तिब्बती बौद्ध-सम्प्रदाय

तिब्बत हजारों वर्षों तक बृहत्तर भारत का अभिन्न अंग रहा है और प्राचीन संस्कृत-ग्रंथों में इसे 'त्रिविष्टप' के नाम से अभिहित किया गया है। अति प्राचीन काल से भारत के ऋषि-मुनि तिब्बत के अत्यन्त दुर्गम और गोपनीय ‘ज्ञानगंज क्षेत्र में गुप्त साधनाएँ करने आते रहे हैं। सातवीं शताब्दी में तिब्बत में गुरु पद्मसंभव द्वारा तिब्बत में बौद्ध सम्प्रदाय के प्रसार के बाद से तो तिब्बत भारत को अपनी गुरुभूमि मानने लगा। बौद्ध भिक्षुओं ने यहाँ अनेक मठों, विहारों और संघारामों की स्थापना की। यहाँ बहुत बड़ी संख्या में बौद्ध और संस्कृत-ग्रंथ लिखे और संरक्षित किए गये। तिब्बत और भारत का सांस्कृतिक संबंध इतना प्रगाढ़ था कि किसी भारतीय नागरिक को कैलास मानसरोवर की यात्रा करने और किसी तिब्बती नागरिक को बोधगया की यात्रा करने के लिए इतिहास में पहले कभी भी वीजा की आवश्यकता नहीं पड़ती थी।



भारतीय बौद्धाचार्यों के प्रयास से तिब्बत में महायान बौद्ध मत का खूब विकास हुआ। यह मत तिब्बत, मंगोलिया, भूटानउत्तर नेपाल, उत्तर भारत के लद्दाख, अरुणाचलप्रदेश, लाहौलस्पीति जिले और सिक्किम क्षेत्रों, रूस के कालमिकिया, तुवा और बुर्यातिया क्षेत्रों और पूर्वोत्तर चीन में प्रचलित है। तिब्बती इस सम्प्रदाय की धार्मिक भाषा है और इसके अधिकतर ग्रन्थ तिब्बती व संस्कृत में ही लिपिबद्ध हैं। तिब्बती बौद्ध मत के भी पाँच उपसम्प्रदाय हैं- इंगमा, कग्युद, सक्या, गेलुग्स और जेनंग।


वर्तमान समय में 14वें दलाई लामा श्री तेनजिन ग्यात्सो तिब्बती बौद्ध सम्प्रदाय के सबसे बड़े धार्मिक नेता हैं।