भारत के शौर्य और पराक्रम के प्रतीक शकारि विक्रमादित्य

उज्जयिनी-नरेश महाराज विक्रमादित्य भारत की कोटिकोटि सन्तानों के हृदयदेश पर राज्य कर रहे हैं। इस नाम में ही कुछ जादू है जो विगत 2074 वर्षों से भारतीयों के हृदय में एक अद्भुत प्रेरणा का स्रोत प्रवाहित करवा रहा है। विक्रमादित्य के नाम से विक्रम संवत् अपने देश और नेपाल में प्रचलित है। यद्यपि शक संवत् भारत का राष्ट्रीय पञ्चाङ्ग है, तथापि विक्रम संवत् आसेतुहिमाचल जन-जन का पञ्चाङ्ग है।


विक्रम संवत् के प्रणेता महाराज विक्रमादित्य कौन हैं? आज से 2074 वर्ष पहले भारतीय इतिहास में एक नूतन युग का आवर्तनकर संवत्सर प्रारंभ करनेवाले महाराज विक्रमादित्य अवश्य ही कोई अमित तेजस्वी, महाप्रतापी महापुरुष हुए होंगे। इसमें संदेह के लिए कोई स्थान नहीं। जिस विक्रम का न्याय लोकविश्रुत है, जिसके भूमि में दबे हुए सिंहासन पर अनजाने में बैठ जाने पर गड़रिये का लड़का भी सत्य न्याय कर सकता है, जिसके राज्य में प्रजा सर्वविध सुखी एवं संपन्न थी, जिसकी वेतालपञ्चविंशति की कथाएँ आज तक घर-घर में कही-सुनी जाती हैं, जिसकी प्रशस्तियाँ आज तक मध्य भारत के लोकगीतों में गूंजती है, जो महाकवि कालिदास-जैसे नवरत्नों का अपूर्व आश्रयदाता था, उस महान् विक्रमादित्य को भारत का बच्चा-बच्चा जानता है। उनके लिए और कोई राजा, महाराजा कल्पित भले ही हो, पर विक्रमादित्य तो उन सबके लिए एक यथार्थ सत्य है। उनके लिए न केवल वह 2074 वर्ष पूर्व जीवित था, अपितु उनके हृदय के प्रत्येक स्पन्दन में वह आज भी जीवित है।



भविष्यमहापुराण सहित द्वितीय श्रेणी के सैकड़ों ग्रन्थों, यथा- कथासरित्सागर, बृहत्कथामञ्जरी, सिंहासनद्वात्रिंशक, वेतालपञ्चविंशति, प्रभावकचरित, गाथासप्तशती, इत्यादि में प्रथम शताब्दी ई.पू. के उज्जयिनी-नरेश विक्रमादित्य का पर्याप्त वर्णन मिलता है, जिसका सारांश यह है कि उस काल में, जब आक्रामक शकों के प्रचण्ड आघात से सारा राष्ट्र तिलमिला उठा था, उस समय उज्जयिनी के मालव गणराज्याधिपति परमारवंशीय गंधर्वसेन के पुत्र और राजर्षि भर्तृहरि के अनुज विक्रमादित्य ने 3 लाख शकों को परास्तकर उन्हें भारतवर्ष से बाहर खदेड़ दिया था। ईसा से 57 वर्ष पूर्व भर्तृहरि के विरक्त हो जाने के बाद उसी वर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा, तदनुसार 14 मार्च के दिन उज्जयिनी के सिंहासन पर विक्रमादित्य का राज्याभिषेक हुआ था। इसी दिन उन्होंने सारी प्रजा को ऋणमुक्त करके ‘विक्रम संवत्' का प्रवर्तन किया था और ‘शकारि' (शकों का शत्रु) की उपाधि धारण की थी। इस प्रकार आजकल विक्रम संवत् 2017+57=2074 चल रहा है। उज्जयिनी को राजधानी बनाकर उन्होंने पूरे 93 वर्ष (57 ई.पू-36 ई.) तक एकच्छत्र राज्य किया था और रामराज्य की पुनस्थापना की थी। विक्रमादित्य ने साहित्य एवं कला को महान् प्रोत्साहन दिया और धर्म की रक्षा की। उनके काल में भारत का राजनैतिक साम्राज्य सुदूर अर्वस्थान (अरब) तक पहुँच चुका था। उन्हीं के राजदरबार में धन्वन्तरि, क्षपणक, अमरसिंह, शंकु, वेतालभट्ट, घटखर्पर, कालिदास, वराहमिहिर और वररुचि-जैसे विद्वान् ‘नवरत्नों के रूप में शोभायमान थे। इस सन्दर्भ में कालिदास ने लिखा है


धन्वन्तरिक्षपणकमरसिंहशंकुवेतालभट्टघटखर्परकालिदासाः।


ख्यातो वराहमिहिरो नृपतेः सभायां रत्नानि वैवरूचिवविक्रमस्य॥


-ज्योतिर्विदाभरण, 1210


भविष्यमहापुराण के अनुसार कलियुग के तीन हजार वर्ष बीतने पर विक्रमादित्य का आविर्भाव हुआ, जिन्होंने सौ वर्ष शासन किया। उनके बाद उनके पुत्र देवभक्त ने 10 वर्ष तथा देवभक्त के पुत्र शालिवाहन ने 60 वर्षों तक राज्य किया। पं. भगवद्दत्त का मत है कि ईसा से 57 वर्ष पहले आंध्र देश के प्रतापी राजा शूद्रक ने विदेशी आक्रमणकारियों को भारत से बाहर निकालकर ‘विक्रमदित्य' की उपाधि धारण की तथा विक्रम संवत् चलाया। डॉ. काशीप्रसाद जायसवाल तथा जयचन्द्र विद्यालंकार के मतानुसार आध्रुवंश के महाराज गौतमीपुत्र सातकर्णि ने प्रथम शती ईसा पूर्व में उज्जैन गुजरात के शक महाक्षत्रप नहपान को परास्त करके ‘विक्रमादित्य' की उपाधि धरण की तथा विक्रम संवत् आरंभ किया। चूंकि उज्जैन के मालवगणों ने शकों ने परास्त करने में उसकी सहायता की थी, इसलिए इसी संवत् का दूसरा नाम ‘मालव संवत्' प्रसिद्ध हुआ।


शकारि विक्रमादित्य ने अपने शासनकाल में अयोध्या में श्रीरामजन्मभूमि पर कसौटी पत्थर के 84 खम्भोंवाले एक भव्य मन्दिर का और मक्का में 360 मन्दिरों का निर्माण करवाया था। भारत से अनेक विद्वानों को अरब भेजकर वहाँ सभ्यता-संस्कृति का प्रचारप्रसार भी विक्रमादित्य ने ही किया था। इसके अतिरिक्त देश में 12 ज्योतिर्लिंग और 51 शक्तिपीठों का भी उन्होंने व्यवस्थापन करवाया था। इस प्रकार भारतीय सभ्यता-संस्कृति, ज्ञान-विज्ञान के संरक्षण और प्रचार-प्रसार में विक्रमादित्य का अद्वितीय योगदान है। विक्रमादित्य की प्रचण्ड लोकप्रियता ने उन्हें दन्तकथा बना दिया। कालांतर में अनेक हिंदू राजाओं ने अपने नाम के आगे ‘विक्रमादित्य' लगाकर अपना गौरव बढ़ाया।