बौद्ध मत, सनातन हिंदू-धर्म की ही एक शाखा है।

भगवान बुद्ध ने न तो किसी नये धर्म का प्रवर्तन किया और न अपने को कभी किसी नवीन धर्म का संस्थापक या अवतार ही बतलाया। उन्होंने तो स्वयं ही कहा था कि वे किसी नवीन धर्म का प्रचार नहीं कर रहे, वरन् सनातन काल से चले आ रहे धर्म को ही समझने का प्रयास कर रहे हैं। उस समय के देश-काल की परिस्थिति को देखकर उन्होंने सनातन-धर्म या हिंदू-धर्म की ही एक विशेष प्रकार से व्याख्या की। वस्तुतः उन्होंने स्वयं धर्म का आचरण करके लोगों को धर्म की शिक्षा दी। उन्होंने जो कुछ उपदेश दिया, वह सब हिदू-धर्म के प्राचीन ग्रन्थ वेद, उपनिषद्, स्मृति, गीता आदि के आधार पर ही दिया।


बुद्ध को नास्तिक, अनात्मवादी, दुःखवादी, अनीश्वरवादी और मरणोत्तर आत्मा का अस्तित्व न माननेवाले कहा जाता है, पर ऐसी बात वास्तव में है नहीं। उन्होंने आत्मा, मुक्ति, पुनर्जन्म, कर्मानुसारजन्म, ब्रह्मप्राप्त पुरुष की स्थिति आदि को माना है और उनके संबंध में वही बातें कही। हैं जो परम्परा से हिंदू-धर्म में मानी जाती हैं।



उदाहरणार्थ वेदविरोध की बात लीजिए। बुद्ध ने (हिंसात्मक) कर्मकाण्ड का विरोध किया। सो वस्तुतः सनातन-धर्म में भी ज्ञान के उच्च स्तर पर कर्मकाण्डरूप यज्ञों को बहुत ऊँचा स्थान नहीं दिया गया है। वैदिक यज्ञ के संबंध में मुण्डकोपनिषद् में आया है- ‘प्लवा ह्येते अढा यज्ञरूपाः। और इन अदृढ़ नौका पर सवार होनेवालों की निन्दा की गई है। गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने भी कहा है


वैगुण्यविषया वेदा निस्वैगुण्यो भवार्जुन। और यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः।। -गीता, 2.45


वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः॥ -वही, 2.42


यावानर्थ उदपाने सर्वतः संप्लुतोदके। तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः॥ -वही, 2.46


अर्थात्, वेद (उपर्युक्त प्रकार से) तीनों गुणों के कार्यरूप समस्त भोगों एवं उनके साधनों का प्रतिपादन करनेवाले है; जो भागों में तन्मय हो रहे हैं, जो कर्मफल के प्रशंसक वेदवाक्यों में ही प्रीति रखते हैं, सब ओर से परिपूर्ण जलाशय के प्राप्त हो जाने पर छोटे जलाशय में मनुष्य का जितना प्रयोजन रहता है, ब्रह्म को तत्त्व से जाननेवाले ब्राह्मण का समस्त वेदों में उतना ही प्रयोजन रह जाता है।


उपर्युक्त श्लोकों में सकाम कर्मकाण्ड का विरोध किया गया है, ज्ञानमय वेद का नहीं।


भगवान् बुद्ध ने जगत् को दुःखमय माना है और इस दुःख से त्राण पाने के लिए मार्ग बताया है। यही बात सनातन-धर्म के सारे शास्त्रों में है। गीता में भगवान् ने जगत् को दुःखमय बतलाया है- दुःखालयमशाभतम् (गीता, 8.15), अनित्यमसुखं लोकम् (वही, 9.33), ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते। आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः॥ (वही, 5.22)


परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि दुःखातीत परम सुख नहीं है। भगवान् श्रीकृष्ण ने आत्यन्तिकसुखमश्नुते कहा है, वैसे ही भगवान् बुद्ध भी कहते हैं कि जीव । जहाँ पाशमुक्त होकर, विसंयुक्त होकर निर्वाण में प्रतिष्ठित है, वहाँ विपुल सुख, अद्भुत परमानन्दभूमानन्द है- प्रामोद्य बहुल (पामज्ज बहुलो)। बुद्धदेव ने हिंदू-धर्म की भाँति ही स्वर्ग-नरक माना है। वे कहते हैंसग्गां सकृतिनो यस्सि निरये पापकम्मिनो, अभूतवादी निरयं उपेति। -धम्मपद अर्थात्, पुण्यात्मा लोग स्वर्ग में जाते हैं और पापकर्मी लोग नरक में। असत्यवादी नरक में जाते हैं।


हिंदू-धर्म की भाँति ही उन्होंने कर्मभेद से पुनर्जन्म माना है और दैव, मानुष, नरक, पैशाच, पशु तथा तिर्यक् योनि की प्राप्ति वैसे ही बतलाई है, जैसे छांदोग्योपनिषद् में उत्तम कर्म करनेवालों के लिए उत्तम योनि और नीच कर्म करनेवालों के लिए कूकर- शूकरादि नीच योनि की प्राप्ति कही गई है।


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