‘पण' से ‘प्लास्टिक मनी’ तक का सफ्ट

अर्थ इस पूरे संसार की जीवनरेखा है और मुद्रा इस अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। मुद्रा का इतिहास उतना ही प्राचीन है जितना पुराना मानव सभ्यता का इतिहास है। जबसे मनुष्य ने घर बनाकर रहना प्रारम्भ किया, तभी से मनुष्य को अपनी आवश्यकताओं के लिए विनिमय की आवश्यकता पड़ी है और इसके लिए मुद्रा किसी-न-किसी रूप में सदैव उपस्थित रही है। सर्वप्रथम वस्तु-विनिमय प्रणाली प्रारम्भ हुई, उस समय एक अनाज के बदले दूसरा अनाज या अनाज के बदले पशुधन या अन्य उत्पाद के बदले अनाज या पशु देने का चलन था। वस्तु-विनिमय के संकेत वैदिक काल में भी मिलते हैं और वर्तमान काल तक भी वस्तु-विनिमय प्रणाली का प्रयोग लद्दाख-जैसे कुछ दूरस्थ स्थानों पर हो रहा है और यह हर काल में जारी रहा है। हेमचन्द्र विक्रमादित्य के काल में वस्तु-विनिमय का एक उदहारण यह पंक्ति है- द्वौ गुणवेषाम मूल्य भूतानां यवानामुदशवितः द्विव्यवह उदश्वितः मूल्यम्, जिसका अर्थ है जौ का मूल्य मट्टे से दोगुना है।



वस्तु-विनिमय प्रणाली के साथ एक प्रमुख समस्या मानकीकरण की आती है और इसलिए वस्तु-विनिमय प्रणाली तब तक ही चल पाई जब तक सारा व्यापार सीधे दो पक्षों के मध्य होता था; परंतु व्यापार के विस्तार के साथ ही एक मानक मुद्रा के रूप में स्थापित होने लगा और यह मानक सदैव उस काल में उस समाज में उपस्थित सबसे महत्त्वपूर्ण और मूल्यवान् वस्तु ही रही है। ऋग्वेद के एक मन्त्र में कहा गया है कि मैं तुमको इंद्र नहीं दूंगा, मैं सौ गायों के बदले में भी तुमको इंद्र नहीं दूंगा मैं हजार गायों के बदले में भी इंद्र नहीं दूंगा। यानी इस समय तक गाय ही अर्थव्यवस्था का आधार थी और इसलिए यह मुद्रा के मानक के रूप में स्वीकृत हो चुकी थी।


इसके बाद के काल में स्वर्ण और रजत, मुद्रा के रूप में अस्तित्व में आने लगे थे। चाँदी के लिए संस्कृत में राजतम्, रूप्यकम् और श्वेतम् शब्द का प्रयोग किया गया। वर्तमान का रुपया रूप्यकम् का ही अपभ्रंश है। प्रारम्भ में तो मुद्रा का निर्माण और प्रयोग केवल व्यापारी ही करते थे; परंतु धीरे-धीरे जब शासकों को इसके महत्त्व का अनुमान हुआ, तब शनैः-शनैः राज्य ने मुद्रा को अपने नियंत्रण में ले लिया। उसके बाद के काल में मुद्राओं पर राजचिह्न अंकित किए जाने लगे और उस पर लिपि भी उत्कीर्ण की जाने लगी। सिंधु-सरस्वती काल की मुद्राओं पर वृषभ बना हुआ है।


मुद्राओं को बनाने का सबसे प्राचीन वर्णन मौर्य काल में चाणक्य विरचित अर्थशास्त्र द्वारा मिलता है, इसमें धातु को गलाकर सिक्कों के रूप में ढालने और उसके बाद उस पर चिह्न अंकित करने के बाद सही वजन का करने के लिए तराशे जाने का वर्णन है। इस समय सिक्के गोल, चौकोर और षट्कोणीय होते थे और वे स्वर्ण, रजत और तांबे के बने हुए होते थे, परंतु उनका मूल्य कहते थे। इस समय तक सिक्के किसी भी राज्य की शक्ति और वैभव का प्रतीक भी बन चुके थे, इसलिए इनपर राजचिह्न और राजा का नाम भी लिखा होता था।


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