प्राचीन भारतीय नगर-योजना का अनिवार्य अंग वेधशालाएँ

भारतीय ज्ञान और सांस्कृतिक चेतना का मूल स्रोत अपौरुषेय वेद हैं जो ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद के नाम से जाने जाते हैं। इनके छह अंग हैं- शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष। इन छह वेदांगों में ज्योतिषशास्त्र का वही स्थान है जो मनुष्य में चक्षु का स्थान होता है। ज्योतिष के माध्यम से कालगणना की जाती है जो मनुष्यों को इस लोक और अन्य लोकों का ज्ञान कराती है। कालगणना को ठीक प्रकार से जानने और समझने के लिए प्राचीन भारतवर्ष के अनेक नगरों में वेधशालाएँ स्थापित की जाती थीं।



वेधशालाएँ नगर-योजना के एक आवश्यक अंग के रूप में जानी जाती हैं। उदाहरण के रूप में महाभारत (शान्तिपर्व, 59.110-111) के अनुसार छठे मन्वन्तर चाक्षुष और सातवें वैवस्वत के सन्धि-काल में जब पृथुवैन्य का राजा के पद पर अभिषेक हुआ था, तो ब्रह्ममय-निधि = वेदमय-निधि शुक्राचार्य को पुरोधा= राजपुरोहित और महर्षि गर्ग को सांवत्सर=राजज्योतिषी के रूप में नियुक्त किया गया था।


राजा भोज (1067-1112 वि.) द्वारा रचित समरांगणसूत्रधार के पहले दो अध्यायों से ज्ञात होता है कि ब्रह्मा के आदेश से आठवें वसु प्रभास और देवगुरु बृहस्पति की बहिन भुवना के पुत्र देवशिल्पी विश्वकर्मा ने राजा पृथुवैन्य और उनकी प्रजा के लिए व्यापक स्तर पर उबड़-खाबड़ भूमि को समतल बनाकर अनेक नगरों-ग्रामों का विधिवत् निर्माण किया था। इससे ज्ञात होता है कि भारतवर्ष में नगर- नियोजन विद्या और कला बहुत प्राचीन काल से चली आ रही है। उसी के अंतर्गत वेधशालाओं का निर्माण भी हुआ करता था। ऐसी ही अनेक वेधशालाएँ विक्रम संवत् के प्रवर्तक राजा विक्रमादित्य ने उज्जैन, पाटलिपुत्र और दिल्ली इत्यादि नगरों में स्थापित की थीं। इनमें से यहाँ पर दिल्ली की वेधशाला उल्लेखनीय है।


विक्रमादित्य के नवरत्न


कालिदास अपनी रचना ज्योतिर्विदाभरण (22.10) में विक्रमादित्य की विद्वत्सभा के रत्नों का परिचय इस प्रकार देते हैं :


धन्वन्तरिः क्षपणकामरसिंहशंकुर्वेतालभट्टघटखर्परकालिदासाः।


वराहमिहिरो नृपतेः सभायां रत्नानि वै वररुचिर्नव विक्रमस्य॥


अर्थात् वैद्यराज धन्वन्तरि, क्षपणक (जैन साधु सिद्धसेन दिवाकर), अमरसिंह (नामलिंगानुशासन नामक कोश-ग्रन्थ के रचयिता), शंकु, वेतालभट्ट, घटखर्पर, रघुवंशकार कालिदास, ज्योतिषाचार्य वराहमिहिर और निरुक्त के टीकाकार वररुचि- ये राजा विक्रमादित्य की विद्वत-सभा के नवरत्न थे।


कालिदास ने ज्योतिर्विदाभरण (22.19-20) में यह भी बताया है : श्री विक्रमार्क=विक्रमादित्य की राजासभा में जहाँ शंकुसरीखे वरिष्ठ पण्डित, कवि और वराहमिहिर-सदृश ज्योतिर्विद सुशोभित थे वहाँ मैं कालिदास भी नृपसखा के रूप में सम्मानित था। मैंने सुमति देनेवाले रघुवंश और तीन काव्यों की रचना की है। इन सबके अतिरिक्त यह ज्योतिर्विदाभरण नामक कालविधान शास्त्र भी रचा है। 


ज्योतिर्विदाभरण (22.21) में बताया गया है :


वर्षेः सिन्धुरदर्शनाम्बरगुणैर्याते कलौ सम्मिते,


मासे माधवसंज्ञिके च विहितो ग्रन्थक्रियोपक्रमः।


नानाकालविधानशास्त्रगदितज्ञानं विलोक्यादरादुर्जे


ग्रन्थसमाप्तिरत्र विहिता ज्योतिर्विदां प्रीतये॥


अर्थात्, कलियुग के 3068 वर्ष बीत जाने पर माधव=वैशाख मास में मैंने यह ग्रन्थ लिखना प्रारम्भ किया। नाना कालविधान शास्त्रोक्त ज्ञान का आदरपूर्वक अवलोकन करते हुए ज्योतिर्विदों की प्रीति के लिए उर्ज=कार्तिक मास में इस ग्रन्थ की समाप्ति की।


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