भारतवर्ष में शक्तिपूजा की परम्परा

आश्विन शुक्ल में नवरात्र-स्थापना । और दुर्गा पूजा पूरे देश में हजारों वर्षों ।  की मातृपूजा की उस परम्परा का चली आ रही है। आज तो इसने पौराणिक परम्परा के अनुसार उस दुर्गा की उपासना का रूप ले लिया है ।


शरतुकाल  में की जानेवाली शक्तिपूजा इस देश की प्राचीन परम्परा है। देश के पूर्वी अंचल, विशेषकर बंगाल में यही वर्ष का प्रमुख उत्सव होता है। नवरात्रों की दुर्गा पूजा वहाँ का सबसे बड़ा पर्व और ‘पूजा' का अवकाश सबसे बड़ा अवकाश होता है। उत्तर भारत में अवश्य ही नवरात्रों के साथ रामलीला के जुड़ जाने से यह भ्रम होने लगता है कि नवरात्र कहीं रामचरित्र से सम्बद्ध न हो। अब तो शोध-विद्वानों द्वारा यह भ्रम दूर कर दिया गया है कि विजयदशमी का रावण-वध के साथ ऐतिहासिक सम्बन्ध नहीं है, केवल पारम्परिक सम्बन्ध ही है। अनेक नगरों में रामलीलाएँ आज भी रामनवमी के अवसर पर होती हैं। जब से बनारस की रामलीला विजयदशमी पर शुरू की गई थी, यह परम्परा अन्य नगरों में भी चल निकली। आश्विन शुक्ल में नवरात्र-स्थापना और दुर्गा पूजा पूरे देश में हजारों वर्षों की मातृपूजा की उस परम्परा का स्मरण दिलाती है जो आदिकाल से चली आ रही है। आज तो इसने पौराणिक परम्परा के अनुसार उस दुर्गा की उपासना का रूप ले लिया है जिसका चरित्र मार्कण्डेयपुराण के तेरह अध्यायों में निबद्ध है। दुर्गा के चरित्रों में दुर्गा द्वारा महिषासुर का वध, चण्ड और मुण्ड का वध, शुम्भ और निशुम्भ का वध आदि उपाख्यान निबद्ध है और इसमें लगभग सात सौ श्लोक होने के कारण इस चरित्र को ‘दुर्गासप्तशती कहा जाता है। इसी का पाठ नवरात्र के 9 दिनों में किया जाता है और इसके तीन भाग कर प्रथम चरित्र महाकाली को, मध्यम चरित्र महालक्ष्मी को और उत्तर चरित्र महासरस्वती को समर्पित किया जाता है। पुराणों में मातृपूजा को पौराणिक आख्यानों के साथ जोड़कर इन तीनों शक्तियों को क्रमशः शिव, विष्णु और ब्रह्मा की शक्तियाँ बताया गया है जबकि शक्तिपूजा को शिव की अर्धांगिनी पार्वती के साथ जोड़कर उसे शिव और शाक्त आगमों की तान्त्रिक परम्परा का अंग भी बनाया गया है।



तान्त्रिक पूजा की यह परम्परा अत्यन्त प्राचीन है। देश में जिस प्रकार वेदों की ऋषिप्रज्ञा समादृत है, उसी प्रकार तंत्रों की साधना भी। वेदों को निगम और तंत्रों को आगम कहा गया है। निगम और आगम का समान महत्त्व माना गया है। तान्त्रिक विद्याओं की यह परम्परा भी इतनी विशाल और रहस्यात्मक है कि उसका ओर-छोर पाना असम्भव है। पूरे तंत्र-साहित्य का आकलन अब तक नहीं हो पाया है जिसका प्रमुख कारण यह रहा है कि तंत्रविद्या को आरम्भ से ही इतना गोपनीय और रहस्यात्मक बनाकर रखा गया और उसका प्रचार तो दूर, उसे जान-बूझकर छिपाया जाता रहा। इसके फलस्वरूप तंत्र का काफी साहित्य आज भी अप्रकाशित है। जो साहित्य उपलब्ध है, उसका भी विस्तार इतना है कि उसका संकेत भी महासागर की थाह पाने का प्रयत्न-सा लगता है। आज सामान्य भारतीय को पौराणिक परम्परा की देवियों का तो ज्ञान है, तान्त्रिक परम्परा की देवियाँ अब भी संकेतों से ही अभिहित की जाती हैं।


आज नवदुर्गाओं की जो पूजा की जाती है, यह पौराणिक परम्परा की देन है। पुराण में सिंहवाहिनी दुर्गा के 9 स्वरूप गिनाए गए हैं : शैलपुत्री, ब्रह्चारिणी, चन्द्रघंटा, कुष्माण्डा, स्कन्दमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धिदात्री। नवरात्र के 9 दिनों की गणना के साथ तथा कन्याओं की पूजा के रूप में इनकी आज भी पूजा की जाती है, किन्तु तान्त्रिक परम्परा में, जो शुद्ध चैतन्य की उपासना मानी जाती है, दश महाविद्याओं की साधना की जाती है। महाविद्या से तात्पर्य गुह्य (गुप्त) विद्या है जिसे आगम-परम्परा ने स्थापित किया है। ये आगम शैवागम और शाक्त तंत्र- दो शाखाओं में विभाजित किए जा सकते हैं। शैव तंत्र भी शिवागम, भैरवागम आदि अनेक शाखाओं में विभक्त है। आगम-साहित्य की शाखाओं में यामल, डामर, पाञ्चरात्र आदि अनेक भेद-प्रभेद शामिल हो गए हैं। आगमों का मूल प्रतिपाद्य परमाद्वय विद्या का सूक्ष्म विश्लेषण था। शुद्ध चैतन्य किस प्रकार हमारी चर्चा को प्रभावित करता है, इसका विश्लेषण कर इच्छा, ज्ञान और क्रिया- तीनों का तादात्म्य करके चित् शक्ति की उपासना इन आगमों में बतलाई गई है। मध्य काल में शायद आगमों का शास्त्रीय पक्ष उतना चमत्कारजनक नहीं लगा जितना क्रियात्मक पक्ष। इसलिए आज तान्त्रिक क्रियाओं के रूप में मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण आदि टोने-टोटके और श्मशान-साधना, अघोर-साधना जैसे प्रकार ही तान्त्रिक साधना के रूप में सामान्य व्यक्ति द्वारा भ्रमवश समझ लिए जाते हैं जबकि आगम की मुख्य विषयवस्तु यह नहीं हैं। मध्य काल में यौगिक क्रियाओं का समन्वय कर तान्त्रिक साधना को इस प्रकार की उग्र साधना या वामाचार का रूप दे दिए जाने के कारण आज सामान्यतः ऐसी धारणा फैल गई है कि तान्त्रिक क्रियाएँ या तो उग्र होती हैं या किसी के अहित के लिए प्रयुक्त की जाती हैं। लोकभाषाओं में कापालिकों और जोगियों की जो कथाएँ प्रचलित हुईं, उनके कारण शायद यह धारणा बन गई हो।


आगे और-----