कौटलीय अर्थशास्त्र के मुद्रा-संबंधी उल्लेख

धर्म,अर्थ, काम और मोक्ष चतुर्विध पुरुषार्थों में अर्थ का महत्त्व सर्वविदित है। धर्मपूर्वक अर्थ की प्राप्ति और उस अर्थ से सम्पूर्ण कामनाओं की पूर्ति इस लौकिक जीवन का प्राथमिक उद्देश्य रहा है। वैदिककाल में निष्क, शतमान और सुवर्ण पद का प्रयोग मुद्रा के अर्थ में होता था। जातककथाओं, पाणिनिव्याकरण तथा कौटिल्य के अर्थशास्त्र में सोने, तांबे और चाँदी के सिक्के को निष्क और सुवर्ण कहा जाता था। रजत-मुद्राओं को कार्षापण अथवा धरण कहा जाता था। पुराणों में देवताओं के अर्थ (धन) को लक्ष्मी और राक्षसों के अर्थ (धन) को निऋति पद प्रदान किया गया है। इसका अर्थ है कि उस काल में भी काले धन (निऋति) का प्रचलन था। निऋति अनुचित प्रकार से संकलित किया गया धन था, जिसका प्रयोग उपद्रवादि सम्पादित करने के लिये राक्षस किया करते थे। 



भारतीय अर्थपरक शास्त्रों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ कौटिल्यकृत अर्थशास्त्र है। इस ग्रन्थ के 15 अधिकरणों में विनयाधिकारिक, अध्यक्षप्रचार, धर्मस्थीय, कण्टकशोधन, योगवृत्त, मण्डलयोनि, षड्गुण्य, व्यसनाधिकारक, अभियास्यत्कर्म, सांग्रामिक, संघवृत्त, आवलीयस, दुर्गलम्भोपाय, औपनिषदिक तथा तन्त्रयुक्ति हैं। इनमें तत्कालीन मुद्रा- सम्बन्धी पर्याप्त चर्चा है। स्वास्थ्यवर्धन के लिये प्रदत्त धन को ‘अनुग्रह' और स्वास्थ्य सुधारने के लिये प्रदत्त धन को ‘परिहार कहा गया है। राष्ट्र को ध्रुवनिधि (स्थायीकोष, विपत्ति में काम आनेवाली) का भी संग्रह करना चाहिये। लघु अपराधों के लिये पणदण्ड की व्यवस्था की जानी चाहिये। कोषगृह के देवता कुबेर और पण्यगृह और कोष्ठागार (रत्नगृह) की देवता श्री (लक्ष्मी) हैं। असली रत्न की जगह नकली रत्न देने और दिलानेवालों को उत्तम साहस (वधदण्ड) का प्रावधान है। 


अर्थशास्त्र के मत में सिक्कों को परखनेवालों पुरुषों की नियुक्ति भी उचित प्रकार से होनी चाहिये। उन पुरुषों के द्वारा सिक्कों की शुद्धता जानकर ही हिरण्य (सुवर्ण का सिक्का) आदि का संग्रह करना चाहिये। जो उसमें से नकली निकले, उसका छेदन उसी समय कर देना चाहिये, जिससे उसका पुनः व्यवहार न हो सके और उनको उचित दण्ड दिलवाना चाहिये- रूपदर्शकविशुद्धं हिरण्यं प्रतिगृह्णीयात्। अशुद्धं छेदयत्। आहर्तुः पूर्वः साहसदण्डः (अर्थशास्त्र, 2.5.12- 14)। कोषाध्यक्ष को चाहिये कि वह विश्वस्त पुरुषों से प्राप्त धन ही संग्रहित करे। सुवर्ण, रजत, हीरा, मरकत आदि मणि, मोती, मूंगा, शंख, लौह, लवण, भूमि, पत्थर, तथा रसधातु- ये सभी खान से प्राप्त होने के कारण खनि कहे गए हैंसुवर्णरजतवज्रमणिमुक्ताप्रवालशङ्खलोह लवणभूमिप्रस्तररसधातवरू खनिः। ये खनिज, मुद्रा के आधार हैं। धन की आमदनी के ये स्थान हैं। समाहर्ता को । करणीय, सिद्ध, शेष, आय, व्यय तथा नीवी की व्यवस्था ठीक-ठीक करनी चाहिये। द्रव्य एकत्रित करने का जो नियत समय है, यदि संग्रहकर्ता उस समय तक न करे तो उसे एक मास का और समय देना चाहिये और यदि उस समय तक भी न कर पाये तो उसे प्रतिमास के हिसाब से दो सौ मुद्रा का जुर्माना किया जाना चाहिये। कोषाध्यक्ष की नियुक्ति उसके आचार-व्यवहार की परीक्षा करके करनी चाहिये। राज्यद्रव्यों को दूसरे द्रव्यों में बदल देना परिवर्तन कहलाता है। और परिवर्तन के द्वारा कोषक्षय करनेवालों को प्राणदण्ड देना चाहिये। सम्पूर्ण आय और व्यय के लेखन पर आचार्य कौटिल्य ने बल दिया है न कि उसके कथनमात्र पर। मुद्रा के सम्बन्ध में मिथ्या बोलनेवालों को भयानक दण्ड का प्रावधान किया गया है। आचार्य कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में 40 प्रकार से राजकोष के द्रव्यों के अपहरण करने की चर्चा कि है, फिर उनके पकड़ने के उपाय भी बताए हैं और उनके दण्ड के विषय में चर्चा की है, जिससे कि समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार का निराकरण किया जा सके। इस प्रकार के अपराधी पर अनुग्रह कदापि न किया जाय, इस बात पर आचार्य ने अत्यधिक बल दिया है। व्यक्ति की आदत घोड़े की तरह होती है। घोड़ा जबतक अपने स्थान पर बँधा रहता है, तबतक वह शान्त रहता है, किन्तु जैसे ही उसे रथ में जोता जाता है वह उछल-कूद मचाने लगता है। मनुष्य में भी पद को प्राप्त करके विकृत होने की सम्भावना अधिक रहती है। एतदर्थ गुप्तचरों को लगाना चाहिये और अनुचित कार्य में संलग्न होने पर उचित दण्ड की व्यवस्था होनी चाहिये। गुप्तचरों की नियुक्ति भी परीक्षा करके करनी चाहिये।


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