अपोर पंथ

अघोर पंथ, अघोरी, अघोर पुरुष, आदि शब्दों की चर्चा होते ही । लोगों के मन में श्मशान, खोपड़ी, चिता, चिता की राख, शव-साधना, गांजा, अफीम, नशा और शराब-जैसे डरावने शब्द सबसे पहले आते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि यह पंथ अपने आपमें अद्भुत और विचित्र है तथा इसमें समाहित प्रक्रियाओं को करना आम मनुष्य के वश में नहीं है। वस्तुतः, यह जितना डरावना और घृणित दिखता है उतना डरावना और घृणित है नहीं; यदि इसे ज्ञान, तर्क और चिन्तन की दृष्टि से देखा जाए। इसकी पद्धति और प्रक्रियाएँ कदाचित बहुत ही जटिल हैं और उनको कर पाना सबसे कठिन श्रेणी के साधकों अथवा चेतन, अर्धचेतन एवं अवचेतन में सर्वश्रेष्ठ सन्तुलन बनाने की क्षमता रखनेवाले योगियों के लिए ही सम्भव है। अघोर पंथ हिंदू-धर्म का ही एक सम्प्रदाय है जिसकी उत्पत्ति के बारे में लोग अलग-अलग मत रखते हैं परन्तु अधिकांश लोग यह मानते हैं कि अघोर पंथ के प्रर्वतक और आदि आचार्य साक्षात् भगवान् शिव हैं। हिंदू धर्मशास्त्रों में भगवान् शिव और उनके रूपों का वर्णन जिस प्रकार से किया गया है, उससे ऐसा सत्य ही प्रतीत होता है कि इतने कठिन पंथ की शुरूआत शिव-जैसे महायोगी और महागुरु ही कर सकते हैं क्योंकि उनके जैसा निष्काम, निष्कपट, निर्लेप, निर्मल और निराकार कोई नहीं हो सकता। शिव रुद्राष्टक के दूसरे श्लोक में कहा भी गया है


निराकारमोंकारमूलं तुरीयं


गिराज्ञानगोतीतमीशं गिरीशम् ।


करालं महाकालकालं कृपालं गुणागार


संसारपारं नतोऽहम् ॥



अर्थात्, जिनका कोई आकर नहीं, जो ॐ के मूल हैं, जिनका कोई नहीं, जो पर्वत के वासी हैं, जो सभी ज्ञान और शब्द से परे हैं, जो कैलास के स्वामी हैं, जिनका रूप भयावह है, जो काल के स्वामी हैं, जो उदार एवं दयालु हैं, जो गुणों का खज़ाना हैं, जो पूरे संसार से पर हैं और मैं उनके सामने नतमस्तक हूँ।


कुछ लोग अघोर पंथ को कापालिक सम्प्रदाय के समकक्ष ही मानते हैं और ये दोनों सम्प्रदाय शिव-साधना से ही सम्बन्धित हैं। जैसे भगवान् शिव अपनी रहस्यमय क्रियाओं और विचित्र व्यवहार के लिए जाने जाते हैं, उसी तरह अघोर सम्प्रदाय को माननेवाले या उसके नियमों पर चलनेवाले भी अपने विचित्र व्यवहार और रहस्यमय क्रियाओं की वजह से जाने जाते हैं। जिस तरह शिव को कैलास का एकान्तवास पसन्द है, उसी तरह इन अघोरियों को भी श्मशान का एकान्तवास पसन्द होता है। जिस तरह भगवान् शिव को भी निर्लेप और वासना में निर्लिप्त न रहनेवाला कहा गया है, उसी तरह अघोरी भी अपनी उदासीनता और निर्लिप्तता के कारण जाने जाते हैं और वासना इन्हें अपने मोहपाश में नहीं बाँध पाती। हालांकि, इस उदासीनता के कारण ये मुख्य धारा के साधु, सन्तों और संन्यासियों की तरह प्रसिद्धि नहीं पा पाते।


अघोर पंथ में कई धाराएँ हैं और इन धाराओं की कुछ अपनी विशेष प्रक्रियाएँ हैं, लेकिन इन सभी धाराओं में शव-साधना सबसे प्रमुख है। शव-साधना की क्रिया द्वारा अघोर साधक अपने अस्तित्व के विभिन्न चरणों को प्रतीकात्मक रूप में अनुभव करने की कोशिश करते हैं। अवधूत भगवान् दत्तात्रेय को अघोरशास्त्र का गुरु माना जाता जो शास्त्रों के अनुसार शिव के ही अवतार । ध्यान से देखनेवाली बात यह है कि एक अघोरी आजीवन जीवन के प्रति बहुत ही सहज होता है। एक सामान मनुष्य जीवन में समाज की सिखाई चीजों को जीवन में उतारना शुरू करता है जबकि एक अघोरी प्रकृतिप्रदत्त सहज बातों को ही जीवनभर अपने साथ लेकर चलता है। एक तरह से देखा जाए तो एक बच्चा भी अघोरी है। क्योंकि वह सीखी हुई बातों से परे है। वह प्रकृति के साथ और प्रकृति की दी हुई शक्तियों के आधार पर जीवन में इच्छाओं का स्थान देता है और कुछ भी करने से पहले न तो किसी की आज्ञा लेता है, न ही हिचकता है जबकि एक समझदार मनुष्य जीवन में समाज से सीखी हुई इच्छाओं को स्थान देता है। अघोरपंथी यह मानते हैं कि चाहे फूलों की सेज हो या श्मशान में जलती कोई चिता, कोई खाने योग्य पदार्थ हो या न खाने योग्य, सुविधा और इच्छा के हिसाब से अनुभूत होता है और अघोर पंथ में सुविधा से उत्पन्न भेद का कोई स्थान नहीं है। इस पंथ के बारे में कई भ्रान्तियाँ भी हैं लेकिन वह कितनी सच हैं, इनका अभी तक ठीक-ठीक पता नहीं चल पाया है।


काशी या वाराणसी को अघोर पंथ का सबसे प्रमुख स्थान माना जाता है, लेकिन काशी के अतिरिक्त भारत के और भी बहुत से ऐसे स्थान हैं जो अघोर-साधना के लिए बड़े ही प्रसिद्ध हैं। उन स्थानों में से एक असम का कामाख्या मन्दिर भी है। हिंदू-धर्म की मान्यता के अनुसार कामाख्या मन्दिर वही मन्दिर है जहाँ जब माता सती की योनि गिरी थी। असम के अलावा बंगाल के तारापीठ, नासिक के ज्योतिर्लिंग, उज्जैन के महाकाल के आसपास भी अघोर साधना करनेवालों का देखा जा सकता है। ऐसी मान्यता है कि ऐसे स्थानों पर साधना करने से अघोर साधक को कम समय में सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। काशी भगवान् शिव की नगरी है और इस कारण इन सारे अघोर स्थानों में उसका स्थान सबसे ऊँचा है।


जीवन अपने आपमें एक अबूझ पहेली है और इसी कारण ईश्वर मनुष्यों को माया- मोह के फेर में डाल देता है। जीवनरूपी अबूझ पहेली को वही हल कर सकता है जिसने अघोरियों की तरह मोह-माया, विषयभेद, सुविधा, स्वाद, रंग, रूप, सुगन्ध, चमक, तृष्णा, वासना-जैसी आकर्षक संज्ञाओं का पूर्णरूपेण त्याग कर दिया हो।  


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