श्रीकृष्णभक्ति का महान् संवाहक : पुष्टिमार्गीय सम्प्रदाय

महाप्रभु वल्लभाचार्य ने पुष्टिमार्ग के सिद्धान्त के प्रचार-प्रसार के लिए तीन बार सम्पूर्ण भारत की परिक्रमा की। इस परिक्रमा को धर्म क्रान्ति और ‘वल्लभदिग्विजय' कहा जाता है। महाप्रभुजी ने चौरासी बैठकों की स्थापना करके सुदूर उत्तर से दक्षिण तक एवं पूर्व से पश्चिम तक सम्पूर्ण देश को सांस्कृतिक एकता के रूप में जोड़ने का अनूठा कार्य किया।



मानवीय आंकाक्षा के साक्षात् विग्रहस्वरूप श्रीकृष्ण, जिनकी छवि भारतीय जनमानस में गहरे तक बसी है तथा जिनके दर्शन की लालसा में स्वयं को समर्पित करने की भावना भरी हुई है। विश्व के इतिहास में श्रीकृष्ण का अवतार एक अपवाद है। उनके स्वरूप में बहुआयामी भंगिमाओं के दर्शन होते हैं। श्रीकृष्ण के इस बहुआयामी एवं जीवन्त स्वरूप के दर्शन कराने का श्रेय महाप्रभु वल्लभाचार्य (1479-1531) को जाता है। उन्होंने 16वीं शताब्दी में पुष्टिमार्ग के माध्यम से इस अद्भुत छवि का साक्षात्कार कराकर श्रीकृष्ण के दर्शन का चिर उत्सव प्रदान किया। वल्लभाचार्य भारतीय सांस्कृतिक एकता के प्रतीक माने जाते हैं। उन्होंने वैदिक ब्रह्मवाद और भक्ति शुद्ध स्वरूप की प्रतिष्ठा तथा भगवदनुग्रह पर आधारित पुष्टिमार्ग की स्थापना की।


महाप्रभु वल्लभाचार्य का जन्म 1479 ई. में चम्पारण्य (छत्तीसगढ़) में तैलंग ब्राह्मण परिवार में हुआ था। भक्ति-ग्रंथ जहाँ स्वामी रामानन्दाचार्य को मर्यादा पुरुषोत्तम राम का रूप मानते हैं वहीं वल्लभ संप्रदाय में महाप्रभु को श्रीकृष्ण के विट्ठल रूप में पुत्रस्वरूप माना जाता है। वल्लभाचार्य ने वल्लभ-संप्रदाय की भक्ति-साधना में पुष्टिमार्ग के सिद्धान्तों को लागू कर प्रमुख मन्दिरों और बैठकों का विकास किया तथा कृष्ण-भक्ति की धारा को देशभर में अद्वितीय रूप से प्रसारित करने में अपना विलक्षण योगदान दिया।


इस प्रकार जगद्गुरु वल्लभाचार्य ने द्रविड़ देश के आचार्य विष्णु स्वामी के प्रभाव से शुद्धाद्वैत सिद्धांत की स्थापना करके कृष्णभक्ति में पुष्टिमार्गीय भक्तिधारा को उत्तर भारत में प्रवाहित किया। इस दर्शन का आधार यह है कि श्रीकृष्ण ही एकमात्र परब्रह्म सच्चिदानन्द, पूर्णानन्द हैं; वे ही पूर्ण काम एवं लीलाबिहारी हैं। यह दर्शन विशुद्ध प्रेम तथा भावनामय मार्ग होने से सभी के लिए शाश्वत है। उनके मतानुसार परम तत्त्व का दूसरा नाम भक्ति है और वह केवल कृष्णानुग्रह द्वारा ही साध्य है। इस सम्प्रदाय में श्रीकृष्ण की दो प्रकृतियाँ- अक्षर व अर । बताई गई हैं। श्रीकृष्ण की चैतन्य प्रकृति को ब्रह्म का रूप माना जाता है, परन्तु इसमें यह भी दर्शित है कि लीलापुरुषोत्तम तो अक्षर ब्रह्म से भी परे है और उन्हीं का रूप अन्तर्यामी बनकर प्राणीमात्र के हृदय में स्थित है। महाप्रभु वल्लभाचार्य ने इस जगत् को ही श्रीकृष्ण का आधिभौतिक रूप मानते हुए इसे भगवान् का कार्य माना तथा यह प्रतिपादित किया कि यह समूचा जगत् ही श्रीकृष्ण का लीलाक्षेत्र है। पुष्टि का अर्थ पुष्ट करने से होता है। वल्लभ संप्रदाय में भगवान् । की पूजा पुष्टि-पद्धति से ही सेवित होती है।


वल्लभचार्य ने पुष्टिमार्ग के सिद्धान्त के प्रचार-प्रसार के लिए तीन बार सम्पूर्ण भारत की परिक्रमा की। इस परिक्रमा को ‘धर्म क्रान्ति' और 'वल्लभ-दिग्विजय' कहा जाता है। महाप्रभुजी ने चौरासी बैठकों की स्थापना करके सुदूर उत्तर से दक्षिण तक एवं पूर्व से पश्चिम तक सम्पूर्ण देश को सांस्कृतिक एकता के रूप में जोड़ने का अनूठा कार्य किया। आपने इस सांस्कृतिक क्रान्ति में अपना स्थान आंध्र से हटाकर उत्तरप्रदेश में प्रयाग के पास गंगातट पर अडैल नामक स्थान पर स्थापित किया। श्रीनाथजी श्रीमद्वल्लभाचार्य के प्रमुख सेव्य स्वरूप हैं। उन्हें भक्ति दर्शन का संदेश श्रीनाथजी से ही प्राप्त हुआ था। श्रीनाथजी की प्रतिष्ठा के उपरांत पुष्टिमार्ग में सप्तपीठों की स्थापना हुई। महाप्रभुजी के विषय में मान्यता है कि वे आज भी अग्निपुंज गिरिराज जी की बैठक में विराजमान हैं। उनके द्वितीय पुत्र विठ्ठलनाथ जी ने अपने सातों पुत्रों को सात स्वरूप सौंप दिये। इन सात पुत्रों ने भारत में सात पीठों की स्थापना की जो इस प्रकार है


इस प्रकार वल्लभ संप्रदाय ने अपने सिद्धांतों व परिवेश से तत्कालीन भारतीय परिवेश की भावनात्मक एकता में महान् योगदान दिया। इस संप्रदाय को इतिहास की दृष्टि से देखा जाए तो यह स्पष्ट रूप से ज्ञात हो जाता है कि इसने वास्तुकला, मूर्तिकला और चित्रकला को काफी प्रभावित किया। 15वीं-16वीं शती में ब्रजभूमि से विशेष रूप से राजस्थान में आगत वल्लभ-संप्रदाय के भक्तों द्वारा कलात्मक दृष्टि से अत्यधिक वैभव एवं वैशिष्ट्यपूर्ण मन्दिरों के निर्माण की परम्परा निरन्तर समृद्ध हुई। इनमें वल्लभ- संप्रदाय के मतानुयायियों द्वारा श्रीनाथद्वारा में 1671 ई. में प्रतिष्ठित अति वैभवशाली श्रीनाथजी का मन्दिर, 1719 ई. में निर्मित कांकरोली का भव्य श्रीद्वारकाधीश मन्दिर, 1744 में स्थापित कोटा का श्रीमथुराधीश मन्दिर उल्लेखनीय है।


वल्लभ-सम्प्रदाय के मन्दिर वस्तुतः वास्तुकला में मन्दिर का स्वरूप न होकर हवेली परम्परानुसार बनाए गए जिनमें कोई बाबा नन्द की हवेली में पोषित हुए, अतः उनके मन्दिर हवेली परम्परानुसार ही निर्मित होते रहे। इस संप्रदाय के ब्रजभूषण, दामोदर व गोविन्द जी जैसे संत मुख्य हैं। सूरदास, कुंभनदास, छीतस्वामी आदि अष्टछाप कवियों ने संगीत का भक्ति से समन्वयकर उसे उच्चतम शिखर पर पहुँचाया। पुष्टिमार्गीय मन्दिरों में भव्य एवं नयनाभिराम श्रीकृष्ण अथवा श्रीकृष्ण के विभिन्न देवविग्रहों की प्रतिष्ठा ने देवमूर्तियों की तक्षण कला तथा लालित्य को उत्कृष्टता प्रदान की। इस संप्रदाय के विशेष तौर से राजस्थान में प्रविष्ट होने के अनन्तर चित्रकला की ‘नाथद्वारा शैली' का आरम्भ हुआ।


इस प्रकार वल्लभ-संप्रदाय ने अपने उद्धव से लेकर पूरे देश में अपनी भक्ति, समरूपता, सिद्धान्तों सहित धार्मिक भावना, सेवा, चित्रांकन, मूर्ति एवं स्थापत्यकला से पूरे देश में अपनी अनोखी छाप छोड़ी जो आज के वातावरण में भी अपनी उसी गरिमा के साथ प्रतिष्ठित है। पुष्टिमार्ग वात्सल्यमय भक्ति का एक अनुपम मार्ग है।


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