक-दूसरे के समानान्तर पूर्व दिशा में गई थी। (कृष्णदत्त वाजपेयी, वास्तुकला का इतिहास, पृ. 56)।


इस शहतीर के लट्ठों के नीचे कंकरीट से निर्मित सुदृढ़ फर्श पाया गया है जिसका विस्तार पूर्व की ओर 350 फुट तक देखा गया है। 1923 ई. में इस सुदृढ़ कंकरीले फर्श के पूर्वी सिरे पर काष्ठ-प्राचीर के अवशेष पुनः मिले हैं। इस स्थान पर लगभग साढ़े तीन से चार मीटर लम्बे सागौन की लकड़ी के मोटे पटरों को रेलवे स्लीपर की भाँति बिछाया हुआ है। इस काष्ठ-शहतीरों की चौड़ाई 10'' तथा लम्बाई 12-13' पाई गई है। इसके दोनों सिरों पर चूले काटकर उसी प्रकार लगभग पौने तीन मीटर लम्बाई के पटरों को खाई के दीवार के सहारे खड़ा किया गया है तथा इन खड़े पटरों को आपस में बाँधने के लिए लकड़ी तथा लोहे की आड़ी पट्टियों का प्रयोग किया गया है।


कुछ विद्वानों ने ऐसा अभिमत व्यक्त किया है कि इस प्रकार से बने रास्ते के ऊपर शहतीरों से निर्मित छत परकोटे की भित्ति के अन्दर बनाया गया गुप्त मार्ग रहा होगा। (बेंजामिन रौलेण्ड, दी पेलिकन हिस्ट्री ऑफ आर्ट, दी आर्ट एण्ड आर्किटेक़र ऑफ इण्डिया, बुद्धिस्ट हिंदू जैन, पृ. 63)। जितनी गहराई से ये काष्ठनिर्मित अवशेष प्राप्त हुए हैं, उससे यह स्पष्ट प्रमाणित होता है कि ये अवशेष पाटलिपुत्र के चारों तरफ बनी रक्षा-प्राचीर तथा चन्द्रगुप्त मौर्य के राजप्रासाद का ही भाग हैं। (आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इण्डिया, 1912-13, पृ. 76)। यथार्थ रूप में बुलन्दीबाग स्थान पर प्राप्त काष्ठ-निर्मित दीवार एवं खण्डित काष्ठ-स्तम्भ के अवशेष नगर-वास्तुकला तथा मौर्यकालीन नगरनियोजन की श्रेष्ठता को इंगित करते हैं।


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