आज भी प्रासंगिक है जफ़रनामा

यूतो पत्र मानव सभ्यता के क्रमिक विकास के प्रतीक हैं जो दो दूरस्थ स्थानों के मित्रों के बीच शब्दों के माध्यम से भावनाओं का आदान-प्रदान करते रहे हैं। वैयक्तिक विचार, चिन्तन, अनुभूति और संवेदनाओं की अभिव्यक्ति- वाला पत्र देश, काल और परिस्थितियों से स्वयं को प्रभावित होने से बचा नहीं सका। प्यारभरे व्यक्तिगत भावों को व्यक्त करने- वाला यह कागज़ का टुकड़ा व्यापार का रुक्का बन गया। इतिहास में ऐसे अनेक पत्रों का भी उल्लेख है जो व्यक्तिगत लाभ-हानि से ऊपर उठकर समाज और राष्ट्र की अभिव्यक्ति बने तो कुछ पत्र राजनीति की चौसर के मोहरे बन अपने आका का हितपोषण करते नजर आये। मेवाड़ की हाड़ारानी के एक पत्र ने इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान अर्जित किया। उदयपुर के सलुम्बर के रावत रतन सिंह चुण्डावत को शादी के तुरंत बाद युद्धभूमि पर जाना पड़ा। रास्ते से उसने अपनी नवविवाहिता रानी को पत्र भेजकर संदेशवाहक को निशानी देने का आग्रह किया था। पत्र पाकर हाड़ी रानी ने निशानी के रूप में अपना शीश प्रस्तुत कर एक महत्त्वपूर्ण संदेश दिया था जिसने इतिहास को सुनहरी पन्ने प्रदान किये। स्वाधीनता के बाद नवम्बर, 1950 में सरदार पटेल ने जवाहरलाल नेहरू को पत्र लिखकर चीन की विस्तारवादी नीतियों के प्रति आगाह किया था। लेकिन नेहरूजी ने उस ओर ध्यान ही नहीं दिया। परिणाम सामने है- चीन लगातार सिरदर्द बना हुआ है।



पत्र और पत्रों के इतिहास की दास्तां बहुत विस्तृत है, लेकिन भारत के गौरवमयी इतिहास में दो पत्र बहुचर्चित हैं। पहला पत्र छत्रपति शिवाजी द्वारा राजा जयसिंह को लिखा गया तथा दूसरा पत्र गुरु गोविन्द सिंह द्वारा अत्याचारी तथा क्रूर मुगल शासक औरंगजेब को मार्च, 1705 में लिखा ‘जफ़रनामा' अर्थात् 'विजयपत्र' है। औरंगजेब से चालीस सैनिक, जिनमें गुरुजी के दो पुत्र भी शामिल थे, भूखे-प्यासे लड़े, लेकिन मैदान नहीं छोड़ा। उससे आहत हो गुरु गोविन्द सिंह ने भाई दयाल सिंह के हाथों औरंगजेब को यह पत्र भेजा जिसमें उसे याद दिलाया कि औरंगजेब, तूने कुरआन की कसम खाकर भी हमसे विश्वासघात किया था। स्वयं को इस्लाम का पैरोकार घोषित करनेवाले का ऐसा कृत्य निन्दनीय है। फारसी में लिखा 134 छंद पंक्तियों का यह पत्र आध्यात्मिकता, कूटनीति तथा शौर्य की अद्भुत त्रिवेणी है। गुरुजी ब्रज के बहुत अच्छे कवि थे। लेकिन उन्होंने अत्याचारी विदेशी को उसी की भाषा में चुनौती दी।


गुरु गोविन्द सिंह जी की 350वीं जयन्ती सारी दुनिया में मनाई जा रही है। इस अवसर पर उनके विचारों पर चर्चा करना प्रासंगिक होगा क्योंकि गुरु साहिब के विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं। आज भी एक ओर पाकिस्तान भारत को परेशान करने के लिए आतंकवादी भेज रहा है तो दूसरी ओर जेहाद पूरी दुनिया को बर्बाद करने के प्रयासों में लगा है। तीसरी ओर हमारा ही एक दूसरा पड़ोसी चीन लगातार अपनी दगाबाजी और विश्वासघात की परम्परा को आगे बढ़ा रहा है। कभी अरुणाचल को अपना बताना तो कभी उत्तराखण्ड में घुसपैठ करना। पाकिस्तान को आँख मूंद समर्थन करने जैसे अनेक लक्षण हैं जो उसकी मानसिकता में कोई बदलाव न होने की पुष्टि करते हैं। आजादी के बाद से लगातार बातचीत, शान्ति-प्रक्रिया का ढकोसला जारी है तो एक बार फिर से गुरु गोविन्द सिंह द्वारा औरंगजेब के नाम भेजे जफरनामा की याद आना स्वाभाविक है। यह सत्य है कि इन तीन शताब्दियों में दुनिया बहुत बदली है, लेकिन कटु सत्य यह भी है कि एक विशेष मानसिकता जस-की-तस है। उस समय भी बातें और वादें तो बहुत हुए, लेकिन हर बार धोखा ही मिला। गुरु गोविन्द सिंह ने एक ऐसे सामर्थ्य-तंत्र की रचना की जिसने क्रूरता के पर्याय बने विदेशी आक्रांताओं को अफगानिस्तान तक पीछा कर छठी का दूध याद दिलाया।


आज भी हम आधुनिक औरंगजेबों के सामने शान्ति की बार-बार गुहार लगाते हैं। प्यार, व्यवहार, व्यापार से सदाचार तक हर तरीका असफल हो रहा है क्योंकि औरंगजेब के वंशजों को उसका हश्र भूल गया है। आज जब हम गुरु गोविन्द सिंह जी की 350वीं जयन्ती मना रहे हैं। हमें गुरु जी के सच्चे उत्तराधिकारी होने के नाते उस विजय संकल्प को दोहराना होगा जिसके अनुसार- ‘जब सभी प्रयास किए गए हों, न्याय का मार्ग अवरुद्ध हो, तब तलवार उठाना और युद्ध उचित है।' यही संदेश गीता के माध्यम से श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दिया था।


ज़फ़रनामा, दशम ग्रन्थ में शामिल है। इस काव्यमय पत्र में एक-एक लड़ाई का वर्णन किसी में भी नवजीवन का संचार करने के लिए पर्याप्त है। इसमें खालसा पंथ की स्थापना, आनन्दपुर साहिब छोड़ना, फतेहगढ़ की घटना, चालीस सिखों की शहीदी, दो गुरुपुत्रों का दीवार में चुनवाया जाना तथा चमकौर के संघर्ष का वर्णन है। इसमें मराठों तथा राजपूतों के हाथों औरंगजेब की करारी हार का भी उल्लेख है। इस पत्र में औरंगजेब को धूर्त, फरेबी और मक्कार संबोधित करते हुए उसे इबादत का ढोंगी तथा अपने पिता तथा भाइयों का हत्यारा बताया है। इसके मुख्य अंश इस प्रकार है : ‘ईश्वर की वंदना करता हूँ, जो तलवार, छुरा, बाण, बरछा और ढाल का स्वामी है और जो युद्ध में प्रवीण वीर पुरुषों का स्वामी है। जिनके पास पवन वेग से दौड़नेवाले घोड़े हैं। औरंगजेब तूने अपने बाप की मिट्टी को अपने भाइयों के खून से गैंधा, और उस खून से सनी मिट्टी से अपने राज्य की नींव रखी। अपना आलीशान महल तैयार किया। यदि सियार शेर के बच्चों को अकेला पाकर धोखे से मार डाले तो क्या हुआ। अभी बदला लेनेवाला उसका पिता कुंडली मारे विषधर की तरह बाकी है जो तुझसे पूरा बदला चुका लेगा। सिकंदर कहाँ है, और शेरशाह कहाँ है, सब जिन्दा नहीं रहे। कोई भी अमर नहीं है, तैमूर, बाबर, हुमायूँ और अकबर कहाँ गए। सब का एक-सा अंजाम हुआ। हम तेरे शासन की दीवारों की नींव इस पवित्र देश से उखाड़ देंगे। मेरे शेर जब तक जिन्दा रहेंगे, बदला लेते रहेंगे। जब हरेक उपाय निष्फल हो जाएँ तो हाथों में तलवार उठाना ही धर्म है। यदि ईश्वर मित्र हो, तो दुश्मन क्या कर सकेगा, चाहे वह सौ शरीर धारण कर ले। यदि हजारों शत्रु हों, तो भी वह बाल बांका नहीं कर सकते हैं। सदा ही धर्म की विजय होती है।'


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