समटांगणसूत्रधार में वर्णित नगर-वास्तु

पुर की वृद्धि, शोभा एवं रक्षा के लिए पुर के चारों ओर तीन तलों की प्रतोलियोंवाले बड़े-बड़े दरवाजे बनाए जायें। प्रतोली के बायें से उठा हुआ बाएँ से उसके दूसरे छोर तक पहुँचा हुआ तथा एक हिस्सा बाहर निकला हुआ बनाना चाहिए, दूसरा हिस्सा बायें से निकलकर इसी का घेरा हो जाये और उसके उठने तक आगे बाहर परकोटा बन जाए और इन दोनों के अन्तरावकाश में एक सड़क बन जाए। इसका मुख्य द्वार उन्नत बनाना चाहिए, तभी ‘प्रतोली' (पौरि) संज्ञा सार्थक होगी। पक्षद्वार- उपभोग के उपयुक्त सरिताओं, पर्वतों, जलाशयों को देखने के लिए स्वेच्छा से पक्ष-द्वारों का निर्माण करना चाहिए। जलभ्रम (नालियाँ)- पत्थरों एवं लकड़ियों से तिरोहित जलवाले प्रदक्षिण दो हस्त (हाथ) परिमाणवाले अथवा एक हाथ परिमाणवाले जलभ्रमों (नालियों) का निर्माण करना चाहिए।



समरांगणसूत्रधार (अध्याय 52-56) के अनुसार दुर्ग, प्राकारादि से आश्रित विशाल द्वारों को गोपुर कहते हैं। प्राकार बारा/अटारी) में निकले हुए अवकाशों को उपकार्या कहते हैं और इन क्षेत्रों को अट्टालक। पुरी-संवरण नामवाली ‘चयप्राकारशाला' (मलोत्सर्ग-स्थल) होनी चाहिए। बगीचे में क्रीड़ागृह को ‘उद्यान कहते हैं। जल के तट पर स्थित उद्यान को जलोद्यान कहते हैं। जल के बीच में स्थित वेश्म (आवास) को जलवेश्म कहते हैं। यहाँ पर जो क्रीड़ागृह कहा गया है उसे क्रीड़ागार भी कहते हैं। विहारभूमि को ‘आक्रीड़भूमि' भी कहते हैं। देवधिष्ण्य, सुरस्थान, चैत्य, अर्चागृह, देवायतन, बिबुधागार- ये सब देव-मन्दिरों के पयार्य हैं, जिनसे मन्दिर-वास्तु एवं प्रासादशिल्प के विकासों पर प्रकाश पड़ता है। (समरांगण, अ. 57)


है। (समरांगण, अ. 57) नगर अभ्युदायिक शान्ति- वेदी-निवेश, यात्रा, मन्दिर-निर्माण, अभिचार और नदी-कर्म में तथा मैत्रकार्य एवं श्रमों में शांति (स्तवन) अवश्य करनी चाहिए।


नगर कर वसति योजना- श्रम-विभाजन के अनुरूप जातीय वसति योजना नगरों में इस प्रकार थी : नगर की आग्नेय दिशा में अग्नि से जीविका प्राप्त करनेवाले सुवर्णकारों, लोहारों, आदि-आदि को बसाने की योजना थी। दक्षिण दिशा में वैश्यों, जुआरियों, चक्रिकों अर्थात् गाड़ीवालों के घर स्थापित करने का विधान था। सौकरिक (सूकरोपजीवी), मेषीकार (गड़रिया), बहेलिया, केवट तथा दमनाधिकारी- इन सबको नैर्ऋत्य दिशा में बसाने का प्रावधान था। रथों, शस्त्रों आदि के बनाने की कारीगरी जिनको मालूम है, उनको नगर की वारुणी दिशा में बसाना चाहिए। काम में लगे हुए जो नौकर आदि हैं, और जो शराब बेचनेवाले हैं, उन सबको वायव्य दिशा में बसाना चाहिए। संन्यासियों की कुटियों को, ब्रह्मज्ञानियों की सभा को, पियाऊ तथा धर्मशाला को कुबेर की दिशा में स्थापित करना चाहिए। नगर की ईशान दिशा में घी और फल बेचनेवालों को बसाना उत्तम कहा गया है। बुद्धिमान रथपति को आग्नेय दिशा में, सेनाध्यक्षों और राजा के मुखियों तथा नाना सैन्य को बसाना चाहिए। श्रेष्ठियों को तथा देश-महत्तरों को दक्षिण दिशा में तथा नैर्ऋत्य दिशा में याम्पेकहारों को बसाना चाहिए। कोषाध्यक्ष, महामात्र और आदेशिकों तथा कलाकारों (शिल्पियों) एवं नियामकों को वरुण की दिशा में निवेशित करना चाहिए। वायव्य दिशा में नायकों के सहित दंडनाथों को तथा उत्तर दिशा में पुरोहितों को एवं ज्योतिषियों का सन्निवेश करना चाहिए। सौम्य दिशा में ब्राह्मणों को, इन्द्र की दिशा में क्षत्रियों को, वैश्य तथा शूद्रों को दक्षिण तथा उससे अपर दिशा में बसाना चाहिए। वणिजों, वैश्यों तथा विशेषकर सेनाओं को चारों दिशाओं में ही स्थान देना चाहिए। नगर के बाहर पूर्व दिशा में लिंगों का निवेशन करना चाहिए। बुद्धिमान् स्थपति को दक्षिण दिशा में श्मशानों का निवेश करना चाहिए। इस प्रकार से सब दिशाओं को लक्ष्य करके नगर की वसति-विभाजन पर ध्यान रखना चाहिए। उसी प्रकार से ग्रामों में, खेटों में सेना के निवेशन में भी करना चाहिए (समरांगणसूत्रधार, अ. 88-103)।


नगर में प्रत्येक द्वार पर लक्ष्मी और कुबेर की पूर्वाभिमुख स्थापना करनी चाहिए। राष्ट्र, खेट, ग्राम और पुर आदि को, जब ये दोनों देखते रहते हैं, तब वहाँ पर आरोग्य, अर्थसिद्धि और प्रजा की विजय होती रहती है। विष्णु, सूर्य इन्द्र तथा धर्मराज के मन्दिर पूर्व दिशा में स्थापित करने चाहिए। सनत्कुमार, सावित्री, महतों और माहत के मन्दिर पूर्व-दक्षिण दिग्भाग में बनाने चाहिए। गणेश, माताओं, भूतों एवं प्रेतपति यमराज के मन्दिर दक्षिण दिशा में और भद्रकाली का मन्दिर तथा पितरों के चैत्य दक्षिण-पश्चिम में बनाने चाहिए। विश्वकर्मा, ब्रह्मा तथा वरुण की पश्चिम दिशा में तथा महेश एवं लक्ष्मी के मन्दिर पूर्वोत्तर दिशा में बनाने चाहिए।