विमुद्रीकरण का असर ग्रामीण महिलाओं पर

सरकार के नोटबंदी के ऐलान ने देशभर में हलचल मचा दी। देशविरोधी तत्त्वों और आतंकी संगठनों की नींद उड़ी कि नहीं इसका तो ठीक से पता नहीं पर हमारी ग्रामीण महिलाओं की नींद ज़रूर उड़ गई है। वे सकते में हैं। विशेषकर घरेलू महिलाएँ, वृद्धा और विधवा महिलाएँ या फिर अकेली रह रहीं महिलाएँ बहुत प्रभावित हुई हैं। पैसों को बचाकर रखना औरतों की आदतों में सुमार होता है। कभी-कभी पैसे बचाना उनकी विवशता भी होती है। अधिकतर परिस्थितियाँ उनके विपरीत ही होती हैं। असुरक्षा का भाव उनके मन में हमेशा रहता है। कब अनचाही मुसीबत आ जाए। वे इस अनचाही परेशानी से निपटने के लिए ही पैसे बचाती हैं। वे जानती हैं कि हाथ मज़बूत हैं तो ही कोई कदम उठाना संभव है। वे अपनी निजी जरूरतों को रोककर या अपनी इच्छाओं को मारकर पैसे बचाती हैं। कुछ महिलाएँ खेत-खलिहान में काम करती हैं तोकुछ आसपास की फैक्ट्रियों में काम करती हैं तो कुछ दूसरों के घरों में चौका-बर्तन आदि काम करके पैसा कमाती हैं। वे लाख तंगी होने पर भी मुश्किल से ही सही, पर निजी खर्चे में कुछ पैसे बुरे वक्त के लिए अवश्य बचा लेती हैं। विचार करने की बात है इतनी कठिनाई से बचाया गया धन काला धन कैसे हो सकता है।



ये वे महिलाएँ हैं जो बैंकिंग व्यवस्था का लाभ नहीं उठा पातीं और अपने बचाए पैसों को घर में ही कभी संदूक में, साड़ी की तह में, कभी मिट्टी के गुल्लक में तो कभी आटा-चावल की मटकी में तो कभी जमीन में छुपाकर रखती हैं। बहुत-सी महिलाएँ अशिक्षा के कारण बैंक के लिखने-पढ़ने का काम करने में असमर्थ होती हैं, इसलिए पैसे घर में छुपाकर रखती हैं। वहीं बहुत-सी महिलाएँ बैंक में अपना पैसा सुरक्षित नहीं समझतीं। घर के सदस्यों से एकाउंट छिपा नहीं रह सकता। खाता खुलवाने पर ससुराल का ही पता अपने पते की जगह लिखना होगा। फिर सारे पत्र या स्टेटमेंट उसी पते पर पहुँचेंगे। वे जानती हैं कि पता लगते ही उसके सास, ससुर या पति ये पैसे उससे ज़रूर ले लेंगे। कैश पर किसी का नाम नहीं लिखा होता, उसे कहीं भी छुपाकर रखा जा सकता है। इसलिए वे बैंक में अपने पैसे जमा नहीं करतीं। यह उनका गुप्त लघु एकाउंट होता है। कहने को तो थोड़ा, पर इन गरीब महिलाओं का इस थोड़े-से ही बहुत आत्मविश्वास बढ़ता है।


कभी-कभी पति घर के खर्च के लिए बहुत ही सीमित पैसे देते हैं जिसमें खर्च पूरा नहीं होता या पति किसी दुर्व्यसन में पैसा उड़ा रहा होता है। ऐसी स्थिति में भी महिलाएँ पति की जेब से पैसे निकालकर सुरक्षित कर लेती हैं। यह पैसा न तो चोरी की श्रेणी में आता है और न ही बेईमानी की। यह एक आवश्यकता है। इसी बचाए पैसे से वे महिलाएँ समय विपरीत होने पर अपने बच्चों का इलाज़ या उनकी छोटी-छोटी इच्छाएँ पूरी करके सुख पाती हैं। घरेलू हिंसा की शिकार हो रहीं महिलाओं के लिए तो यह बचाया धन बहुत ही मददगार होता है। बिना पैसे के तो वे कोई कदम उठा ही नहीं सकतीं। यह धन ही उनका आर्थिक स्वावलंबन होता है। बेटी के ब्याह के लिए तो औसतन हर माँ कुछ-न-कुछ बचाकर रखती ही है जो बेटी को देकर प्यार भी जता सके और उसका हाथ भी मजबूत बना सके। इतनी जद्दोजहद करके बचाया पैसा अचानक नोट बंद हो जाने से काले धन में बदल गया। क्या सच में वह काला धन है? अपनी मेहनत की कमाई को वे कूड़े में कैसे फेंकें। नोट बदलने या बैंक में जमा करने का भी तो कोई उपाय उनके पास नहीं है। घरवालों को बताएँ तो उनके मुँह की खाएँ सो चुप ही भली। कुछ ने तो राज खोला, कुछ सारी पीड़ा, सारा दर्द सीने में ही दफ़न किये हैं। निराश हैं। हताश हैं। कौन उनकी मदद करे। क्या सरकार के पास उनके लिए कोई उपाय है या वह उनकी इस व्यथा से अवगत है?


इसीलिए कहा गया है कि अच्छे काम भी सोच-विचार कर ही करने चाहिए यदि लाभ पर ध्यान हो तो एक बार हानि पर भी विचार करना आवश्यक है। नोटबंदी की घोषणा से पहले इन तथ्यों पर ध्यान देना चाहिए था कि लगभग सैंतालिस फीसदी आबादी बैंकिंग नेटवर्क से बाहर है। तीस करोड़ लोगों के पास कोई पहचान-पत्र नहीं है। गाँव में किसी के पास काला धन नहीं है, उन्हें तो अपना घर चलाना ही मुश्किल होता है। लेकिन नोटबंदी की मार सबसे ज्यादा यह निम्न वर्ग ही झेल रहा है। सर्वाधिक विवशता अनपढ़ महिला वर्ग के सामने है। उनके पास अपने नोट बचाने का कोई उपाय नहीं है तथा वे अपने नोट किसी दुकानदार या जान-पहचान के व्यक्ति के हाथ सस्ते दर पर बेचने को विवश हैं। भले ही सरकार का यह कदम बहुत अच्छा माना जा रहा हो, लेकिन यह इन ग्रामीण महिलाओं पर तो अन्याय ही है। वे फिर एक बार अपनी किस्मत को कोस ही रही हैं।