कतारों का सच

|जकल विमुद्रीकरण पर मीडिया विभिन्न प्रकार की कठिनाइयों को प्रस्तुत कर श्रेय लेने के लिए तत्पर दिखाई दे रही है। हर जगह पर कतारों को दिखाया जा रहा है। लोगों से कुरेद-कुरेदकर यह पूछा जा रहा है कि आपको कितनी कठिनाई हो रही है। हमारे देश में कतार लगवाने की परम्परा की शुरूआत विमुद्रीकरण से नहीं हुई है। दिल्ली-जैसे शहर में लोग बस में चढ़ने से लेकर हर काम के लिए कतार लगाते रहे हैं। यहाँ यह तर्क भी दिया जा रहा है कि लोग एटीएम से पैसा निकालने के लिए मीलों चलकर आते हैं। लोग यह भी बताते हैं कि गाँवों के लोग बीसों किलोमीटर चलकर पैसा के लिए एटीएम पहुँचते हैं और वहाँ पैसा नहीं मिलता है। यहाँ यह बताना जरूरी है। कि ग्रामीण बैंकों की स्थापना, गाँवों में गाँव के लोगों की सुविधा के लिए ही की गई थी। यद्यपि नाम तो ग्रामीण बैंक था परन्तु इनकी स्थापना गाँवों से लगे कस्बों में की गयी। और सरकारी रपट या कहा जाए भारतीय रिज़र्व बैंक की आख्या में इसे ग्रामीण बैंकों का दर्जा दिया गया। सरकार तो व्यावहारिक रूप का जायजा नहीं लेती है, वह सरकारी विभागों की रपट पर ही अपनी योजना बना लेती है। भारतीय रिजर्व बैंक का यह आदेश था कि सभी खातादारों को डेबिट कार्ड जरूर जारी किया जाए, और अधिक-से- अधिक एटीएम खोलें जाएँ। डण्डे से चलनेवाले बैंकों ने एटीएम मशीनें तो लगा दीं, परन्तु उनमें रुपया भरने के लिए तीसरी पार्टी को नियुक्त किया। परन्तु निरंकुश तीसरी पार्टियों ने न तो विमुद्रीकरण के पहले ही एटीएम को पैसों से भरा और न ही विमुद्रीकरण के बाद ही। बैंकों ने खातेदारों से वार्षिक शुल्क भी बैंक खातेदारों के खाते से निकालना शुरू कर दिया। विमुद्रीकरण के पहले सरकार, खासकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को बैंकों पर काफी भरोसा था। यही कारण है कि उन्होंने बैंकिंग एसोसिएशन और बैंक कर्मचारियों की सराहना भी की। परन्तु प्रधानमंत्री के इस भरोसे को कुछ बैंककर्मियों ने धता बता दिया। अब माहौल यह बन गया है कि टीवी में चर्चा करते हुए लोग धैर्य की बात न करते हुए कहने लगे हैं। कि यदि हालात में सुधार नहीं हुआ तो दंगे भड़क जाएँगे। ये वही लोग हैं जो देश में खाद्यान्न तेल की कमी के दौरान पामोलिन तेल के पैकेट को लेने के लिए हफ्तों चक्कर लगाते थे और घूस देकर सिफारिश लगाकर केन्द्रीय सहकारी संस्थाओं से दर्जनों पैकेट तेल लाते थे। पैसा होते हुए भी खाने का तेल बाजार में उपलब्ध नहीं था। गाँवों के रहन- सहन में विमुद्रीकरण का उतना प्रभाव नहीं है, किसान खेत को फसल बोने के पहले ही तैयारी करते हैं, आपसी विनिमय का वातावरण आज भी गाँवों में देखा जा सकता है। विमुद्रीकरण के विरुद्ध अदालतों में जनहित याचिका दायर करनेवाले वकील उस समय कहाँ चले जाते हैं जब तहसील और जिला-स्तरीय अदालतों को हड़ताल के बहाने महीनों नहीं चलने दिया जाता और रोज अदालत के चक्कर काटनेवाले मुवक्किलों और पेशी पर अपनी दिहाड़ी कमानेवाले वकीलों और मुंशियों को फाके करने की नौबत आ जाती है। बहुत सारे ऐसे विषय हैं। जिस पर बहस की जा सकती है, जो विमुद्रीकरण के पहले भी जनता को तकलीफ में डालने का काम करती थी और आज भी करती है। हमारे देश में कतार लगाने से पीछा छूटेगा, ऐसा तो नहीं लगता है। वह चाहे आधार कार्ड, राशन कार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस या फिर जो सरकारी सुविधा आपको लेनी है तो उसके लिए कतार तो लगानी ही पड़ेगी।



जो जनता कभी एटीएम के पास फटकती तक नहीं थी, उसको 50 दिनों तक कतार लगाकर पैसा निकालने का तजुर्बा तो हो ही जाएगा। प्रधानमंत्री के वायदे पर विश्वास तो रखना ही है जिन्होंने कहा है कि जनता को इसके बाद कतार नहीं लगानी पड़ेगी।


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